मलूकदास (संत) का जन्म, संo १६३१ की वैशाख बदी ५ को, कड़ा (जिo इलाहाबाद) के कक्कड़ खत्री सुंदरदास के घर हुआ था। इनका पूर्वनाम 'मल्लु' था और इनके तीन भाइयों के नाम क्रमश: हरिश्चंद्र, शृंगार तथा रामचंद्र थे। इनकी 'परिचई' के लेखक तथा इनके भांजे एवं शिष्य मथुरादास के अनुसार इनके पितामह जहरमल थे और इनके प्रपितामह का नाम वेणीराम था। उनका कहना है कि मल्लू अपने बचपन से ही अत्यंत उदार एवं कोमल हृदय के थे तथा इनमें भक्तों के लक्षण पाए जाने लगे थे। यह बात इनके माता पिता पसंद नहीं करते थे और जीविकोपार्जन की ओर प्रवृत्त करने के उद्देश्य से, उन्होंने इन्हें केवल बेचने का काम सौंपा था परंतु इसमें उन्हें सफलता नहीं मिल सकी और बहुधा मंगतों को दिए जानेवाले कंबल आदि का हाल सुनकर उन्हें और भी क्लेश होने लगा। बालक मल्लू को दी गई किसी शिक्षा का विवरण हमें उपलब्ध नहीं है और ऐसा अनुमान किया जाता है कि ये अधिक शिक्षित न रहे होंगे। कहते हैं, इनके प्रथम गुरु कोई पुरुषोत्तम थे जो देवनाथ के पुत्र थे और पीछे इन्होंने मुरारिस्वामी से दीक्षा ग्रहण की जिनके विषय में इन्होंने स्वयं भी कहा है, मुझे मुरारि जी सतगुरु मिल गए जिन्होंने मेरे ऊपर विश्वास की छाप लगा दी, (सुखसागर पृo १९२)।

अभी तक पाए गए संकेतों के आधार पर कहा जा सकता है कि इनका विवाह संभवत: १२ वर्ष की अवस्था के अनंतर ही हुआ होगा। इनकी पत्नी का नाम ज्ञात नहीं। इनके देशभ्रमण की चर्चा करते समय केवल पुरी, दिल्ली एवं कालपी जैसे स्थानों के ही नाम विशेष रूप से लिए जाते हैं और अनुमान किया जाता है कि यह पर्यटन कार्य भी इन्होंने अधिकतर उस समय किया होगा जब ये वृद्ध हो चले थे तथा जब ये अपने मत का उपदेश भी देने लगे थे। संदृ १७३९ की वैशाख बदी १४, बुधवार को संभवत: कड़ा में रहते समय ही, इनका देहांत हो गया। इनके अनंतर इनकी गद्दी पर इनके भतीजे रामसनेही बैठे और उनके पीछे क्रमश: कृष्णसनेही, ठाकुरदास, गोपालदास, कुंजबिहारीदास, एक दूसरे के उत्तराधिकारी होते आए जिसके पश्चात् यह परंपरा आगे नहीं बढ़ सकी।

संत मलूकदास की रचनाओं की संख्या २१ तक बतलाई जाती है और उनमें से 'अलखबानी', 'गुरुप्रताप', 'ज्ञानबोध', 'पुरुषविलास', 'भगत बच्छावली', 'भगत विरुदावली', 'रतनखान', 'रामावतार लीला', 'साखी, 'सुखसागर' तथा 'दसरत्न' विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं। इनमें से कुछ का सीधा संबंध संतमत के साथ समझा जाता है और अन्य के लिए कहा जाता है कि उनका मुख्य विषस सगुण भक्ति है। इनकी कतिपय चुनी हुई रचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि इन्हें परमात्मा के अस्तित्व में प्रबल आस्था थी और ये न केवल उसके सतत नाम स्मरण को विशेष महत्व देते थे, अपितु अपने भीतर उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते भी जान पड़ते थे। किसी विषम स्थिति के आ पड़ने पर ये घबड़ाना नहीं जानते थे, प्रत्युत विश्वकल्याण की दृष्टि से ये सारा दु:ख अपने ऊपर ले लेना चाहते थे। अपनी आध्यात्मिक वृत्ति एवं हृदय की विशालता के कारण, ये क्रमश: बहुत विख्यात हो चले और इनके उपदेशों का प्रचार उत्तरप्रदेश के प्रयाग, लखनऊ आदि से लेकर पश्चिम की ओर जयपुर, गुजरात, काबुल आदि तक तथा पूरब और उत्तर की ओर पटना एवं नेपाल तक होता गया और प्रसिद्धि है कि इनकी कोई गद्दी श्रीकाकुलम् (आंध्र प्रदेश) तक में पाई जाती है। परंतु इनके अनुयायियों का सर्वप्रमुख केंद्र कड़ा ही समझा जाता है। [ परशुराम चतुर्वेदी ]