मरुद्गण चारों वेदों में मिलकर मरुद्देवता के मंत्र ४९८ हैं।

मरुत् गणश: रहते हैं अत: इनका वर्णन संघश: ही किया जाता है--

१. मरुतों के गणों के लिये हव्य अर्पण करो (मारुताय शर्धाय हव्या भरध्वम, ऋo ८।२०।९)! २. मरुतों के गणों का वंदन करो (वंदस्व मारुतं गणम्, ऋo १।३८।१)। ३. मरुतों के गणों को नमन करो (मारुतं गणं नमस्य, ऋo ५।५२।१३)। ४. मरुत अपने गणों में शोभते हैं (गणश्रिय: मरुत:, ऋo १।६४।९)। ५. मरुतों का बलवान् गण सरंक्षण करता है। (वृषा गण: अविता ऋo १।८७।४)।

सब मरुत् समान रहते हैं। सब मरुत् देखने में एक जैसे रहते हैं--

ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उभ्दिदो

अमध्यमासो महसा विवावृधु:। (ऋo ५।५९।६)

वे मरुत् श्रेष्ठ नहीं, कनिष्ठ नहीं और मध्यम भी नहीं होते। वे सब एक जैसे होते हैं और वे अपनी महती शक्ति से बढ़ते रहते हैं।

उन मरुतों के सिर पर हिरणमय शिस्त्रारण होता है। (ऋo ५।५४।७७)।

समान गणवेश

सब मरुतों का गणवेश समान रहता है।

१. इनके गणवेश समान रीति से शोभते हैं। २. इनकी छाती पर पदक और गले में मालाएँ चमकती हैं। ३. इनके पाँवों में भूषण और छाती पर पदक आभूषण से दीखते हैं--(ऋo ५।५४।११)।

सब मरुतों के शस्त्रास्त्र समान रहते हैं।

कंधों पर भाले और हाथों में अग्नि के समान तेजस्वी शस्त्र रहते हैं। अपने हाथों में वे कुठार और धनुष रखते हैं। हाथों में चाबुक धारण करते हैं।

मरुतों के रथ

१. मरुत् अपने रथों में घोड़े जोतते हैं। २. रथों में धब्बोंवाली हिरनियाँ जोतते हैं। ३. उनके रथ को हिरन खींचता है (ऋo २।३४, ८।७, १।३९)।

मरुतों का रथ बिना घोड़ों के भी चलनेवाला था। किसी पशु पक्षी के जोतने के बिना वह चलता था।

हे मरुतो! तुम्हारा रथ (अन्:-एन:) निर्दोष है, (अन्-अश्व:) इसमें घोड़े नहीं जोते जाते, तथापि वह (अजति) चलता है। वह रथ (अ-रथी:) रथी बिना भी चलता है। (अन्-अवस:) रक्षक की जिसको जरूरत नहीं है, (अन् अभीशु:) लगाम भी नहीं है, ऐसा तुम्हारा रथ (रजस्तू:) धूलि उड़ाता हुआ (रोदसी पथ्या) आकाश मार्ग से (साधन् याति) अपना अभीष्ट सिद्ध करता हुआ जाता है।'आशय यह कि मरुतों के चार प्रकार के रथ थे--(१) अश्व रथ, (२) हरिणियों से चलनेवाला रथ, (३) अनश्व रथ अर्थात् घोड़े के बिना वेग से चलनेवाला रथ, (४) आसमान में (रोदसी) उड़नेवाला रथ अर्थात् वायुयान (ऋo ६।६६।७)

शत्रु पर आक्रमण

मरुत् देवों के सैनिक थे अत: उनके लिये शत्रु पर हमला करना आवश्यक होता था।

मरुत् मनुष्य थे इस विषय में वेद के वचन देखिए।

मरुतों के गुण।

मरुत् ज्ञानी है (प्रचेतस: मरुत:)। वे दूरदर्शी हैं ('दूरे दृश:')। वे कवि है--(कवय: मरुत:)। मरुत अत्यंत कुशल, उत्तम सैनिक हैं। मरुत् उग्र है (उग्रा: मरुत:)। शत्रु को जड़ मूल से उखाड़कर फेंकनेवाले मरुत् है (सुमाया मरुत:)।

स्थिर शत्रु को भी अपनी शक्ति से ये मरुत् स्थानभ्रष्ट करते हैं। (ऋदृ १।८५।४)।

एक पंक्ति में सात--मरुत् अपनी पंक्ति में ही रहते थे। यह इनकी पंक्ति सात की होती थी। ऐसी सात पंक्तियों का एक गण होता था। अत: कहा है--

१. गणशो हि मरुत:। (तांड्य ब्राo १९।१४।२)

२. मरुतो गणानां पतय: (तैoo ३।११।४।२)

३. सप्त गणा वै मरुत:। (तैo ब्राo १।६।२।३)

मरुतो का संघ होता है, अर्थात् मरुत् गणश: रहते हैं। मरुतों का गण सात सात का होता है। इस कारण उनको 'सप्ती' कहते हैं :

पार्श्व रक्षक मरुतो का एक गण पार्श्वरक्षक

सात सात सैनिकों की सात पंक्तियों में ये ४९ रहते हैं। और प्रत्येक पंक्ति के दोनों ओर एक एक पार्श्व रक्षक रहता है। अर्थात् ये रक्षक १४ होते हैं। इस तरह सब मिलकर ४९ + १४ = ६३ सैनिकों का एक गण होता है। 'गण' का अर्थ 'गिने हुए सैनिकों का संघ' है। इन मरुतों के संघ इस तरह ६३ सैनिकों के होते थे।

मरुतों के विमान

मरुतों के विमान भी होते थे, जैसा ऊपर कह चुक हैं।

हे मरुतो! तुम अंतरिक्ष से हमारे पास आओ। (ऋo ५।५३।८) अंतरिक्ष से संचार करनेवाले आकाशयान उनके पास थे।

मरुतों का स्तोता अमर होता है।

ये मरुत मानव थे।

आप मनुष्य हैं पर आपकी स्तुति करनेवाला अमर होता है। आप रुद्र के मनुष्य रूपी पुत्र हैं। (ऋo १।३८।४, १।६४।२)।

इस तरह वेद में मरुतों का वर्णन 'सैनिकीय गण' के रूप में किया गया है। वह देखने योग्य और राष्ट्रीय दृष्टि से विचार करने योग्य है।