मरियम मकानी मुगलकाल में काफी मात्रा में स्त्रियाँ इतिहास के पन्नों पर दृष्टिगोचर होती हैं। मध्य एशिया की परंपराओं का पालन करते हुए मुगल शासकों ने अपनी स्त्रियों को काफी स्वतंत्रता दी थी और उनके साथ मिलते जुलते थे। वैसे तो महल की सभी बेगमों और शाहजादियों का आदर एवं सत्कार होता था परंतु उनमें से कुछ का सम्मान विशेष रूप से था। उन्हीं में से मरियम मकानी भी थीं जिनका वास्तविक नाम हमीदा बानू बेगम था। मरियम मकानी की पदवी उनके प्रति आदर की भावना प्रदर्शित करती है।

हमीदा बानू बेगम का विवाह हुमायूँ बादशाह के साथ सन् १५४१ ईo में हुआ था। स्वभाव से वह बहुत ही दृढ़ संकल्पवाली तथा स्वाभिमानी प्रतीत होती है। विवाह के पश्चात् उन्होंने अपने प्रभाव से बादशाह के हृदय को जीता। बेगम शिया थीं। अपनी बुद्धिमत्ता एवं सुव्यवहार के कारण उन्होंने फारस के शाह और उनकी बहन को भी प्रभावित किया जिसके फलस्वरूप उन्होंने बादशाह हूमायूँ की सहायता की। मरियम मकानी वीर एवं साहसी थीं। वह ऊँट, धोड़े इत्यादि पर भली भाँति सवार हो सकती थीं।

मरियम मकानी को शासनप्रबंध में भी दिलचस्पी थी। जब १५४५ में कांधार विजय के बाद हुमायूँ काबुल की ओर रवाना हुआ। तो हमीदा बानू वहाँ बादशाह के प्रतिनिधि के रूप में सुरक्षा एवं देखभाल के लिये रह गई।

मरियम मकानी के जीवन का अधिकतर भाग उनके पुत्र अकबर के काल में व्यतीत हुआ। उनका प्रभाव पुत्र पर पड़ना स्वाभाविक ही था। कहा जाता है, अकबर का शिया धर्म के प्रति झुकाव बेगम के प्रभाव के ही कारण कुछ अंश में था। अकबर भी अपनी माँ का बहुत आदर एवं सत्कार करते थे और सदैव उनका स्वागत करने राजधानी से बाहर जाते थे। शाहजादे शाहजादियों के विवाह के उत्सव भी उन्हीं के महल में मनाए जाते थे।

१५९९ ईo में जब अकबर दक्षिण की ओर जा रहे थे तो सलीम को अत्यधिक मद्यपान के कारण बादशाह के सम्मुख जाने की आज्ञा न दी गई। परंतु मरियम मकानी की प्रार्थना से उसे कोरनिश करने की आज्ञा मिल गई। जब सलीम ने १६०१ में अपने पिता के विरुद्ध गद्दी प्राप्त करने के लिये विद्रोह कर दिया तो किसी का भी साहस शाहजादे के लिये क्षमा माँगने का न हुआ। अंत में मरियम मकानी तथा गुलबदन बेगम ने उसकी ओर से क्षमा माँगी और उन्हीं के प्रयत्न द्वारा बादशाह ने उसे क्षमा किया।

बादशाह जहाँगीर की आत्मकथा से ज्ञात होता है कि मरियम मकानी ने कई उद्यान भी लगवाए थे। बेगम को फरमान जारी करने का विशेष अधिकार भी प्राप्त था। उनके कुछ फरमान भी प्राप्त हैं जो उनके प्रभाव एवं महत्व को प्रदर्शित करते हैं। १६०४ में उनका देहांत हुआ। [ रेखा मिश्र]