मयूर भट्ट किंवदंती के अनुसार मयूर भट्ट महाकवि बाण के श्वसुर या साले कहते जाते हैं। कहते हैं--एक समय बाण की पत्नी ने मान किया और सारी रात मान किए रही। प्रभात होने को हुआ, चंद्रमा का तेज विशीर्ण होने लगा, दीप की लौ हिलने लगी, किंतु मान न टूटा। अधीर हो बाण न एक श्लोक बनाया और सविनय निवेदन किया। श्लोक के तीन चरण इस प्रकार थे।
गतप्राया रात्रि: कृशतनु शशी शीर्यत इवप्रदीपोऽयं निद्रा वशमुपगतो घूर्णन इव।प्रणामांतो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुधमहो,
इतने में वहाँ कवि मयूर भट्ट आ गए थे। उन्होंने इन तीन चरणों को सुना। कवि काव्यानंद में डूब गया। संबंध की मर्यादा भूल गया, और जब तक बाण चौथा चरण सोचते स्वयं परोक्ष से ही बोल उठा--
'कुंचप्रत्यासत्त्या हृदयमपि ते चंडि कठिनतम्''।।
पंक्ति की चोट से बाण और उनकी पत्नी दोनों घायल हो उठे। विशेषत: उनकी पत्नी को अपने रहस्य में इस प्रकार अनधिकार हस्तक्षेप करनेवाले मर्यादाविहीन संबंधी पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने उसे कुष्टी होने का शाप दे दिया। दु:खी कवि मयूर ने भगवान् सूर्य की स्तुति में एक अतिशय प्रौढ़ एवं ललित श्लोकशतक की रचना की, जिसे 'सूर्यशतक' कहते हैं, और उस पापरोग से मुक्ति पाई१ इस रोगमुक्तिवाली घटना की ओर कुछ इस प्रकार संकेत आचार्य मम्मट ने काव्यप्रयोजन बताते हुए अपने काव्यप्रकाश में किया है--'आदित्यादेर्मयूरादीनामिवानर्थ निवारणम्' (प्रथम उल्लास)। कहते हैं, क्रुद्धश् हो मयूर ने भी बाण को प्रतिशाप दिया, जिससे मुक्ति के लिये बाण ने भगवती दुर्गा की स्तुति में 'चंडीशतक' की रचना की। कन्नौज के महाराज हर्षवर्धन की सभा में जिस प्रकार बाण की प्रतिष्ठा थी, उसी प्रकार मयूर की भी, जैसा राजशेखर की इस उक्ति से प्रमाणित होता है--
'अहो प्रभावो वाग्देव्या: यन्मातंगदिवाकरा:।श्रीहर्षस्याभवन् सभ्या: समा: बाणमयूरयो:।।(शार्ड्गधरपद्धति में उद्धृत)।
अत: मयूर का भी समय ईसा की सप्तम शताब्दी के मध्य के आस पास माना जा सकता। मयूर भी काशी के पूर्ववर्ती प्रदेश के रहनेवाले थे। आज भी गोरखपुर जिले के कुछ प्रतिष्ठित ब्राह्मण अपने को मयूर भट्ट का वंशज बताते हैं।
मयूर भट्ट की एक शृंगारस विषयक रचना 'मयूराष्टक' नाम से बताई जाती है, जिसमें प्रिय के पास से लौटी प्रेयसी का वर्णन किया गया है। किंतु इसकी प्रामाणिकता में संदेह है। इनकी सुप्रसिद्ध रचना 'सूर्यशतक' है। संस्कृत के सबसे बड़े छंद स्रग्धरा में, लंबे समस्त पदों की गौडी रीति में श्लेष एवं अनुप्रास अलंकार से सुसज्जित अतिशय प्रौढ़ भाषा में पूर्ण वैदग्ध्य के साथ रचे गए इन सौ श्लोकों ने ही काव्यजगत् में मयूर की कवित्वशक्ति की ऐसी धाक जमा दी कि वे कविताकामिनी के कर्णपूर बन गए--'कर्णपूरा मयूरक'। इस 'शतक' में कवि का संरभ देवविषयक भक्ति से अधिक अलंकारादि योजना के प्रति समझ पड़ता है। प्राय: प्रत्येक श्लोक के अंत में आशीर्वाद सा दिया गया है। सूर्य के रथ, घोड़े, बिंब आदि के प्रति बड़ी अनूठी कल्पनाएँ की गई हैं। प्रतिभा के साथ कवि की व्युत्पत्ति (पांडित्य) ने इस शतक का महत्व बढ़ा दिया है। व्याकरण, कोश तथा अलंकार के विद्वानों में इस ग्रंथ की बड़ी प्रतिष्ठा रही है, जो उनमें इसके उद्धरणों से प्रमाणित होता है। अतएव इसपर टीकाएँ भी विशेष संख्या में मिलती है।
[ चंडिकाप्रसाद शुक्ल]