मनुस्मृति भारतीय पंरपरा में मनुस्मृति को (जो मानव-धर्म-शास्त्र, मनुसंहिता आदि नामों से प्रसिद्ध है) प्राचीनतम स्मृति एवं प्रमाणभूत शास्त्र के रूप में मान्यता प्राप्त है। धर्मशास्त्रीय ग्रंथकारों के अतिरिक्त शंकराचार्य, शबरस्वामी जैसे दार्शनिक भी प्रमाणरूपेण इस ग्रंथ को उद््ध्रता करते हैं। परंपरानुसार यह स्मृति स्वायंभुव मनु द्वारा रचित है, वैवस्वत मनु या प्राचनेस मनु द्वारा नहीं। मनुस्मृति से यह भी पता चलता है कि स्वायंभुव मनु के मूलशास्त्र का आश्रय कर भृगु ने उस स्मृति का उपवृंहण किया था, जो प्रचलित मनुस्मृति के नाम से प्रसिद्ध है। इस भार्गवीया मनुस्मृति की तरह नारदीया मनुस्मृति भी प्रचलित है।
मनुस्मृति के काल एवं प्रणेता के विषय में नवीन अनुसंधानकारी विद्वानों ने पर्याप्त विचार किया है। किसी का मत है कि 'मानव' चरण (वैदिक शाखा) में प्रोक्त होने के कारण इस स्मृति का नाम मनुस्मृति पड़ा। कोई कहते हैं कि मनुस्मृति से पहले कोई मानव धर्मसूत्र था (जैसे मानव गृह्यसूत्र आदि हैं) जिसका आश्रय लेकर किसी ने एक मूल मनुस्मृति बनाई थी जो बाद में उपबृंहित होकर वर्तमान रूप में प्रचलित हो गई। मनुस्मृति के अनेक मत या वाक्य जो निरुक्त, महाभारतादि प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलते हैं, उनके हेतु पर विचार करने पर भी कई उत्तर प्रतिभासित होते हैं। इस प्रकार के अनेक तथ्यों का बूहलर (Buhler, G.) (सैक्रेड बुक्स ऑव ईस्ट सीरीज, संख्या २५), मo मo काणे (हिस्ट्री ऑव धर्मणात्र में मनुप्रकरण) आदि विद्वानों ने पर्याप्त विवेचन किया है। यह अनुमान बहुत कुछ संगत प्रतीत होता है कि मनु के नाम से धर्मशास्त्रीय विषय परक वाक्य समाज में प्रचलित थे, जिनका निर्देश महाभारतादि में है तथा जिन वचनों का आश्रय लेकर वर्तमान मनुसंहिता बनाई गई, साथ ही प्रसिद्धि के लिये भृगु नामक प्राचीन ऋषि का नाम उसके साथ जोड़ दिया गया। मनु से पहले भी धर्मशास्त्रकार थे, यह मनु के 'एके' आदि शब्दों से ही ज्ञात हुआ है। कौटिल्य ने 'मानवा: (मनुमतानुयायियों) का उल्लेख किया है।
मनु परंपरा की प्राचीनता होने पर भी वर्तमान मनुस्मृति ईo पूo चतुर्थ शताब्दी से प्राचीन नहीं हो सकती (यह बात दूसरी है कि इसमें प्राचीनतर काल के अनेक वचन संगृहीत हुए हैं) यह बात यवन, शक, कांबोज, चीन आदि जातियों के निर्देश से ज्ञात होती है। यह भी निश्चित हे कि स्मृति का वर्तमान रूप द्वितीय शती ईo तक दृढ़ हो गया था और इस काल के बाद इसमें कोई संस्कार नहीं किया गया। मनु के कुछ प्रयोग प्राक्पाणिनीय है; उत्तरोत्तर इसके प्राचीन पाठ पाणिनीयव्याकरणानुसार संस्कृत हुए हैं--ऐसा मानने के लिये प्रमाण हैं।
मनु के १२ अध्यायों में कुछ कम २७०० श्लोक हैं। अध्यायानुसार इसके विषय ये हैं--(१) जगत् की उत्पत्ति; (२) संस्कारविधि; व्रतचर्या, उपचार; (३) स्नान, दाराघिगमन, विवाहलक्षण, महायज्ञ, श्राद्धकल्प; (४) वृत्तिलक्षण, स्नातक व्रत; (५) भक्ष्याभक्ष्य, शौच, अशुद्धि, स्त्रीधर्म; (६) वानप्रस्थ, मोक्ष, संन्यास; (७) राजधर्म; (८) कार्यविनिर्णय, साक्षिप्रश्नविधान; (९) स्त्रीपुंसधर्म, विभाग धर्म, धूत, कंटकशोधन, वैश्यशूद्रोपचार; (१०) संकीर्णजाति, आपद्धर्म; (११) प्रायश्चित्त; (१२) संसारगति, कर्म, कर्मगुणदोष, देशजाति, कुलधर्म, निश्रेयस।
मनु पर कई व्याख्याएँ प्रचलित हैं--(१) पेधातिथिकृत भाष्य; (२) कुल्लूककृत मन्वर्थ मुक्ताव ली टीका; (३) नारायणकृत मन्वर्थ विवृत्ति टीका; (४) राघवानंद कृत मन्वर्थ चंद्रिका टीका; (५) नंदनकृत नंदिनी टीका; (६) गोविंदराज कृत मन्वाशयानसारिणी टीका आदि। मनु के अनेक टीकाकारों के नाम ज्ञात हैं, जिनकी टीकाएँ अब लुप्त हो गई हैं, यथा--असहाय, भर्तृयज्ञ, यज्वा, उपाध्याय ऋजु, विष्णुस्वामी, उदयकर, भारुचि या भागुरि, भोजदेव धरणीधर आदि। [ रामशंकर भट्टाचार्य]