मध्वाचार्य इनको पूर्णप्रज्ञ और आनंदतीर्थ भी कहते हैं। इनका जन्म दक्षिण कन्नड जिले के उड़पि नामक स्थान के पास एक गाँव में सन् ११९९ ईo में हुआ। अल्पावस्था में ही ये वेद और वेदांगों के अच्छे ज्ञाता हो गए और इन्होंने संन्यास ले लिया। पूजा, ध्यान, अध्ययन और शास्त्रचर्चा में इन्होंने संन्यास ले लिया। शांकर मत के अनुयायी अच्युतप्रेक्ष नामक एक आचार्य से इन्होंने विद्या ग्रहण की और गुरु के साथ शास्त्रार्थ करके इन्होंने अपना एक अलग मत बना लिय जिसको 'द्वैत दर्शन' कहते हैं। इनके अनुसार विष्णु ही परमात्मा हैं। रामानुज की तरह इन्होंने श्री विष्णु के आयुधों, शंख चक्र, गदा और पद्म से अपने अंगों को अंलकृत करने की प्रथा का समर्थन किया। देश के विभिन्न भागों में इन्होंने अपने अनुयायी बनाए। उडुपि में कृष्ण के मंदिर का स्थापन किया, जो उनके सारे अनुयायियों के लिये तीर्थस्थान बन गया। यज्ञों में पशुबलि बंद कराने का सामाजिक सुधार इन्हीं की देन है। ७९ वर्ष की अवस्था में इनका देहावसान हो गया। नारायणाचार्य कृत मध्वविजय और मणिमंजरी नामक ग्रंथों में मध्वाचार्य की जीवनी ओर कार्यों का पारंपरिक वर्णन मिलता है। परंतु ये ग्रंथ आचार्य के प्रति लेखक के श्रद्धालु होने के कारण अतिरंजना, चमत्कार और अविश्वसनीय घटनाओं से पूर्ण हैं। अत: इनके आधार पर कोई यथातथ्य विवरण मध्वाचार्य के जीवन के संबंध में नहीं उपस्थित किया जा सकता।
मध्वाचार्य ने द्वैत दर्शन के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा और अपने वेदांत के व्याख्यान की तार्किक पुष्टि के लिये एक स्वतंत्र ग्रंथ अनुव्याख्यान भी लिखा। भगवतद्गीता और उपनिषदों पर टीकाएँ, महाभारत के तात्पर्यश् की व्याख्या करनेवाला ग्रंथ भारततात्पर्यनिर्णय तथा श्रीमद्भागवतपुराण पर टीका ये इनके अन्य ग्रंथ है : ऋग्वेद के पहले चालीस सूक्तों पर भी एक टीका लिखी और अनेक स्वतंत्र प्रकरणों में अपने मत का प्रतिपादन किया। ऐसा लगता है कि ये अपने मत के समर्थन के लिये प्रस्थानत्रयी की अपेक्षा पुराणों पर अधिक निर्भर हैं।
मध्व के दार्शनिक सिद्धांतों के लिये देखिए--'द्वैत'।
[रामचंद्र पांडेय]