मधुमेह (Diabetes) यह रोग है जिसमें मूत्र का विसर्जन अत्यधिक होता है और मूत्रत्याग करने की इच्छा सदा बनी रहती है। यह निम्नलिखित दो प्रकार को होता है :
१. डायबिटीज मेलाइटस (Diabetes Mellitus),
२. डायबिटीज इंसिपिडस (Diabetes Insipidus)।
१. डायबिटीज़ मेलाइटस--यह विकार मुख्यत: अग्न्याशय (pancreas) के आंत्रिक स्राव, इंसुलिन, के अभाव में उत्पन्न होता है। इंसुलिन, के द्वारा साधारणत: रक्त शर्करा की अत्यधिक मात्रा गलाइकोजेन (glycogen) के रूप में परिणत होकर, यकृत में संचित होती है तथा आवश्यकता पड़ने पर इंसुलिन की ही सहायता से यकृत में संचित ग्लाकोजेन पुन: ग्लूकोस के रूप में परिणत हो जाता है। परंतु डायबिटीज़ मेलाइटस में इंसुलिन के अभाव में परिवर्तन की वह क्रिया नहीं हो पाती। इसके फलस्वरूप शर्करा प्रत्यक्ष रूप से वृक्क से मूत्र द्वारा निरंतर निकलती रहती है।
यद्यपि यह रोग सभी अवस्था के व्यक्तियों में देखा जाता है, तथापि ४० वर्ष के ऊपर के ८० प्रति शत व्यक्तियों में होता है। स्थूलकाय तथा अत्यधिक वसा का सेवन एवं परिश्रम कम करनेवाले व्यक्तियों को यह रोग अत्यधिक होता है।
इसके मुख्य लक्षण ये हैं : रोगी को अत्यधिक भूख और प्यास लगती है, मूत्र की मात्रा तथा संख्या बढ़ जाती है। रोगी का शरीर क्रमश: कृश होता जाता है, दुर्बलता अत्यधिक बढ़ जाती है तथा शरीर का भार गिर जाता है। त्वचा शुष्क हो जाती है, हाथ पैरों में दर्द होता है तथा कोष्ठबद्धता होती है। इस रोग के उपद्रव स्वरूप फोड़ा, जहरबाद तथा गैंग्रीन की अधिक संभवना होती है। इस रोग के कारण शरीर की अन्य रोगों के प्रतिरोध की क्षमता कम हो जाती है, जिसके फलस्वरूप अनेक घातक रोग, जैसे राजयक्ष्मा, हृदयविकार, नाड़ीगत विकार इत्यादि घातक रूपों में प्रकट होते हैं।
ऐसे रोगियों की मूत्रपरीक्षा में कई प्रति शत शर्करा मिलती है तथा रक्तपरीक्षा में भी प्राकृतिक रक्त शर्करा, अर्थात् १२० मिलिग्राम प्रति १०० सीo सीo से अधिक, मिलती है। यह परीक्षा सर्वदा प्रात: काल, जब रोगी खाली पेट रहता है, कराते हैं।
कभी कभी इस रोग में रक्तशर्करा इतनी अधिक हो जाती है कि रोगी बेहोश हो सकता है। इस अवस्था को मधुमेह कोमा (Diabetic Coma) कहते हैं।
उपचार--प्रारंभ में मूत्र शर्करा की प्रति शत मात्रा के कम होने पर आहारनियंत्रण से ही पर्याप्त लाभ होता है। रोगी को कार्बोहाइड्रेट युक्त भोज्य पदार्थ, जैसे चीनी, चावल, आलू, मक्का, चुकंदर इत्यादि का सेवन निषिद्ध है। इनके स्थान पर चने की रोटी, दाल तिक्त पदार्थ, जैसे करेला, नीम का फूल और साथ में गूलर, अंजीर इत्यादि का सेवन कराते हैं।
किसी योग्य चिकित्सक से मूत्र शर्करा की प्रति शत मात्रा के अनुसार इंसुलिन की मात्रा निर्धारित कराकर सुई देते हैं तथा गोलियों के रूप में उपलब्ध अनेक औषधियों का मुख द्वारा सेवन कराते हैं।
२. डायबिटीज इंसिपिडस--यह एक दूसरे प्रकार का डायबिटीज रोग हे, जिसमें बिना शर्करा के निकले ही अत्यधिक मात्रा में अनेक बार मूत्र होता है।
यह रोग मुख्यत: पीयूष ग्रंथि की पश्च पालि (posterior lobe of pituitary gland) के विकार के कारण होता है, जिसके फलस्वरूप पीयूष हार्मोन (pituitary hormone) का अभाव हो जाता है तथा इस रोग की उत्पत्ति होती है।
यह रोग १० से ४० वर्ष की अवस्था के बीच के व्यक्तियों में पुरुषों को अधिक हुआ करता है।
इसमें रोगी को अत्यधिक प्यास लगती है तथा वह बार बार मूत्र त्याग करने जाता है। रोगी को कोष्ठबद्धता रहती है तथा उसका मुख सूखा रहता है। अनेक बार पेशाब लगने के कारण रोगी को अच्छी नींद नहीं आती। ऐसे रोगियों की परीक्षा करने पर उनकी त्वचा सूखी तथा शरीर कृश दिखाई देती है। इसके मुख्य उपद्रवों में टीo बीo और कोमा प्रधान हैं।
उपचार--इसके उपचार में जल का पर्याप्त सेवन कराते हैं, परंतु नमक वाले आहार पदार्थों का सेवन कम कराते हैं। पिट्यूइट्रिन (pituitrin) की सुई देने से उसकी कमी पूरी हो जाती है, जिससे रोगी अच्छा होता है। [प्रियकुमार चौबे ]