मजदूरी उत्पादन का जीवंत एवं मूल साधन श्रम है। श्रम के प्रतिपादन में प्राप्त मूल्य को मजदूरी कहते हैं। अर्थशास्त्र की दृष्टि में राष्ट्रीय आय का वह अंश जो श्रम के बदले में श्रमिक को प्राप्त होता है, मजदूरी है। अर्थशास्त्र की दृष्टि में मजदूरी और वेतन में कोई भी भेद नहीं है जबकि सामान्य व्यवहार में दोनों शब्दों में अंतर माना जाता है। जीविका के लिये जो भी शारीरिक और मानसिक प्रयत्न किया जाता है उसके प्रतिदान अथवा मूल्य के रूप में प्राप्त धन ही अर्थशास्त्र में मजदूरी है। स्वतंत्र रूप से कार्य करनेवालों की भी आय, चाहे वे डाक्टर, वैद्य, वकील, चित्रकार कोई भी क्यों न हों, मजदूरी ही है। मजदूरी कई प्रकार से दी जाती है। मूलत: समय के अनुसार और कार्य के अनुसार मजदूरी स्थिर की जाती है। समय के अनुसार प्रति घंटा, प्रति दिन, या साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक और वार्षिक के हिसाब से तथा काम के अनुसार काम और उत्पादन की मात्रा पर मजदूरी का निर्धारण होता है।

मजदूरी नगद और वास्तविक दो रूपों में भी वर्गीकृत है। श्रम का मौद्रिक पुरस्कार नगद मजदूरी है और सेवा के बदले प्राप्त प्रतिदान से श्रमिक जो वस्तुएँ, सेवाएँ या अन्य सुविधाएँ और उन्नति के अवसर आदि प्राप्त कर सकता है वे सब मिलकर वास्तविक मजदूरी है। मुद्रा श्रमिक को इसलिये स्वीकार्य होती है कि उससे वह अपनी रुचि की वस्तुएँ क्रय कर सकता है। किंतु प्राय: प्रत्येक श्रमिक अपनी सेवाएँ अर्पित करते समय वास्तविक जीवनयापन की आकांक्षाओं को स्थायित्व प्रदान करती है और मौद्रिक या नगद मजदूरी चल विचल होती रहती है, क्योंकि मुद्रा का मूल्य बराबर घटता बढ़ता रहता है।

वास्तविक मजदूरी मुद्रा की क्रयशक्ति, नगद मजदूरी के अतिरिक्त मिलनेवाली अन्य सुविधाएँ, कार्य की प्रकृति, अतिरिक्त आय, व्यावसायिक व्यय, आश्रितों को कार्य मिलने की सुविधा कार्य, कार्य की अवधि, भावी उन्नति की आशा, सामाजिक प्रतिष्ठा, प्रशिक्षण काल और उसपर व्यय तथा काम के घंटे और अवकाश को ध्यान में रखकर निर्धारित होती है।

मजदूरी निर्धारण के अनेक सिद्धांत हैं, जिनमें माँग और पूर्ति का सिद्धांत अर्थशास्त्र का एकमात्र आधुनिक, सहज सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार मजदूरी उत्पादन के एक साधन के रूप में हैं और इसका मूल्य श्रम की सीमांत उत्पादन क्षमता के बराबर है। इस प्रकार मजदूरी की अधिकतम सीमा श्रमिक के श्रम के सीमांत उत्पादन द्वारा निर्धारित होती है और न्यूनतम सीमा श्रमिक के जीवनस्तर के निर्वाहमूल्य के आधार पर। इसमें मजदूरी का निर्धारण इन दो सीमाओं के बीच श्रमिक और उत्पादक की मोल भाव की क्षमता के आधार पर होता है। इन दोनों वर्गों में जो भी अधिक सक्षम होगा वह अपने पक्ष में निर्णय करा लेता है। यद्यपि नश्वरता के करण श्रम मोलभाव की स्थिति में अपर पक्ष की अपेक्षा कम शक्तिशाली होता है तो भी श्रमिक संगठनों एवं श्रम को संरक्षण प्रदान करनेवाले विधि विधानों के करण वह ऐसे मोल भाव में उत्पादक के एकांगी अन्याय से बच जाता है। १९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक मजदूर और उसके आश्रितों के भरण पोषण मात्र के पूर्वार्ध तक एक मजदूर और उसके आश्रितों के भरण पोषण मात्र के सिद्धांत पर मजदूरी का निर्धारण आधारित था। मजदूर को उतनी ही मजदूरी प्राप्त हो सकती थी जितनी उसे आश्रितों सहित जीवित रहने के लिये कम से कम आवश्यक थी। इसमें व्यक्ति का मान एक जड़ वस्तु के रूप में किया जाता था। यह मानवता के ऊपर आश्रित प्रबुद्ध सिद्धांत नहीं था और न वैज्ञानिक ही। केवल मजदूरी सस्ती होने से ही मजदूरों का व्यापक नियोजन निर्भर करता है। मजदूरी के निर्धारण में इस सिद्धांत के प्रतिक्रियास्वरूप रहन सहन के स्तर पर मजदूरी के निर्धारण का सिद्धांत प्रतिष्ठित किया गया। किंतु यह सिद्धांत भी वैज्ञानिक न था, क्योंकि इसमें माँग की अपेक्षा पूर्ति पर ही ध्यान केंद्रित था। रहन सहन के उच्च स्तर के आधार मात्र पर श्रम के मूल्य का निर्धारण कार्यकुशलता या क्षमता की वृद्धि का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि श्रम को मिलनेवाला प्रतिदान उसके द्वारा उत्पादित वस्तु की माँग पर ही मूलत: निर्भर है। पूँजी गँवा कर कोई न्यून उत्पादन का जोखिम नहीं ले सकता। इसकी प्रतिक्रिया के रूप में नये मजदूरी सिद्धांत की अवतारणा हुई जो केवल माँग पर ध्यान देत है और पूर्ति की उपेक्षा करता है। इस सिद्धांत के अनुसार मजदूरी और पूँजी का अनुपात समान रहता है। इससे कहा जाता है कि पूँजी के साथ मजदूरी भी बढ़ेगी और उसी के अनुपात में घटेगी भी; किंतु आधुनिक युग में केवल नगद पूँजी ही पूँजी नहीं। साख भी पूँजी के लिये बहुत बड़ा आधार है। इस सिद्धांत में साख की उपेक्षा है, इसलिये यह संगत नहीं। इसके अतिरिक्त अवशेष दावेदारी का सिद्धांत भी इस क्षेत्र में व्यवहृत हुआ है। इसके अनुसार उत्पादन के अन्य साधनों का मूल्य निर्धारित कर उनसे शेष बचा अंश मजदूरी के रूप में वितरित किया जाता है और उससे ही श्रम का मूल्य निर्धारित होता है। किंतु लगान, ब्याज और लाभ जड़ नहीं, अपितु मजदूरी के साथ ही घटने तथा बढ़नेवाले तत्व हैं। इन प्राचीन सिद्धांतों के विलोम में प्रतिष्ठित माँग और पूर्ति का मजदूरी निर्धारण सिद्धांत आधुनिक माना जाता है।

भिन्न भिन्न व्यवसायों में मजदूरी भिन्न भिन्न होती है। इसके अनेक कारण हैं। भिन्न भिन्न व्यवसायों और अनेक प्रकार की श्रम की उत्पादन क्षमता में अंतर है। साथ ही भिन्न-भिन्न उद्योगों में अधिक या कम कार्यक्षमता की आवश्यकता है। पेशा या वर्ग या जाति या परंपरागत कार्यक्षमता या वर्गीकरण भी इस विभिन्नता का एक कारण है। गतिशीलता तथा श्रमिक वर्गों में स्पर्धा के अभाव के कारण भी मजदूरी में विभिन्नता रहती है। इन सामान्य कारणों के अतिरिक्त भी कुछ विशिष्ट कारण मजदूरी की विभिन्नता के हैं। जैसे व्यवसाय की सामाजिक मर्यादा और अप्रियता, प्रशिक्षण की कठिनाई और व्यय, कार्य का स्थायित्व या सामयिकता, यंत्रों का व्यवहार तथा वैज्ञानिक प्रबंधन, दायित्व तथा विश्वसनीयता, व्यवसाय का भविष्य, कानून तथा अन्य लाभ। जो लोग मर्यादा की दृष्टि से कार्य करते हैं वे कम वतन पर प्राइमरी पाठशाला में अध्यापक होना पसंद करते हैं किंतु अधिक वेतन पर विभाग में चपरासी होना नहीं। जब काम सीखने में व्यय होता है तो ऐसे मजदूरों की मजदूरी सामान्य मजदूरी से अधिक होती है। जहाँ काम मौसमी या अस्थायी होता है वहाँ अधिक मजदूरी तथा जहाँ स्थायी होता है वहाँ कम मजदूरी मिलती है तथा उसके अभाव में कम। उत्तरदायित्व तथा विश्वास का काम सँभालने पर अधिक मजदूरी मिलती है और उसी ढंग के अन्य काम में कम। जहाँ उज्जवल भविष्य की आशा है, वहाँ कम मजदूरी पर भी काम करना श्रमिक पसंद करते हैं। जोखिम वाले कार्यों में अधिक मजदूरी निर्धारित की जाती है। अन्य लाभ की आशा भी कम मजदूरी का कारण होता है। अन्य लाभ की आशा भी कम मजदूरी का कारण होता है। श्रमिक की गतिशीलता का अभाव भी कम मजदूरी का कारण है।

मजदूरी देने के दोनों ढंगों, कालानुसार तथा कार्यानुसार, की अपनी विशेषताएँ हैं। कालानुसार मजदूरी में श्रमिकों की आय की नियमितता श्रमिकों की शारीरिक तथा मानसिक शक्ति की रक्षा होती है। शिल्प और कलात्मक कार्यों के लिये यह पद्धति उत्तम है, क्योंकि अनेक कार्यों को परिमाण या कोटि के द्वारा नापा नहीं जा सकता। इस पद्धति में श्रमिकों को प्रोत्साहन नहीं मिलता और उत्पादन व्यय में वृद्धि होती है। साथ ही कुशल और अकुशल दोनों प्रकार के मजदूरों को समान वेतन मिलता है। कार्यानुसार मजदूरी की प्रथा यद्यपि अधिक न्यायोचित लगती है और इसमें मजदूरों को प्रोत्साहन मिलता है, साथ ही निरीक्षण व्यय में भी कमी होती है, किंतु इस पद्धति से मजदूरों की क्षमता और स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही घटिया माल के उत्पादन में वृद्धि होती है जो अंततोगत्वा व्यवसाय के लिये हानिकर होता है।

श्रमिक संघ मजदूरों को संगठित कर कार्य करने की उचित परिस्थितियों का निर्माण कराते हैं। इन संघों के द्वारा श्रमिकों में एकता की भावना पैदा होती है और मजदूरों के लाभ और सुविधा को बनाए रखने की सुविधा के साथ साथ मनोरंजन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का प्रबंध ये संघ करते हैं जिससे श्रमिक के हितचिंतन के कार्य होते हैं और इनका राजनीतिक उपयोग मजदूरों और मजदूरी के लिये हानिकार प्रमाणित होता है। श्रम संघों तथा सरकार के कारण तथा कानून के कारण समय समय पर मजदूरों को बोनस, बीमा, पेंशन, चिकित्सा आदि की भी सुविधा मिलती है। इनकी भी गणना वास्तविक मजदूरी में की जाती है। [सुधाकर पांडेय]