मकड़ी श्आर्थ्रोपोडा (Arthropoda) संघ, आरेविनडा (Arachnida) वर्ग, एरानीइडा (Araneida) गण का प्राण है। यहश् संसार के सभी भागों में पाई जाती है। माउंट एवरेस्ट पर २२,००० फुट उँचाई पर भी मकड़ी देखी गई है। मकड़ी की लगभग २०,००० स्पीशीज ज्ञात हैं। इसके कई स्पीशीज़ अर्धसमुद्री हैं और एक स्पीशीज़ अलवण जल में रहता है। मकड़ी की लंबाई एक मिमी० से लेकर नौ सेंटीमीटर तक होती है।
मकड़ी के शरीर के दो भाग है: शिरोवक्ष और उदर। इसमें गर्दन के स्थान पर कटि होती है। मकड़ी का उदर अखंड होता है औरश् तंग कटि (waist) द्वारा शिरोवक्ष (cephalothorax) से जुड़ा रहता है। वक्ष में चार जोड़े पैर रहते हैं। पैरों के सिरों पर बालों की गद्दी रहती है, जिसकी सहायता से ये दीवारों पर चिपकी रहती है। शिरोवक्ष के अग्रपृष्ठीय सतह पर आँखें स्थित रहती है। सामान्य मकड़ियों में आठ सरल आँखें होती है। शिरोवक्ष में छह जोड़े उपांग (appendages) होते हैं। पहले जोड़े को कीलिसेरी (chelicerae) कहते हैं। इसमें दो विषग्रंथियाँ रहती हैं। कीलिसेरी के सिरे पर नखर सदृश विषदंत (fang) होता है। दूसर जोड़ा छह जोड़वाला पश्चस्पर्शक (pedipalpi) होता है, जो मादा में पैरों के सदृश होता है, किंतु नर में यह छोटा और अंत में बल्ब की आकृति का होता है। यह आकृति शुक्राणु रखने या इनके स्थानांतरण, के काम आती है।
मुँह जंभिकाओं (maxillae) के मध्य में स्थित है। उदर के अग्र अधर सतह पर जननर्घ्रां (genital opening) तथा बुक लंगों (book lungs) के रेखाछिद्र रहते हैं। गुदा से पहले श्वासरध्रं (spiracle) रहता है, जो छोटी श्वासनलियों (tracheae) मकड़ी का आमाशय चूषण आमाशय (sucking stomach) होता है। मकड़ी शिकार में विष प्रवेश करती है और कुछ मकड़ियाँ एंजाइम प्रवेश करती हैं। इसके बाद वे कुछ समय तक प्रतीक्षा करती हैं, ताकि शरीर का घुल्आंतरिक भाग ाकर द्रव बन जाए। तब वे इस द्रव को चूस लेती हैं।
मकड़ी के अंतरांग
१. विषयग्रंथि, २. चक्षु, ३. आमाशय, ४. हृदय, ५. आस्य (ostium), ६. पाचन ग्रंथि, ७. अंडाशय, ८. अवस्कर (cloaca), ९. तंतु ग्रंथि (spinneret), १०. रेशम ग्रंथि, ११. जनन ग्रंथि का मुख, १२. फुफ्फुस, १३. चलने की टाँगें तथा १४. मस्तिष्क।
से जुड़ा रहता है, उदर के पश्च भाग में तंतुग्रंथियों (spinnerets) के तीन जोड़े होते हैं, जिनसे उदा में स्थित रेशम ग्रंथि (silk gland) का स्राव निकलता है।
मकड़ी का आमाशय चूषण आमाशय (sucking stomach) होता है। मकड़ी शिकार में विष प्रवेश करती है और कुछ मकड़ियाँ एंजाइम प्रवेश करती हैं। इसके बाद वे कुछ समय तक प्रतीक्षा करती हैं, ताकि शरीर का आंतरिक भाग घुलकर द्रव बन जाए। तब वे इस द्रव को चूस लेती हैं।
मकड़ी में घ्राण अंग विकसित होते हैं और ये शरीर पर सूक्ष्म लिरिफार्म अंगों (lyriform organ) तथा उपांगों पर पाए जाते हैं। मकड़ी में ध्वनि की अनुक्रिया अनिश्चित है। कुछ मकड़ियों में ध्वनि उत्पन्न करनेवाले निश्चित अंग होते हैं। पश्च स्पर्शकों तथा शरीर के अन्य भागों पर सुग्राही स्पर्श रोम (tactile hairs) होते हैं।
उदर के अधर भाग में जननग्रंथियाँ (gonads) रहती हैं, जो उदर के बाहर अधर सतह में अग्र सिरे की ओर खुलती हैं। नर में दो वृषण तथा मादा में अंडाशय रहते हैं। रूपांतरित स्पर्शी द्वारा नर के शुक्राणु मादा में स्थानांतरित किए जाते हैं। संसेचन आंतरिक होता है। अंड रेशम के कोकून में दिए जाते हैं और कुछ स्पीशीज़ में मादा कोकून को उस समय तक ढोती हैं, जब तक बच्चा अंडा फोड़कर बाहर नहीं आ जाता है। लाइकोसा (lycosa) स्पीशीज़ की मादा अपने बच्चों को कुछ दिन तक अपने उदर पर ढोती है। नर मकड़ी को वयस्क होने में पाँच माह लगते हैं। और मादा को वयस्क होने में सात से आठ सप्ताह तक लगते हैं।
मकड़ी का अनुरंजन बड़ा कलापूर्ण होता है। अनुरंजन के अंतर्गत नर, दिखाई पड़नेवाली मादा के संमुख अपनी सज्जा का प्रदर्शन करता है, या एक प्रकार का नाच दिखाता है जिसमें यह पैरों तथा स्पर्शकों को हिलाता है, या जाल को विशेष प्रकार से बजाता है। अनुरंजन के बाद मादा नर को प्राय: खा जाती है पर यह निश्चित नहीं है कि खा ही जाए। अनुरंजन के समय नर अपेक्षया सुरक्षित रहता है और अनुरंजन के बाद उसके पास भागने का अवसर रहता है। संगम ऋतु के पिछले काल में नर के भागने का अवसर कम होता जाता है, क्योंकि मादा अधिक भूखी रहती है तथा नर निष्क्रिय होता जाता है।
मकड़ी की मुख्य विशेषता रेशम का उपयोग है, जो आमाश्य की रेशम ग्रंथियों से श्यान द्रव के रूप में स्रवित होता है और शरीर के अंत में स्थित तंतुग्रंथियों (spinneerets) के समूह द्वारा बनाया जाता है। इस रेशम से जाल के बारीक तंतु बनते हैं, जिनपर नवजात मकड़ी प्रवास करती है। मकड़ी की घूमनेवाली जातियाँ जालों को अपने पीछे छोड़ जाती हैं। सुस्त स्पीशीज़ की मकड़ियाँ रेशम के घर में, या रेशम के अस्तरवाले गर्त में, रहती हैं। निर्मोचन तथा शीतनिष्क्रिया काल भी रेशम के कोष्ठों में ही पूर्ण होता है।
कई कुलों की मकड़ियाँ जाल नहीं बुनतीं। मकड़ी के बहुत अधिक स्पीशीज़ घुमक्कड़ हैं। दिन में ये मार्ग में पड़नेवाले किसी भी स्थान पर छिप जाते हैं और रात्रि में घूमते हैं। कर्कट मकड़ी (crabe spider) गिरी हुई पत्तियों तथा फूलों की पंखुड़ियों में छिपती है और अपने शिकार पर बगल से झपटती है। मकड़ी के कुछ स्पीशीज़ जिन फूलों तथा स्थलों में छिपते हैं, उनके रंग के अनुसार अपना रंग बदल सकते हैं। कुछ मकड़ियों में अनुहरण (mimicry) भी पाया जाता है। कुछ स्पीशीज़ ऐसे हैं, जो घोंघों, चीटियों तथा भृंगों (beetles) से मिलते जुलते हैं।
मकड़ी की एक यह भी विशेषता है कि यह लगभग ३० महीने तक निराहार रह सकती है। इस काल में यह अपने शरीर में संचित खाद्य पर निर्भर करती है।
[ अजितनारायण मेहरोत्रा ]