मंडन मिश्र येश् भर्तृहरि के बाद कुमारिल के अंतिम समय में तथा शंकराचार्य (दे० शंकराचार्य) के समकालीन थे।
ये पूर्व मीमांसा दर्शन के बड़े प्रसिद्ध आचार्य थे। कुमारिल के बाद इन्हीं को प्रमाण माना जाता है। अद्वैत वेदांत दर्शन में भी इनके मत का आदर है। शालिकनाथ तथा जयंत भट्ट ने वेदांत का खंडन करते समय मंडन का ही उल्लेख किया - शंकराचार्य का नाम। शांकर भाष्य के सुप्रसिद्ध व्याख्याता, भामती के निर्माता वाचस्पति मिश्र ने मंडन की ब्रह्मसिद्धि को ध्यान में रखकर अपनी कृति लिखी। मीमांसा और वेदांत दोनों दर्शनों पर इन्होंने मौलिक ग्रंथ लिखे। मीमांसानुक्रमाणिका, भावनाविवेक और विधिविवेक, ये तीन ग्रंथ मीमांसा पर, शब्द दर्शन पर स्फोटसिद्धि, प्रमाणाशास्त्र पर विवेक तथा अद्वैत वेदांत पर ब्रह्मसिद्धि, ये इनके ग्रंथ हैं।
एक परंपरा के अनुसार मंडन कुमारिल भट्ट के शिष्य थे। यही बाद में शंकराचार्य द्वारा शास्त्रार्थ में पराजित होकर संन्यासी हो गए और उनका नाम सुरेश्वराचार्य पड़ा। मंडन और सुरेश्वर की एकता को लेकर बड़ा विवाद हुआ है। अधिकांश प्रमाण दोनों की भिन्नता के पक्ष में ही मिलते हैं। मंडन ने शब्दाद्वैत (दे० शब्दाद्वैत) का समर्थन किया है, पर सुरेश्वर इसके बारे में मौन हैं। मंडन ने अद्वैतप्रस्थान में अन्यथाख्यातिवाद क बहुत हद तक समर्थन किया, पर सुरेश्वर इसका खंडन करते हैं। मंडनके अनुसार जीव अविद्या का आश्रय है, सुरेश्वर ब्रह्म को ही अविद्या का आश्रय और विष मानते हैं। इसी मतभेद के आधार पर अद्वैत वेदांत के दो प्रस्थान चल पड़े। भामती प्रस्थान मंडन का अनुयायी बना, विवरण प्रस्थान सुरेश्वर के सिद्धांतों पर चला। सुरेश्वर शुद्धज्ञान को मोक्ष का मार्ग मानते हैं पर मंडन के अनुसार वेदांत के श्रवणमात्र से मोक्ष नहीं मिलता, जब तक अग्निहोत्र आदि कर्म ज्ञान के सहकारी न हो यही नहीं, किसी प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथ में मंडन और सुरेश्वर को एक नहीं माना गया है।
सं०ग्रं० - म० म० कुप्पू स्वामी शास्त्री : ब्रह्मसिद्धि के भूमिका [रामचंद्र पांडेय]