भोजप्रबंध संस्कृत लोकसाहित्य का एक अनुपम ग्रंथ है। इसकी रचना गद्यपद्यात्मक है। इसमें महाराज धारेश्वर भोज की राजसभा के कई सुंदर कथानक है। यद्यपि इन कथानकों की ऐतिहासिक प्रामाणिकता पूर्ण रूप से स्वीकृत नहीं की जा सकती, तथापि यह ग्रंथ ११वीं शताब्दी ईसवी में वर्तमान जनजीवन पर प्रकाश डालने में बहुत कुछ समर्थ है। विद्याव्यासंगी स्वयं कविपंडित नरेश के होने पर किस प्रकार राजसभा में आस्थानपंडितों की मंडली तथा आगंतुक कविगण नित्य काव्यशास्त्र के विनोद द्वारा कालक्षेप करते थे, इसकी झाँकी इस ग्रंथ में प्रति पद पर मिलती है। दानवीर महाराज भोज किस प्रकार कवियों का सम्मान करते थे, इसका आदर्श इस ग्रंथ में मिलता है।

उस समय संस्कृत न केवल राजभाषा ही थी अपितु उसे जनभाषा का भी गौरव प्राप्त था। भोजनगरी में ऐसा एक भी गृहस्थ न था जो संस्कृत में कविता रचने में असमर्थ हो। उस समय का भारवाहक भी व्याकरण के अशुद्ध प्रयोग पर आपत्ति उठाने में समर्थ था, कुंभकार तथा रजक, बाल, वृद्ध एवं स्त्रियाँ भी काव्यकला से अनभिज्ञ न थी। भोजप्रबंध में प्रबंध की अवतरणिका के अतिरिक्त ८५ रोचक कथाएँ हैं ओर उन सबमें महाराज भोज से संबंधित किसी न किसी घटना का मनोरम वर्णन है। भोजप्रबंध के पद्य प्राय: सुभाषित हैं, भाषा सरल परंतु काव्यशैली से अनुप्राणित है। काव्यनिर्माण की रीति सर्वत्र वैदर्भी है तथा काव्यप्रबंध प्रसाद गुण से ओतप्रोत है। गद्य प्रायेण चूर्णक के रूप में हैं, छोटे वाक्य हैं, व्याकरण के दुरूह प्रयोगों का सर्वथा अभाव है। दीर्ध समास तो क्वचित् ही दृष्टिगोचर होते हैं। ग्रंथ अलंकार तथा काव्यगत चमत्कार से परिपूर्ण है। इसमें सुंदर उपमाएँ, उत्प्रेक्षा, रूपक, दृष्टांत आदि अलंकारों के मध्य कहीं कहीं अक्लिष्ट श्लेष का प्रयोग अत्यंत हृदयंगम है। उदाहरणार्थ-किसी समय हेमंतकाल में महाराज भोज अँगीठी ताप रहे थे, उनके निकट कवि कालिदास विराजमान थे। कौतुकवश राजा ने कवि से अँगीठी (जिसे संस्कृत में हसंती कहते हैं) का वर्णन करने को कहा। कविवर तुरंत ही एक आर्या प्रस्तुत करते है: कविमतिरिव बहुलोहा सुघरितचक्रा प्रभातवेलेव।

हरमूर्त्तिरिव हसंती भाति विधूमानलोपेता।

पक्के लोहे से बनी हुई यह हसंती बहुल ऊहों से सुशोभित कवि की प्रतिभा के समान है; चक्रवाक पक्षी का प्रिया से मिलन करानेवाली प्रभात वेला की भाँति यह सुंदर चक्राकार से मंडित हैं तथा धूम रहित अग्नि से भरी हुई यह चंद्र, उमा और अग्नि से संयुक्त की भँति सुशोभित है। यह पद्य श्लिष्ट मालोपमा का रमणीय उदाहरण है तथा कविप्रतिभा का भी उज्वल निदर्शन है। ऐसे अनेक प्रसंगों पर कविगण द्वारा प्रस्तुत सुंदर सुभाशित का भोजप्रर्बध एक सुंदर भांडार है।

प्रसिद्ध भोजप्रबंध बल्लाल की कृति है। बल्लाल के संबंध में प्रामाणिक जानकारी नहीं है। इतना ही पता चलता है कि बल्लाल दैवज्ञ अथवा बल्लाल मिश्र नामक एक काशीनिवासी विद्वान् था। उसके पिता का नाम त्रिमल्ल था। भोजप्रबंध के अंत:साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है कि बल्लाल का समय कहीं ई० १६वीं शताब्दी होगा।

भोजप्रबंध के नाम से बल्लाल के अतिरिक्त अन्य कवियों द्वारा प्रणीत कृतियाँ भी हैं। कहा जाता है कि आचार्य मेरुतुंग ने भी एक भोजप्रबंध लिखा था जो आज उपलब्ध नहीं है। इतना अवश्य है कि मेरुतुंग के 'प्रबंध चिंतामणि' में भोज कथाएँ हैं। इसी तरह कवि पद्यगुप्त, वत्सराज, शुभशील एवं राजवल्लभ द्वारा प्रणीत भोजप्रबंध का उल्लेख ऑफ्रेक्ट ने किया है। परंतु ये कृतियाँ अद्यावधि अप्रकाशित हैं। बल्लालकृत भोजप्रबंध के दो पाठ उपलब्ध होते हैं- गौड़ीय पाठ जो कलकत्ता से प्रकाशित है तथा अधिक प्रचलित है, दूसरा दाक्षिणात्य पाठ जिसका प्रचार मद्रास प्रांत में है। भोजप्रबंध पर जीवानंद विद्यासागर कृत सुबोध टीका मिलती है। यह मूल ग्रंथ निर्णयसागर प्रेस, बंबई से भी प्रकाशित हुआ है। भोजप्रबंध का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, अंग्रेजी में इसका अनुवाद लुई ग्रे द्वारा विरचित अमेरिकन ओरिएंटल सोसाइटी (ग्रंथसंख्या ३४) से प्रकाशित हुआ है। कई पाश्चात्य मनीषियों ने भारतीय ऐतिहासिक तत्वों की खोज में भोजप्रबंध का अध्ययन कर तत्संबंधी अपने विचारों का प्रकाशन अनेक लेखों द्वारा किया है।(सुरेंद्रनाथ शास्त्री)