भिखारीदास 'दास' उपनाम और पूरा नाम 'भिखारीदास' का जन्म सं० १७६० वि० वैसाख सुदी तेरस को प्रतापगढ़ के अबिर इलाके के ट्यौंगा (टेउँगा) गाँव में हुआ, जहाँ प्रतिवर्ष अब भी उक्त तिथि को भिखारी मेला लगता है। अनुमान से यह माना गया है कि दास की मृत्यु उनकी अंतिम कृति 'शृंगारनिर्णय' की रचना (सं० १८०७ वि०) के कतिपय वर्षो बाद भभुआ जिला आरा (बिहार) में हुई। आरा में वहाँ इनके नाम का एक मंदिर भी है। ये श्रीवास्तव कायस्थ थे। दास के आश्रयदाता थे स्थानीय अरबर के राजा पृथ्वीसिंह के भाई हिंदूपति सिंह, जिन्होंने दास को सं० १७९१ वि० के पश्चात् अपने यहाँ बुला लिया था और सं० १७८५ वि० से १८०७ तक माना जाता है। प्राकृत, संस्कृत तथा उस समय तक के सभी प्रसिद्ध हिंदी आचार्य कवियों के ग्रंथों का अच्छा अध्ययन किया था।
दास के कुछ निजी साहित्यादर्श थे। उनके अनुसार किसी कवि में तीन बातें होनी चाहिए (१) जन्मजात काव्यप्रतिभा, (२) सुकवियों द्वारा काव्यरीति का ज्ञान और (३) व्यापक लोकव्यवहारानुभव। काव्य में रस एवं ध्वनि की प्रतिष्ठा स्वीकार करते हुए उनका कहना था कि वास्तविक काव्यानंद की अनुभूति का साधन 'कांता सम्मित' कविता है। वे ब्रज भाषा में संस्कृत और फारसी की मिलावट के हिमायती थे पर इन भाषाओं के वे ही शब्द लिए जा सकते थे जो अधिकाधिक लोकप्रचलित और लोकग्राह्य हों। इसीलिये वे तुलसी और गंग को सुकवियों का 'सरदार' (अग्रगण्य, श्रेष्ठ) मानते हैैं क्योंकि उनकी कविताओं में विविध प्रकार की भाषाओं का मेल है। ब्रज भाषा में काव्यरचना के लिये, उनके अनुसार ब्रजवास करना अनिवार्य नहीं था।
दास की प्रामाणिक और उपलब्ध कृतियाँ सात हैं (१) 'रससारांश' (रचना काल सं० १७९१ वि०), (२) 'काव्यनिर्णय' (सं० १८०३ वि०) 'शृंगारनिर्णय' (सं० १८०७ वि०), (४) छंदोर्णव पिंगल (सं० १७९९ वि०), (५) 'अमरकोश' या 'शब्द नाम प्रकाश' (सं० १७६५वि०), (६) विष्णुपुराण भाषा (अनुमान से सं० १७८५-८७ वि० के बीच) और (७) शतरंजशतिका।
१. 'रससारांश' : रस से संबंधित काव्यांगों का अपेक्षत: अपरिपक्व किंतु विशद विवेचन प्रस्तुत करता है। काव्य को इसमें उत्तम, मध्यम और अवरकोटि में विभक्त करने के साथ ही 'देव' की भाँति अनेक जाति की स्त्रियों को आलंबन रूप में वर्णित न कर दूती के रूप में रखा गया है। इसी में परंपराप्राप्त दस हावों के अतिरिक्त दास ने दस हाव और माने हैं। 'रससारांश' का एक संक्षिप्त संस्करण भी ग्रंथीकर्ता ने 'तेरिज रससारांश' प्रस्तुत किया जहाँ 'रससारांश' में लक्षण उदाहरण को मिलाकर कुल ५८६ पद्य है वहाँ 'संक्षिप्त संस्करण' 'तेरिज रससारांश' में केवल लक्षणों के १५८ पद्य ही हैं।
२. 'काव्यनिर्णय' : काव्य-विविधांग-निरूपक ग्रंथ है जो ग्रंथकर्ता केश् सर्वश्रेष्ठ तथा विशिष्ठ कृतित्व, ख्याति का आधार और हिंदी काव्यशास्त्र के उत्कृष्ट ग्रंथों में से एक है। यद्यपि इसके निर्माण में दास ने संस्कृताचार्यों में मम्मट, विश्वनाथ, अप्पय दीक्षित और जयदेव तथा अपने से पूर्ववर्ती हिंदी आचार्य कवियों में केशव, चिंतामणि, सूरति अदि के ग्रंथों से भी सामग्री संकलित की है तथापि विषयविवेचन क्रम वा विषयव्यवस्था सर्वथा नवीन है, ग्रंथ के २५ उल्लास के कुल १२१० पद्यों में काव्यप्रयोजन, काव्यपरिभाषा, भाषा पदार्थनिर्णय, अलंकार, रसांग (स्थायीभाव, विभाव, और अनुभावादि) के साथ रसों, भावोदय, भावशबलता, भावशांति, भावाभास, रसाभास, अपरांग, ध्वनि, गुणीभूतव्यंग्य, गुण, तुक, चित्रालंकार और दोष जैसे काव्यांगों का लक्षण उदाहरणबद्ध विवेचन बड़े प्रौढ़, स्पष्ट, सुलझे रूप में तथा प्रांजल भाषा में किया गया है।
३. शृंगारनिर्णय : इसमें शृंगार रस के अंतर्गत नायक नायिका भेद तथा संयोग वियोगादि का वर्णन किया गया है।
४. छंदोर्णव पिंगल : १५ तरंगों में पिगंलशास्त्र के आधार पर छंदों का विशद् एवं उत्कृष्ट विवेचन करने वाला महत्वपूर्ण ग्रंथ है
५. शब्द नाम प्रकाश : संस्कृत के प्रसिद्ध 'अमरकोश' का तीन खंडों में विभक्त पद्यानुवाद है जिसे दासकृत 'अमरप्रकाश' या 'अमरतिलक' आदि नामों से भी जाना जाता है।
६. विष्णुपुराण भाषा : इसमें अनेक अध्यायों में विष्णुपुराण की कथाओं का भाषानुवाद किया गया है।
७. शतरंजशतिका : शतरंज के खेलों का वर्णन है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने दास की रचना को कलापक्ष में 'संयत' और भावपक्ष में 'रंजनकारिणी' बताकर उन्हें कवि ही माना है, आचार्य नहीं। अन्य हिंदी आचार्यो की तुलना में दास ने वर्गीकरण पद्धति के माध्यम से अलंकार, गुण (वामनसम्मत दस गुणों को चार वर्गों में बाँटा - अक्षरगुण, वाक्यगुण अर्थगुण और दोषाभावगुण), नायिकाभेद (स्वाधीनपतिका के आठ भेदों को दो वर्गों में बाँटा) और छंद की जो विवेचना की वह उनकी मौलिकता का पुष्ट प्रमाण है। जहाँ मम्मट ने माधुर्य गुण में शांत रस की स्थिति मानी थी वहाँ 'दास' ने उसकी जगह पर हास्य और ओजगुण के अंतर्गत भयानक रस को माना है। अर्थालंकारांतर्गत परिगणित मुद्रालंकार को दास ने शब्दालंकार माना है। छायादर्शन और मायादर्शन 'नाम से' चित्र दर्शन के दो नए भेद भी उन्होंने किए।
सं० ग्रं० आचार्य रामचंद्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास, ना० प्र० सभा, वराणसी; हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास, षष्ठ भाग, सं० डॉ० नगेंद्र, ना० प्र० सभा वाराणसी; डॉ० नारायण दास खन्ना : आचार्य भिखारीदास।