भास संस्कृत नाटककारों में भास का नाम बड़े सम्मान का विषय रहा है। कालिदास ने अपने पूर्ववर्त्ती, और लोकप्रिय नाटककारों की चर्चा करते हुए सबसे पहले भास और बाद में सोमिल (सौमिल्ल) एवं कविपुत्र के नाम लिए हैं और उन्हें यशस्वी नाटककार कहा है। बाणभट्ट, वाक्यतिराज और जयदेव ने भी उनकी प्रशंसा की है। वामन की 'काव्यालंकार सूत्रवृति' और अभिनवगुप्त की 'अभिनवभारती', राजेशेखर की 'काव्यमीमांसा' से भास के नाटकों का अस्तित्व सूचित है। 'अवंतिसुंदरी कथा' में भी उनका नाम आया है। अत: निश्चित है कि संभवत: अश्वघोष के परवर्ती और कालीदास से पूर्ववर्ती नाटककार के रूप में भास अत्यंत लोकविश्रुत कलाकार थे। परंतु उनके नाटक अप्राप्त थे। सन् १९०७ ई० में म० म० टी० गणपति शास्त्री को मलयालम लिपि में लिखित संस्कृत के दस नाटक प्राप्त हुए। खोज करने पर तीन और नाटक मिले। १९१२ ई० में गणपति शास्त्री द्वारा अनंतशयन संस्कृत ग्रंथावली में भास के नाम से वे प्रकाशित किए गए। इन नाटकों की अनेक प्रतियाँ अन्य स्थानों से प्राप्त हुई।
उक्त १३ नाटकों को पूर्णत: या अंशत: भासकृत मानने न माननेवालों के पक्ष तर्कसमर्पित होकर भी आजतक निर्णायक नहीं हो सके। इस विवाद के उठने के अनेक कारण हैं। नाटकों की स्थापना (प्रस्तावना) और पुष्पिका में -- कहीं भी नाटककार भास का नाम नहीं मिलता। संस्कृत ग्रंथों में भास के जो अंश उदधृत हैं उनमें अधिकांश अक्षरश: इन नाटकों में अनुपलब्ध हैं। इसी प्रकार अनेक कारण है जो उन तेरह नाटकों की भासरचना विषयक प्रामाणिकता को संदिग्ध बनाते हैं। इस प्रसंग के प्रमुख मतपक्षों को चार वर्गो में रखा जा सकता है (क) कुछ विद्वान् इन नाटकों को भासकृत मानते हैं--जैसे डॉ० कीथ, पुसलकर, अय्यर आदि; (ख) कुछ लोग प्रचलित नाटकों को केरल के चाक्यार नटों की कृति मानते हैं या परवर्ती किसी सामान्य नाटककार की रचना समझते हैं; (ग) दूसरे पंडितों का कथन है कि 'प्रतिज्ञायौगंधरायणम्' 'स्वप्नवासवदत्तम्' आदि नाटक भासकृत हैं क्योकि प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में उनका संकेत है तथा अन्य भासकृत नहीं है; (घ) अन्य कुछ विद्वानों के मत से मूलत: वे नाटक भासकृत थे; पर उनका वर्त्तमान रूप नटों या अन्य द्वारा नाट्यप्रयोगानुकूल परिवर्तित या संक्षिप्त होेकर सामने आया है। यह भी कभी कभी कहा जाता है कि भास के उपलब्ध नाटक अधूरे थे जिसे अन्य या अन्यजनों ने पूरा करके उन्हें वर्तमान रूप दिया। जो हो, यह निश्चित है क ये नाटक जाली नहीं हैं। केरल के चाक्राा परंपरा ने समान रूप से सुरक्षित रखा है। परंपरागत प्रसिद्धि के अनुसार उनकी संख्या २३ या ३० कही गई है। त्रिवेंद्रम् संस्करण के १३ नाटकों में कुछ ऐसी समानताएँ और विशेषताएँ हैं जिनके कारण वर्तमान संस्करण की नाट्यलेखन और नाट्यशिल्प के कलाकार की एकता सूचित होती है। 'नांद्यंते तत: प्रविशति सूत्रधार:' सेश् इनका आरंभ, प्रस्तावना के स्थान पर स्थापना शब्द का प्रयोग, नाटक कार के नाम का अभाव, भरतवाक्य में प्राय: साम्य, भरत के नाट्यशास्त्रीय कुछ विधानों का अपालन, संस्कृत में कतिपय अपाणिनीय रूप का प्रयोग, अनेक नाटकों में कुछ पात्रों के नाम का साम्य, विचार और आदर्श की समानता, प्राकृत भाषा की कुछ विलक्षणता आदि ऐसी बातें हैं जिनके कारण इन सब के एककर्तृत्व का संकेत भी मिलता है। पर वह भास थे या चाक्यार नटों के नाट्यरूपंतकार, यह नहीं कहा जा सकाता। फिर भी वर्त्तमान कालश् में त्रिवेंद्रम् से १९१२ में प्रकाशित १३ नाटक भासकृत मानकर प्रकाशित हुए और होते चल रहे हैं। उनके नाम हैं (१) स्वप्नवासवदत्ता, (२) प्रतिज्ञा यौगंधरायण, (३) दरिद्र चारु दत्त, (४) अविमारक, (५) प्रतिमा, (६) अभिषेक, (७) बालचरित, (८) पंचरात्र (९) मध्यमाव्यायोग, (१०) दूतवाक्य, (११) दूतघटोत्कच, (१२) कर्णभार और (१३) उरुभंग। इनमें प्रथम आठ नाटक अनेकांकी (तीन से सात अंक वाले) हैं और अंतिम पाँच एकांकी हैं। प्रथम दो नाटक उदयनकथाश्रित हैं, ३,४ संख्यक नाटक कल्पित कथाश्रित हैं (तृतीय की लगभग वही कथा है जो शूद्रक के 'मृच्छकटिक' में है), ५,६ संख्यक रामकथाश्रित हैं, सप्तम नाटक कृष्णकथाश्रित है तथा अष्टम से तेरहवें तक के नाटकों का आधार महाभारत है। इनकी कथावस्तुओं में नाटककार ने कल्पनाजन्य घटनाओं, पात्रों आदि का भी नाटकीयता के लिये पर्याप्त उपयोग किया है।
नाटकों का रचनाकाल -श् भास और उनके नाटकों का अविर्भाव निश्चय ही कालिदास से पूर्व और संभवत: अश्वघोष के बाद हुआ था। उनसे पूर्ववर्ती नाटककारों के रूप में केवल अश्वघोष का नाम, कदाचित्, लिया जा सकता है। गणपति शास्त्री, पुसलकर आदि ने उपर्युक्त नाटकों का रचनाकाल कौटिल्य अर्थशास्त्र से पूर्व पंचम चतुर्थ शताब्दी ई० पू० माना है। डॉ० कीथ, स्टेन कोनो आदि ने द्वितीय तृतीय शताब्दी ई० (कालीदास से पूर्व) माना है। बार्नेट, रामावतार शर्मा, सुकथंकर विंटरनित्स आदि शोधकों ने ७वीं शती ई० से ११वीं शती तक के काल को इन नाटको का रचना काल माना है। इसी प्रकार १६ शताब्दियों की लंबी कालावधि में विभिन्न कालों में नाना पंडितों के मत से रचना हुई। अधिकांश विद्वान इनका समय द्वितीय-तृतीय शती ई० मानते हैं।
साहित्यिक मूल्यांकन - इन नाटकों के कथासूत्रों का आकलन और संयोजन विविध स्त्रोतों और कलात्मक शिल्प के साथ हुआ है।
यद्यपि 'अभिषेक' और 'प्रतिमा' आदि में वस्तुयोजना कुछ शिथिल है, तथापि अन्यत्र उसमें नाटकीय गतिमत्ता भी पर्याप्त है 'उदयन' नाटकों की वस्तुयोजना गतिशील, नाटकीय कलात्मक और शक्तिशाली है। महाभारताश्रित नाटकों की कथा वस्तु भी पर्याप्त शक्तिशाली है। कभी कभी शिथिल वस्तु की कमी को ओजस्वी संवादों ने ऊर्जस्वित कर दिया है। उदयन नाटकों में नाट्यकौशल और नाटकीय शिल्प के संयोजन ने उनको उत्तम कोटि के नाटक स्तर पर पहुँचा दिया है। स्वप्न वासवदत्तं में कथावस्तु की शिथिलता के बावजूद कार्यसंकलन की कुशलता ने उसमें अपूर्व गतिमत्ता प्रस्फुटित की है। वर्ण्य कथा को नाटकीय रूप देकर संयोजना में इन नाटकों को अच्छी सफलता मिली है। उनमें नाटकीय व्यंग्य है, गतिशीलता है, अप्रत्याशित एवं मौलिक परिस्थितियों के उद्भावन की दक्षता है और अलौकिक, आधिदैविक, अतिक्रमित प्राकृतिक पात्रों-घटनाओं का प्रयोग होने पर भी चरित्रों और परोक्ष चित्रण द्वारा यथार्थता या वास्तविकता का आभास देने में इन नाटकों को सफल कहा जा सकता है।श्
[कृष्णप्रसाद श्रीवास्तव]
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