भारतीय करव्यवस्था सामान्य रूप से शासन सम्बंधी कार्यसंचालन के लिए व्यक्तिगत इकाइयों पर अनिवार्य उद्ग्रहण के रूप में कर लगाए जाते हैं। करों को सामान्यत: राजस्ववृद्धि का ही साधन माना जाता है किंतु राष्ट्र की अर्थनीति को भी ये प्रभावित करते हैं। कर लगाने का उद्देश्य यथासंभव राष्ट्र की विषमता को दूर करना है। इसीलिए जिनकी अधिक आय है, उन्हें कम आयवालों की अपेक्षा अधिक मात्रा में कर देना पड़ता है।

इतिहास मनुष्य जाति के इतिहास मे बहुत बाद में चलकर शासन ने राजस्ववृद्धि के लिए करों का आश्रय लिया था, विशेषकर ऐसे करों का जो उचित रूप से लगाए जाते थे और जिनके सम्बंध में शासित जनों की सहमति ले ली जाती थी। शताब्दियों तक सार्वजनिक क्षेत्रों से ही मुख्य रूप से राजस्व का संकलन किया जाता था जिसमें घरेलू उपभोग की वस्तुओं पर लगाए गए उत्पादन शुल्क और विदेशी व्यापार पर लगाए गए सीमाशुल्क का स्थान मुख्य था। दास, अधीनस्थ, किसान, विजित तथा अन्य विशेषाधिकार रहित लोगों का यह कर्तव्य माना जाता था कि वे शासकीय वर्ग के लोगों का शुल्क आदि से पोषण करें। करों को दासता के बंधन के रूप में नहीं, अपितु स्वातंत््रय के चिह्न के रूप में मान्यता देना आधुनिक युग की बात है।

भारत में १८वीं शताब्दी के मध्य में अंग्रेजों के आगमन के पूर्व भूमिकर के अतिरिक्त देश के भिन्न भिन्न भागों में भिन्न भिन्न प्रकार के प्रत्यक्ष कर भी लगाए जाते थे। किंतु इन सब में भूमिकर ही प्रधान था। कुछ काल तक अंग्रेजों ने उनमें से अधिकांश उद्ग्रहणों को जारी रखा किंतु कालांतर में उन्हें बंद कर दिया। एक समय ऐसा भी था जब भूमिकर के अतिरिक्त देश में अन्य किसी प्रकार का प्रत्यक्ष कर नहीं ग्रहण किया जाता था। भारत में सन् १८६० में प्रथम बार आयकर की व्यवस्था की गई। १८८६ में इसे भारतीय करप्रणाली का स्थायी अंग बना दिया गया, किंतु इसके पूर्व यह शासनव्यवस्था में उत्पन्न हुई आर्थिक कठिनाइयों के निवारण के लिए समय समय पर अल्प मात्रा में ही लगाया जाता था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय शासन का खर्च अत्याधिक बढ़ जाने के कारण इस कर का महत्व बढ़ गया और राजस्ववृद्धि का यह एक प्रमुख स्रोत बन गया। सन् १९१७ में क्रमानुपातिक अधिकार (सूपरटैक्स) तथा १९१८ में अधिलाभकर (ऐक्सेस प्रॉफिट टैक्स) का प्रवर्तन किया गया।

भारत में आयकर लगाने और वसूल करने की पद्धति को नियमित रूप देने के लिए सन् १९२२ में एक समेकित (कॉनसालिडेटेड) अधिनियम पारित किया गया था। भारतीय आयकर अधिनियम १९२२ की संज्ञा से ज्ञात यह अधिनियम ३१ मार्च, १९६२ तक व्यवहार में रहा। समय समय पर इसमें संशोधन किए जाते रहे और अंत में यह आवश्यक हो गया कि इसे बदल दिया जाए। सितंबर, १९६१ में राष्ट्रपति ने आयकर अधिनियम १९६१ को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी और १ अप्रैल, १९६२ से इस नए अधिनियम ने सन् १९२२ के अधिनियम का स्थान ले लिया।

आयकर के अतिरिक्त केंद्रीय शासन ने चार अन्य मुख्य उद्ग्रहणों की भी व्यवस्था की है जिनके नाम हैं संपदा शुल्क १९५३, धनकर १९५७, उपहारकर १९५८ तथा व्ययकर १९५८।

अन्य कर उपर्युक्त करों के अतिरिक्त कतिपय उपभोग करों की व्यवस्था है जो सामान्यत: उपभोक्ताओं को अधिक मूल्य के रूप में देने पड़ते हैं, यद्यपि आरंभिक रूप में ये कर उत्पादकों तथा वितरकों पर ही लगाए जाते हैं। इस प्रकार के करो को प्राय: 'अप्रत्यक्ष कर' कहा जाता है। उत्पादन की विभिन्न अवस्थाओं में स्थूल आय या मूल्य के आधार पर ये कर अधिकतर चल करों के रूप में लगाए जाते हैं, जैसे निर्माण की थोक तथा खुदरा अवस्थाओं में विक्रय एवं क्रय कर। अधिक सीमित रूपों में ये कर विलासिता की तथा बहुत सी अन्य वस्तुओं पर उत्पादन शुल्क के रूप में लगे दीख पड़ते हैं। भारतीय संघीय शासन अंतरप्रांतीय विक्रय पर केंद्रीय विक्रय कर तथा बहुत सी अन्य सामग्रियों पर उत्पादन शुल्क का उद्ग्रहण करता है। विभिन्न प्रांतीय शासन भी प्रदेश की सीमा के अंतर्गत विक्रय की गई वस्तुओं पर बिक्रीकर का उद्ग्रहण करते हैं।

सामान्य वर्गीकरण करों के आधार वा स्रोतपरक वर्गीकरण के अतिरिक्त अत्यंत महत्वपूर्ण वर्गीकरणों में एक हैउत्कर्षपरक, आनुपातिक तथा अपकर्षपरक विभाजन। यह वर्गीकरण विशुद्ध आय की तुलना में प्रभावशाली अर्घ अनुपात में भी वृद्धि होती है अर्थात् जब किसी व्यक्ति की आय में वृद्धि के साथ साथ उस आय पर निर्धारित किए जानेवाले कर के प्रतिशत में भी वृद्धि होती चलती है, तब उस स्थिति में वह वृद्धिशील कर है। यह आयवृद्धि से कर के प्रतिशत पर कोई प्रभाव न पड़े तो कर आनुपातिक है। जब आयवृद्धि के साथ कर का प्रतिशत न्यून होता चले तब कर अपकर्षपरक है। ये संज्ञाएँ विशिष्ट कर एवं सामान्य कर व्यवस्था-दोनों में व्यवहार्य हैं। विशिष्ट करों में व्यक्तिगत आयकर, मृत्युकर तथा उपहारकर प्राय: सार्वत्रिक उत्कर्षपरक हैं। अधिकतर संपत्ति, विक्रय तथा उत्पादन सम्बंधी करों का आनुपातिक रूप में उद्ग्रहण किया जाता है किंतु व्यवहार में ये कर अपकर्षपरक होते हैं। उदाहरण के लिए अधिक आय की अपेक्षा कम आय पर लगा ७% कर राशि में अधिक है क्योंकि कम आय पर अधिक मर्दे करार्ह होती हैं बनिस्बत अधिक आय के।

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में दीख पड़नेवाला भेद ऐसा है जो बहुत प्रचलित है। सामान्यत: प्रत्यक्ष कर उस व्यक्ति को अदा करना पड़ता है जिसपर यह लगाया जाता है। अप्रत्यक्ष कर वह है जो वास्तविक करदाता या तो वस्तुओं का दाम बढ़ाकर दूसरों से इसे वसूलता है या फिर स्वयं वस्तुओं का कम मूल्य देकर इस कर से मुक्त रहता है। तब भी बहुत बार यह निश्चय कर पाना बड़ा कठिन हो जाता है कि कर प्रत्यक्ष है या अप्रत्यक्ष। व्यवहार में आय, मृत्यु, उपहार और भूमि से सम्बंधित करों को प्रत्यक्ष माना जाता है। उपभोग करों को सामान्यत: अप्रत्यक्ष माना जाता है। साधारणतया प्रत्यक्ष कर ही दानक्षमता के सिद्धांत पर आधारित होते हैं।

उद्देश्यशासन की अन्य नीतियों के सामंजस्य पर आधारित कराधान का व्यापक उद्देश्य जनता का अधिकाधिक कल्याण करना है। तात्विक कार्यो के सम्यक् सम्पादन के लिए करों द्वारा ही शासन को आर्थिक दृढ़ता प्राप्त होती है। साथ ही सामाजिक और आर्थिक भलाई भी करों द्वारा होती है क्योंकि कर समाज में व्याप्त अत्याधिक आर्थिक विषमताओं को कम करते हैं, जिससे महार्घता और युद्धकालिक अपसंचय प्रवृत्ति को रोककर राष्ट्र में आर्थिक दृढ़ता स्थापित करने में सहयोग प्राप्त होता है।

भारतीय केंद्रीय कर भारत की तरह के संघीय संविधान में कराधान का अधिकार केंद्र में तथा प्रदेशों अथवा इकाइयों में विभक्त कर दिया जाता है। इन अधिकारों को दृष्टिगत रखते हुए कुछ वस्तुओं पर केंद्र कर लगा सकता है और कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनपर राज्य कर लगा सकते हैं। उदाहरण के लिए भारतीय संविधान के अनुसार आय, उपहार, धन, व्यय और संपदा से सम्बंधित कर संघीय शासन द्वारा निर्धारित किए जाते हैं तथा राज्य शासन विक्रय, मनोरंजन और कृषि सम्बंधी उत्पादनों पर कर लगाते हैं।

आयकर भारत में व्यक्ति, व्यवसाय संघ, संयुक्त हिंदू परिवार, व्यक्तियों के समुदाय, स्थानीय निकायों और कंपनियों पर आयकर अधिनियम १९६१ के अधीन आयकर लगाने की व्यवस्था है। इन इकाइयों को कुछ विशेष स्थितियों के आधार पर स्थूल रूप से वसतिपरक और वसतिरहित इन दो श्रेणियों में विभक्त कर दिया गया है। दोनों पर निर्धारित किए जानेवाले कर में भी भेद है। वसतिपरक पर करनिर्धारण भारत या बाहर से हुई उसकी कुल आय पर कर लगता है जो उसे भारत के अंतर्गत हुई हो। व्यक्तिगत आय पर कर उत्कर्षपरक होता है; आय के प्रत्येक फलक पर यह बढ़ता रहता है और आय ७०,००० रुपये के ऊपर पहुँचने पर कर की दर ८% हो जाती है। कंपनियों पर कर स्थिर रूप से निर्धारित किया जाता है जो उन्हें अपने मुनाफे के ६०-७० प्रति शत के रूप में देना पड़ता है। जब आय निर्धारित सीमा पर पहुँच जाती है तब उसपर अतिरिक्त कर लगाया जाता है।

धारा १० के अनुसार आय की कुछ मदें करदाता की पूर्ण आय में सम्मिलित नहीं की जातीं, इसलिये वे (मर्दे) करों से भी मुक्त हैं : जैसे कृषि संबंधी आय, छात्रवृत्तियाँ आदि। औद्योगीकरण को प्रोत्साहित कने के लिए कम्पनियों को आयकर अधिनियम के अनुसार बहुत सी कटौतियाँ और सुविधाएँ दी जाती हैं, जैसे धारा ३३ के अनुसार विकास कटौती या नवसंस्थापित व्यवसायों को षड्वर्षीय करावकाश अथवा धारा ८४ के अंतर्गत होटलों को दी जानेवाली छूट।

आय को छह 'मदों' वा श्रेणियों में विभक्त किया गया है वेतनों से आय, जमा राशियों पर ब्याज, मकानों से आय, व्यापार तथा व्यवसाय में मुनाफा या लाभ, पूँजी से लाभ तथा अन्य साधनों से आय। इस विभाजन का उपयोग केवल इतना है कि तत्सम्बंधी नियम उनपर लागू किए जा सकें। विभिन्न श्रेणियों की आय एक साथ जोड़ ली जाती है और कुल आय पर वर्तुलाकार रूप से कर का निरूपण किया जाता है। कर की दरें करदाता की कुल आय को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाती हैं। कुल आय से अभिप्राय करदाता की शुद्ध आय से है, निर्धारित छूटों को छोड़कर।

'कर निरूपण वर्ष' के लिए कर का निर्धारण करदाता को 'पूर्व वर्ष' में हुई आय के आधार पर किया जाता है। 'करनिरूपण वर्ष' से अभिप्राय उस वित्तीय वर्षपरिमाण से है जो १ अप्रैल से प्रारंभ होता है और आनेवाले वर्ष में ३१ मार्च को समाप्त होता है। 'पूर्व वर्ष' से अभिप्राय उस वित्तीय वर्ष से है जो 'निरूपण वर्ष' प्रारंभ होने के ठीक पूर्व समाप्त होता है।

अधिनियम के घाटे को अलग कर देने और आगे ले जाने की तथा अंतराष्ट्रीय दोहरे कराधान से बचाव की भी व्यवस्था है।

प्रशासन आयकर प्रशासन की व्यवस्था के लिए आयकर अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है, जिनमें प्रारंभिक हैं निरीक्षक सहायक आयुक्त, अपीलीय सहायक आयुक्त तथा अपीलीय न्यायाधिकरण। अपीलीय न्यायाधिकरण के किसी निर्णय के सम्बंध में उच्च न्यायलय में अर्जी दी जा सकती है तथा जरूरत होने पर उच्चतम न्यायालय में भी अपील की जा सकती है।

सामान्यत: सभी करदाताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे कर निर्धारण वर्ष समाप्त होने के बाद ३० जून तक पूरा विवरण अधिकारियों के पास भेज दें। ये विवरण केवल सूचनापरक होते हैं। विवरणों में दी गई या उसके पास उपलब्ध किसी भी अन्य सूचना के आधार पर आयकर अधिकारी कर का निर्धारण करता है। यदि आयकर अधिकारियों को लगे कि किसी व्यक्ति ने वास्तविक आय को अथवा आय से सम्बंधित दस्तावेजों को छिपाया है, उस अवस्था में दस्तावेजों की जाँच या दस्तावेज एवं धनराशि अपने अधिकार में करने के लिए उन्हें अधिनियम में पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं।

संपदा शुल्क (एस्टेट ड्यूटी) सम्पत्ति और उत्तराधिकार विषयक करों के निर्धारण के लिए संविधान द्वारा केंद्रीय शासन को प्रदत्त विशेष अधिकारों के अधीन केंद्रीय शासन ने संपदा शुल्क अधिनियम पारित कर सन् १९५३ में प्रथम बार संपदा शुल्क का उद्ग्रहण किया था। यह शुल्क इंग्लैंड में निर्धारित संपदा शुल्क पर आधारित है।

किसी व्यक्ति की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारी को मिली या मिलनेवाली सम्पूर्ण सम्पत्ति के 'प्रधान मूल्य' पर सम्पदा शुल्क का उद्ग्रहण किया जाता है। यह सम्पत्ति चल भी हो सकती है और अचल भी हो सकती है। ''प्रधान मूल्य'' से अभिप्राय उस मूल्य से है जितने में मृत व्यक्ति की मृत्यु के समय सम्पति को खुले बाजार में बेचा जा सके। यहाँ अचल सम्पत्ति को अंतर्ग्रहण महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे सम्पदा शुल्क के अंतर्गत अनेक ऐसी मर्दे आ जाती हैं जो अन्यथा इस कर के दायरे के बाहर मान ली जा सकती हैं। किसी व्यक्ति के लिए प्रत्यक्ष या प्रन्यास के माध्यम से उत्तराधिकार रूप में निश्चित सम्पत्ति अवस्थापित मानी गई है। संपदा शुल्क अधिनियम उन सभी व्यक्तियों पर लागू होता है

१.����� जो भारत के अधिवासी हैं। उनकी मृत्यु के समय उनकी

(अ) भारत में स्थित चल तथा अचल सम्पत्ति, एवं

(ब) भारत के बाहर स्थित चल सम्पत्ति करार्ह होगी।

२.����� जो भारत के अधिवासी नहीं हैं, उनकी मृत्यु के समय भारत में स्थित उनकी चल तथा अचल संपत्ति करार्ह होगी एवं

(३) जो भारत के बाहर स्थित चल अवस्थापित सम्पत्ति का मृत्यु पर्यंत अभोगी रहा हो किंतु शर्त यह कि अवस्थापक अवस्थापन के समय भारत का अधिवासी रहा हो तो उसकी वह संपत्ति करार्ह होगी।

घरेलू सामान, परिधान, भारत के बाहर स्थित अचल सम्पत्ति आदि बहुत सी मर्दे धारा ३३ के अनुसार शुल्क से मुक्त हैं। संपदा शुल्क की दर निर्धारित करते समय इन मदों की गणना नहीं की जाती। कुछ मदें ऐसी हैं जिन्हें यद्यपि संपदा शुल्क से मुक्त माना गया है, तथापि शुल्क की दर तै करते समय उन्हें कुल सम्पदा में गिनने की व्यवस्था है (धारा ३४ (१))। कुल सम्पदा पर जिस दर से कर का निर्धारण किया जाता है, उसी अनुपात में मुक्त सम्पत्ति पर जितना कर बैठता है, उतना कर माफ कर दिया जाता है। इस प्रकार की मदों में से कुछ ये हैं :

(अ) २,५०० रुपए तक के मूल्य के ऐसे उपहार जो मृत व्यक्ति ने अपनी मृत्युतिथि से अधिकतम छह महीने पूर्व तक सार्वजनिक धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए दिए हों (धारा ३३ (१) (अ)।

(ब) १,५०० रुपए तक के मूल्य का अन्य किसी भी प्रकार का एक या एकाधिक उपहार जो मृत्युतिथि से अधिकतम दो वर्ष पूर्व तक दिया गया हो (धारा ३३ (१) (हब)।

(स) मृत व्यक्ति द्वारा अपने जीवन पर खरीदी गई जीवन बीमा पालिसियों की ५,०००, रुपए तक के मूल्य की प्राप्तियाँ (धारा ३३ (१) (ह)।

अधिनियम में सम्पदा के मान में से बहुत सी अन्य कटौतियों की भी व्यवस्था है, जैसे अंतिम संस्कार के लिए १,००० रुपए तक उत्तराधिकार मोक कहा जाता है। यह कटौती सम्पत्ति के उस भाग पर लगनेवाले सम्पदा शुल्क में की जाती है जिस भाग पर मृत व्यक्ति की मृत्युतिथि से पाँच वर्ष पूर्व तक पूर्वाधिकारी की मृत्यु के समय कर का उद्ग्रहण किया जा चुका है (धारा ३१); उदाहरण के लिए इस प्रकार की सम्पत्ति पर लगनेवाले कर में १००% कटौती कर दी जाती है यदि उत्तराधिकारी पूर्व मृत व्यक्ति से तीन महीने के अंदर अंदर मर जाता है तो कर में ५०% की छूट दे दी जाती है (इसी प्रकार कुछ अन्य व्यवस्थाएँ भी हैं)।

केंद्रीय शासन को यह अधिकार है कि वह अन्य देशों के साथ इस प्रकार के पारस्परिक अनुबंध बना सके जिससे किसी व्यक्ति को भारतीय और विदेशी सम्पदा करों के अधीन दोहरा कर न देना पड़े (धारा ३०)।

प्रशासन और प्रक्रिया सम्पदा शुल्क का प्रशासन और उसे उगाहने का काम सम्पदा शुल्क नियंत्रकों द्वारा सम्पादित किया जाता हैं। केंद्रीय शासन द्वारा नियुक्त ये निंयत्रक राजस्व के केंद्रीय बोर्ड की सामान्य देखरेख में अपना काम करते हैं। अपीलीय नियंत्रकों को और अपीलीय न्यायधिकरण को अपीलें सुनने का अधिकार होता है। इसके बाद उच्च न्यायालय में भी अपील की जा सकती है।

मृतक के वैधानिक प्रतिनिधि, जिन्हें मृतक की मृत्यु के बाद सम्पत्ति मिलती है तथा प्रत्ययी, जो मृतक की मृत्यु के बाद सम्पत्ति के प्रबंधक बनते हैं अथवा सम्पत्ति के किसी हिस्से में भागीदार बनते हैं उनसे अपेक्षा की जाती है कि मृतक की मृत्यु के अनंतर छह महीनों के अंदर अंदर सम्पदा शुल्क नियंत्रक के पास 'खाते' प्रस्तुत कर दें (धारा ५३)। विवरणों तथा लेखों से संतुष्ट होने पर नियंत्रक शुल्क का निर्धारण करेगा एवं संबद्ध व्यक्तियों को माँग की नोटिस देगा जिसमें उल्लिखित समय तथा स्थान पर उन्हें शुल्क की रकम जमा कर देनी चाहिए।

दर सन् १९६५-६६ के लिए संपदा शुल्क की दरें इस प्रकार हैं :

(१) सम्पदा का मुख्य मूल्य यदि ५०,००० की दर रुपयों के अंदर हो कुछ नहीं।

(२) सम्पदा का मुख्य मूल्य यदि ५०,००० रुपयों से अधिक तथा १,००,००० रुपयों से कम है %

(३) सम्पदा का मुख्य मूल्य यदि १,००,००० रुपयों से अधिक तथा ५,००,००० रुपयों से कम है %

(४) सम्पदा का मुख्य मूल्य यदि २,००,००० रुपयों से अधिक तथा ५,००,००० रुपयों से कम है १५%

(५) सम्प्दा का मुख्य मूल्य यदि ५,००,००० रुपयों से अधिक तथा १०,००,००० रुपयों से कम है २५%

(६) सम्प्दा का मुख्य मूल्य यदि १०,००,००० रुपयों से अधिक तथा १५,००,००० रुपयों से कम है ४०%

(७) सम्प्दा का मुख्य मूल्य यदि १५,००,००० रुपयों से अधिक तथा २०,००,००० रुपयों से कम है ५०%

(८) सम्प्दा का मुख्य मूल्य इससे अधिक होने पर ८५%

धनकर (वेल्थ टेक्स) निकोलस काल्डोर की संस्तुतियों पर अप्रैल, १९५७ में प्रथम बार भारत में शुद्ध धन पर कर की व्यवस्था की गई थी। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के काल्डोर महोदय ने भारतीय शासन की प्रार्थना पर भारतीय करप्रणाली का अध्ययन करने के बाद उक्त संस्तुतियाँ की थीं।

'मूल्य निर्धारण तिथि' को करदाता के पास कुल जितना कर योग्य या करार्ह शुद्ध धन हो, उसी पर धनकर का वार्षिक उद्ग्रहण किया जाता है। शुद्ध धन से अभिप्राय है गणना के वर्ष के अंतिम दिन करदाता के पास जितनी परिसंपत्तियाँ हों, उन सबका कुल मूल्य। किसी भी परिसम्पत्ति का मूल्य वही माना जाएगा, जितने में पह परिसंपत्ति मूल्यनिर्धारण तिथि को खुले बाजार में बेची जा सके।

धनकर केवल व्यक्तियों को तथा अविभाजित हिंदू परिवारों को ही अदा करना पड़ता है और यह क्रमिक रूप से वृद्धिशील होता है। प्रारंभ में कंपनियों से भी इस कर का समान दर से उद्ग्रहण किया जाता था किंतु सन् १९६०-६१ से कम्पनियों को इस से मुक्त कर दिया गया। करग्रहण के उद्देश्य से इन दोनों इकाइयों को स्थानिक और अनिवासी इन दो भागों में विभक्त कर दिया गया है। इस विभाजन का आधार वही है जो आयकर अधिनियम द्वारा निर्धारित है। करार्हता के निर्धारण में राष्ट्रीयता का भी विचार किया जाता है। सामान्यत: स्थानिक व्यक्तियों से उनके विश्वव्यापी शुद्ध धन के आधार पर कर ग्रहण किया जाता है। और अन्य लोगों से केवल उनके भारत में स्थित घन के आधार पर।

अधिनियम में कुछ इस प्रकार की परिसंपत्तियों की सूची दी गई है जो धनकर से मुक्त हैं और करार्ह धन के निर्धारण में जिन्हें बिल्कुल नहीं गिना जाता; जैसे घरेलू वस्तुएँ, २५,००० रुपए मूल्य तक के गहने, कुछ शर्तो के साथ एक लाख रुपए मूल्य तक का निवासस्थान इत्यादि।

कोई इस ढंग की करसंधि वा समझौते की व्यवस्था नहीं है जिससे अंतरराष्ट्रीय दोहरा कराधान रोका जा सके अथवा करदाता को कुछ उन्मुक्ति दी जा सके और न ही अदा किए गए विदेशी शुद्ध धन सम्बंधी कर के लिए आकलन की ही कोई व्यवस्था है जैसी आयकर अधिनियम की धारा ९१ में है। तब भी सामान्यत: स्थानिक नागरिकों को और अविभाजित हिंदू परिवारों को विदेशी शुद्ध धन पर तथा अनिवासी विदेशियों को देशीय शुद्ध धन पर ५०% रियायत की व्यवस्था अधिनियम में है।

प्रशासन और प्रक्रिया सामान्य रूप से धनकर अधिनियम में दी गई प्रशासन और प्रक्रिया सम्बंधी व्यवस्था पूर्णत: आयकर अधिनियम में दी गई व्यवस्थाओं की अनुसारिणी है। आयकर विभाग के प्राधिकारी ही धनकर विभाग का काम देखते हैं। इस प्रकार आयकर अधिकारी ही धनकर अधिकारी है। अन्य प्राधिकारी हैंनिरीक्षक सहायक कमिश्नर, अपीलीय सहायक कमिश्नर धनकर का कमिश्नर और सब से ऊपर अपीलीय न्यायधिकरण। धनकर अधिकारी के निर्णय के सम्बंध में अपीलीय सहायक कमिश्नर के पास अपील की जा सकती हैऔर वहाँ से अपीलीय न्यायधिकरण के पास से उच्च न्यायालय में ले जाई जा सकती हैं और वहाँ से उच्चतम न्यायालय में।

करदाताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे प्रति वर्ष ३० जून के पूर्व लेखा स्वयं अधिकारियों के पास भेज दें। इस सम्बंध में उन्हें अधिकारियों से किसी प्रकार की सूचना की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। शुद्ध धन का अंकन करके धनकर अधिकारी उस धन पर लगनेवाले कर का निर्धारण करता है। लेखे और दंड का पुनर्विलोकन किए जाने की भी अधिनियम में व्यवस्था है।

दरेंसन् १९६६-६५ के लिये धनकर की दरें इस प्रकार हैं

कर की दर

(अ) प्रत्येक व्यक्ति के मामले में

(१) एक लाख रुपयों तक के शुद्ध धन पर कुछ नहीं

(२) एक लाख के ऊपर पाँच लाख रुपयों तक के शुद्ध धन पर ०.५%

(३) पाँच लाख के ऊपर बीस लाख रुपयों तक के शुद्ध धन पर २.०%

(४) दस लाख के ऊपर बीस लाख रुपयों तक के शुद्ध धन पर २.०%

(५) बीस लाख रुपए के ऊपर के शुद्ध धन पर २.५%

(ब) प्रत्येक अविभाजित हिंदू परिवार के मामले में

(१) दो लाख रुपए तक के शुद्ध धन पर कुछ नहीं

(२) दो लाख के ऊपर पाँच लाख रुपयों तक शुद्ध धन पर ०.५

(३) पाँच लाख के ऊपर दस लाख रुपयों तक शुद्ध धन पर १.०%

(४) दस लाख के ऊपर बीस लाख रुपयों तक शुद्ध धन पर २.०%

(५) बीस लाख रुपए के ऊपर के शुद्ध धन पर २.५%

(ब) प्रत्येक अविभाजित हिंदू परिवार के मामले में

(१) दो लाख रुपए तक के शुद्ध धन पर कुछ नहीं

(२) दो लाख के ऊपर पाँच लाख रुपए तक के शुद्ध धन पर ०.५%

(३) पाँच लाख के ऊपर दस लाख रुपए तक के शुद्ध धन पर १.०%

(४) दस लाख के ऊपर बीस लाख रुपए तक के शुद्ध धन पर २.०%

(५) बीस लाख रुपए के ऊपर के शुद्ध धन पर २.५%

उपहारकर उपहारकर अधिनियम १९५८ के अधीन प्रथम बार भारत में उपहार कर की व्यवस्था की गई थी। यद्यपि यह अधिनियम १ अप्रैल, १९५८ से व्यवहार में आया था किंतु १ अप्रैल १९५७ के बाद दिए गए उपहारों पर भी यह अधिनियम लागू होता था। उपहार कर के प्रवर्तन के पूर्व सामान्यत: उपहारों पर कोई कर नहीं लगता था किंतु आसन्न मृत्यु के आधार पर तथा मृत्यु के पूर्व दो वर्षो के अंदर दिए गए उपहारों पर संपदा शुल्क का उद्ग्रहण किया जाता था। उपहारकर संपदाकर का एक आवश्यक पूरक था।

उपहार की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि किसी व्यक्ति द्वारा स्वेच्छा से विद्यमान चल अथवा अचल संपत्ति का अन्य व्यक्ति को, मूल्य का विचार किए बिना, दिया जाना उपहार है। यदि देनेवाला मूल्य या बदले में कोई वस्तु प्राप्त करता है तो उसकी तुलना में उपहार का खुले उपहार का खुले बाजार में जो अधिक मूल्य होगा, उसी पर कर लगाया जाता है (धारा ४)।

(१)�� सामान्यत: भारत में अवस्थित नागरिकों की भारत में स्थित अचल संपत्ति में से तथा कहीं भी स्थित चल संपत्ति में से दिए गए उपहारों पर कर उद्ग्रहण की व्यवस्था है।

(२)�� जो नागरिक भारत में अवस्थित नहीं हैं अथवा सामान्य रूप से अवस्थित नहीं हैंउनकी भारत स्थित चल अथवा अचल संपत्ति में से दिए गए उपहारों पर कर उद्ग्रहण की व्यवस्था है।

(३)�� बाह्यदेशीयों की की चाहे वे कहीं के निवासी होंभारत स्थित वास्तविक अथवा चल संपत्ति में से दिए गए उपहारों पर कर लगाने की व्यवस्था है।

हिंदू अविभाजित परिवार, व्यक्तिसमवाय तथा कंपनियाँयदि ये देश में अवस्थित हैं तो इनकी भारत में स्थित अचल संपत्ति तथा कहीं भी स्थित चल संपत्ति में से दिए गए उपहारों पर कर उद्ग्रहण की व्यवस्था है। यदि ये आवासी नहीं हैं, तो उस स्थिति में उनकी भारत में स्थित चल अथवा अचल संपत्ति में से दिए गए उपहार करार्ह होंगे। सरकारी कम्पनियाँ, धर्मार्थ संस्थाएँ आदि इस ढंग के कुछ निश्चित समुदायों द्वारा दिए गए उपहार करमुक्त हैं।

उपहारकर अधिनियम में बहुत से उपहारों को करमुक्त माना गया है। उदाहरणार्थ पति या पत्नी को प्रदत्त ५०,००० रुपए मूल्य तक के उपहार, किसी आश्रित को उसके विवाह के अवसर पर १०,००० रुपए तक के उपहार, प्रदाता के बच्चों को शिक्षा के लिए दिए गए विवेकसंगत उपहार, ऐसी धमार्थ संस्थाओं तथा निधियों को दिए गए उपहार जिनपर आयकर अधिनियम लागू होता है, इत्यादि।

दान की तिथि को उपहार का खुले बाजार में जो मूल्य होगा वही मूल्य उस उपहार का माना जाएगा। खुले बाजार में विक्रय के अयोग्य संपत्तियों का मूल्यन निर्धारित नियमों के अनुसार किया जाएगा, उदाहरण के लिए जीवन बीमा पालिसियों का मूल्य वही माना जाएगा, जो उनके अर्पित करते समय का होगा।

प्रशासन और प्रक्रियाआयकर अधिकारी ही उपहारकर का भी प्रशासन करते हैं और इसकी प्रक्रिया भी आयकर, धनकर व्ययकर की प्रक्रियाओं से बहुत मिलती जुलती है। आपत्ति उठाने, अपील करने वसूल करने तथा दंड आदि की प्रक्रियाएँ आयकर सम्बंधी प्रक्रियाओं के ही समान हैं।

लागू होने योग्य मुक्तियों का लाभ उठाने के बाद यदि किसी व्यक्ति ने गत वर्ष में करार्ह उपहार दिए हैं, तो उसे चाहिए कि वह अगले वर्ष के ३० जून तक उपहारकर सम्बंधी विवरण अधिकारियों के पास भेज दे। किसी भी स्थिति में गृहीता से अपेक्षा नहीं की जाती कि वह विवरण भेजे। इस प्रकार प्रस्तुत किए गए विवरण के आधार पर उपहारकर अधिकारी करनिर्धारण करता है। यदि उपहार कर चुकाने के पूर्व किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो उसके वैधानिक प्रतिनिधि पर मृत प्रदाता की संपत्ति के विस्तार के आधार पर कर चुकाने का उत्तरदायित्व होगा।

दरेंसन् १९६५-६६ के लिए उपहारकर की दरें इस प्रकार हैं :

(१) आरंभिक ५,००० रुपए मूल्य तक के करार्ह उपहारों पर %

(२) इसके बाद १५,००० रुपए मूल्य तक के करार्ह उपहारों पर %

(३) इसके बाद २५,००० रुपए मूल्य तक के करार्ह उपहारों पर १५%

(४) इसके बाद के और एक लाख मूल्य तक के करार्ह उपहारों पर २५%

(५) इसके बाद और आगे दो लाख रुपए मूल्य तक के करार्ह उपहारों पर ४०%

(६) इससे अधिक उपहार के शेष मूल्य पर ५०%

व्ययकरव्ययकर अधिनियम, १९५७ के अधीन भारत में प्रथम बार अप्रैल, १९५७ से व्ययकर की व्यवस्था की गई थी। बाद में कर निर्धारण वर्ष १९६२-६३ से यह समाप्त कर दिया गया था किंतु १ अप्रैल, १९६४ से इसे पुन: प्रचलित कर दिया गया है। इसे आयकर के पूरक के रूप में माना जाता है जो संगत भी है।

व्यक्तियों द्वारा तथा हिंदू अविभाजित परिवारों द्वारा विगत वर्ष में किए गए व्यय पर यह कर वार्षिक रूप से लिया जाता है। कर प्रदाता कहाँ रहता है, उसकी राष्ट्रीयता क्या है और उसकी हैंसियत क्या है, इसका ध्यान रखते हुए उसके द्वारा विश्व में कहीं भी किए गए व्यय पर यह कर लगता है। इसमें भारत के अंतर्गत किया गया व्यय तथा भारतीय स्रोतों से भारत के अंतर्गत तथा भारत के बाहर किया गया व्यय सम्मिलित है। सामान्यत: ३०,०० रुपए तक की एक मानक मोक या छूट के ऊपर के व्यय पर यह कर क्रमश: अधिक तेजी से बढ़नेवाले ढंग से लगाया जाता है।

'व्यय' की परिभाषा में बताया गया है कि वह धन अथवा धन के रूप में प्रयुक्त अन्य वस्तु जो खर्च की गई हो या वितरित की गई ऐसी कोई भी राशि जिसके व्यय अथवा वितरित किए जाने से व्यय करनेवाले पर किसी तरह की देयता या दायित्व आ पड़े, (धारा २ ह) 'व्यय' की कोटि में मानी जाएगी।

(महोचंद्र विजावट )