भारत सर्वेक्षण आधुनिक काल में किसी भी सभ्य देश की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परिशुद्ध मानचित्र अत्यंत आवश्यक है। प्रशासन, सुरक्षा, कृषि, सिंचाई, वनप्रबंध, उद्योग, संचार, आदि विविध क्षेत्रों में जनता की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानचित्र पहली आवश्यकता है। इस कार्य को समुचित रीति से करने के लिये भारत सरकार ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग स्थापित किया है।
इतिहास � ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने १७५० ई. में ही बंबई, कलकत्ता और मद्रास के आसपास प्रशासन, राजस्वनिर्धारण और व्यापार की दृष्टि से जहाँ-तहाँ सर्वेक्षण प्रारंभ किया था। १७६७ ई. में मेजर रेनेल बंगाल के प्रथम महासर्वेक्षक नियुक्त हुए। इनकी नियुक्ति का उद्देश्य सफल प्रशासन और वाणिज्यप्रसार के लिये बंगाल का एक बृहत् मानचित्र तैयार करना था। इनके सहायक अधिकतर सैनिक इंजीनियर थे जिन्हें खगोलीय निरीक्षण द्वारा मार्गसर्वेक्षण का अनुभव था और जिन्हें शांति के दिनों में सेना से मुक्त किया जा सका था। ये मानचित्र सन् १७७६ में इंग्लैंड में उत्कीर्ण और मुद्रित हुए और सारे बंगाल में ६० वर्षो तक ये ही प्राप्य नक्शे थे।
विश्वस्त अभिलेखों और सर्वेक्षणों के आधार पर बना हुआ रेनेल का 'हिंदुस्तान का मानचित्र' इंग्लैंड में १७८२ ई. में उत्कीर्ण हुआ। इस मानचित्र का अधिकांश यात्रियों के रोजनामचों के आधार पर चित्रित हुआ था। समुद्र-तट-रेखा तो नौचालकों के निरीक्षणों के आधार पर कुछ हद तक शुद्ध अंकित हुई थी लेकिन देश के भीतरी भाग का रेखांकन शुद्ध नहीं कहा जा सकता था।
देश भर में धरातल तथा भौगोलिक सर्वेक्षणों के आधारभूत परिशुद्ध बिंदुओं का निर्धारण करने के लिए १८०० ई. में कैंप्टन लैंबटन नियुक्त हुए। उन्होंने देश भर में फैले हुए संबंधित बिंदुओं के अक्षांश और देशांतर का ज्ञान करने के लिए आधाररेखा (base line) और त्रिकोणीय ढाँचे (triangulation frame work) पर त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण किया। अन्य भूगणितीय (geodetic) कार्य गौण महत्व के समझे गए। लैंबटन की मृत्यु के बाद इस सर्वेक्षण का नाम १ जनवरी, १८१८ को 'भारत का महान् त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण (The Great Trignometrical Survey of India) रखा गया और लैंबटन की मृत्यु के पश्चात् कर्नल ऐवरेस्ट ने १८४० ई. के बाद इस कार्य को उत्तर में हिमालय की ओर बढ़ाया।
१८१५ ई. तक बंगाल, मद्रास और बंबई
में अलग अलग एक एक महासर्वेक्षक था जो स्थानीय सरकार के अधीन
कार्य करता था। १८१५ ई. में तीन स्वाधीन महासर्वेक्षकों के पद
को मिलाकर एक पद कर दिया गया, जिसपर कर्नल मैकेंजी भारत
के एक महासर्वेक्षक नियुक्त हुए। कर्नल मैकेंजी का पहला कार्य
भारत का प्रामाणिक मानचित्र तैयार करना था। १८३० से १८६१ ई.
और १८७८ से १८८३ ई. तक भारत का महासर्वेक्षक ही त्रिकोणमितीय
सर्वेक्षण का अधीक्षक था, यद्यपि यह एक स्वतंत्र विभाग बना रहा।
भारत का चौथाई इंच ऐटलस चालू होने पर लगभग १८२५
ई. में भारत का मानचित्र सामने आया और इस माला का पहला
नक्शा १८२७ ई. में मुद्रित हुआ। यह नक्शा केवल महान त्रिकोणमितीय
सर्वेक्षण के आधार पर ही बना और लंदन में संकलित तथा उत्कीर्ण
हुआ। इस ऐटलस में १८६८ ई. तक, जब उत्कीर्णन भारत में होने
लगा, देश के आधे से अधिक भाग के मानचित्रों को प्रदर्शित कर
दिया गया था। इस ऐटलस का कार्य १९०५ ई. तक आगे बढ़ता
रहा। पर १९०५ ई. में इंच अंश
मानचित्रों के एक नए विन्यास और एक इंच नक्शों की लगातार
मालाओं ने पुराने मानचित्रों का स्थान ले लिया।
१९०५ ई. के बाद के आधुनिक सर्वेक्षण और मानचित्र � १९०५ ई. तक के किए गए स्थलाकृति सर्वेक्षण आधुनिक आवश्यकताओं को देखते हुए परिमाण और गुण में अपर्याप्त थे। अतएव १९०४- १९०५ ई. में इस समस्या की जाँच के लिये इंडियन सर्वे कमेटी नामक समिति गठित हुई। इस प्रकार भारत में आधुनिक सर्वेक्षण का प्रारंभ १९०५ ई. में हुआ। उक्त समिति ने बृहत् योजना बनाकर भावी सर्वेक्षणों के सम्बंध में नीति निश्चित की और 'भारतीय सर्वेक्षण' विभाग ने अनेक रंगों में स्थलाकृति मानचित्र माला (जंगलों के नक्शे सहित) तैयार करने का दायित्व सँभाला। राजस्व मानचित्रों का सर्वेक्षण प्रांतों पर छोड़ दिया गया। इस कदम से भारत के सर्वेक्षण विभाग को सारे देश का मानचित्र शीघ्रता से तैयार करने में काफी मदद मिली। इन प्रारंभिक कार्यो से यह विभाग शनै: शनै: स्थलाकृतिक सर्वेक्षण, खोज और दक्षिण एशिया के अधिकांश भूभाग के भौगोलिक मानचित्रों का अनुरक्षण तथा भूगणितीय कार्य के लिये जिम्मेदार बन गया है। आजकल एक सुस्थापित सरकारी विभाग है जिसकी परिशुद्ध भारतीय सर्वेक्षण, मानचित्र सर्वेक्षण और भूगणितीय कार्यो की परम्परा प्रशंसनीय है। देश की विकास योजनाओं के लिए आधुनिक सर्वेक्षणों को निष्पादित करने और स्थलाकृतिक तथा भौगोलिक मानचित्रों के अनुरक्षण में इसका महत्वपूर्ण हाथ है।
मानचित्रों का वर्गीकरण � मानचित्रों के साधारणतया निम्नलिखित प्रकार हैं : (क) भौगोलिक मानचित्र, (ख) स्थालाकृतिक मानचित्र, (ग) भू कर तथा राजस्व मानचित्र, (ग) नगर तथा कस्बों के दर्शक मानचित्र, (ङ) छावनी मानचित्र, (च) विशिष्ट उपयोग के मानचित्र तथा (छ) विविध मानचित्र।
(१) भौगोलिक मानचित्र � इन मानचित्रों में देश की साधारण भौगोलिकश् आकृतियाँ होती हैं और उनमें अप्रधान स्थलाकृति के विवरण नहीं दिखाए जाते। ऊँची नीची धराकृति (height relief) के ऊँचे नीचे स्तर रंगों या रेखाच्छादन द्वारा दर्शाते हैं। इन मानचित्रों का पैमाना १ इंच से ८ मील से लेकर १/१२० लाख या इससे भी छोटा हो सकता है।
स्थलाकृतिक मानचित्र � स्थलाकृतिक मानचित्रों में अभी प्राकृतिक और कृत्रिम आकृतियाँ विवरण सहित पैमाने के अंदर यथासंभव सुपाठ्य और स्पष्ट रूप दर्शाई जाती हैं। पहाड़ी आकृतियाँ, समतल रेखापद्धति से जिसे समोच्च रेखा कहते हैं, दिखाई जाती हैं। विशेष आकृति वाले स्थलों को औसत समुद्रतल से ऊपर की ऊँचाई के अंक देकर दिखाया जाता है। भौतिक तथा सांस्कृतिक लक्षणों, राजनीतिक तथा प्रशासनिक सीमाओं, आकृतियों और स्थानों के नामों से युक्त होने के कारण ये मानचित्र बहुत व्यापक होते हैं। ये मानचित्र ही विविध पैमानों में भौगोलिक मानचित्र तैयार करने के आधार बनते हैं। विकास के लिये मूल योजनाएँ बनाने में भी इन मानचित्रों का बहुत बड़ा हाथ रहता है। इनका पैमाना एक मील के २.५ इंच से, चार मील, के एक इंच तक हो सकता है (भविष्य में मानक स्थलाकृति मानचित्र माला का पैमाना १:२५००; १:५०,०००; १:१००,०००; और १:२५०,००० होगा)।
भूकर तथा राजस्व मानचित्र � ये मानचित्र राजस्व प्रयोजन के लिये राज्य सरकार द्वार बनाए जाते हैं। इनका उद्देश्य स्थलाकृतिक विशेषताओं के दिखाने को छोड़कर गाँव, शहर, जागीर और व्यक्तिगत भूमि संपत्ति का परिसीमन है। इनका पैमाना प्राय: एक मील के १६ इंच का है। माप का चुनाव १:५०० से १:२५,००० तक हो सकता है और ये काली स्याही में ही छापे जाते हैं।
नगर और कस्बों के दर्शक मानचित्र � जैसा कि नाम से प्रकट है इन मानचित्रों में नगर या कस्ब के सारे विवरण, जैसे सड़क, मकान, नगरपालिका सीमा, सरकारी दफ्तर, अस्पताल, बैंक, सिनेमा, बाजार, शिक्षा संस्थान, अजायबघर, बाग आदि दिखाए जाते हैं। ये मानचित्र स्थानीय संघटनों, परिवहन और नगर विकास समितियों, वाणिज्य संस्थाओं तथा पर्यटकों के लिये उपयोगी होते हैं। पैमाना २४ इंच के १ मील से, ३ इंच के १ मील तक होता है। भविष्य में दर्शक मानचित्रों का पैमाना १:२०,००० तथा १:५००० होगा।
छावनी मानचित्र � ये मानचित्र विशेष रीति से सैनिक इंजीनियरी सेवा और छावनी अधिकारियों के लिये बने होते हैं। इनका पैमाना १६ इंच का एक मील और ६४ इंच का एक मील होता है। भविष्य में पैमाना १:५००० और १:१००० होगा।
विविध मानचित्र � अनेक सरकारी विभागों और संस्थाओं को प्रशासन और विकास कार्यो के लिये विशेष विषयों से संबंधित नक्शे की आवश्यकता होती है। ये नक्शे ही अनेक विशेष अध्ययन के लिए उपयुक्त नक्शे के आधार बनते हैं। इनके उदाहरण हैं : तटीय और सिंचाई मानचित्र, सड़क और रेलवे मानचित्र, भूवैज्ञानिक, मौसमविज्ञान, पर्यटक, नागरिक उड्डयन, टेलीग्राफ ओर टेलीफोन मानचित्र, नैशनल स्कूल और अन्य ऐटलसों के लिये मानचित्र तथा औद्योगिक संयंत्र स्थल आदि के लिए मानचित्र।
विश्व वैमानिक चार्ट आई. सी. ए. ओ. (इंटरनैशनल सिविल एवियेशन ऑगनाइजेशन) १:१०,००,००० उल्लेखनीय है। इसी प्रकार भारतीय सर्वेक्षण द्वारा तैयार किए हुए अंतरराष्ट्रीय असैनिक वैमानिकी के मानचित्र भी महत्व के हैं। इंटरनैशनल सिविल एवियेशन ऑर्गनाइजेशन के सभी सदस्य राष्ट्रों को इन मानचित्रों का तैयार करना आवश्यक है। प्रत्येक सदस्य राष्ट्र अपनी सीमा के अंदर की मानचित्र माला तैयार करने के लिए उत्तरदायी हैं। शैली और विन्यास, मानक संकेत, रंग और संगमन (convention) और तैयारी की विधि की एकरूपता के लिये नियम बने हैं जिनका पालन होता है। इन मानचित्रों का पैमाना अधिकतर १:१०,००,००० होता है। १:२,५०,००० पैमाने के आई. सी. ए. ओ. इंस्ट्रुमेंट ऐप्रोच चार्ट, और संसार के सभी महत्वपूर्ण हवाई अड्डों के पैमाने १:३१,६८० के अवतरण चार्ट इन मानचित्रों के अनुषंगी चार्ट हैं।
प्रक्षेप � पृथ्वी का आकार लगभग गोलीय है। प्रेक्षप निर्धारण के लिए भिन्न देशों में भिन्न आयाम के गोलाभों का उपयोग हुआ है। भारतीय मानचित्रों के लिए स्वीकृत गोलाभ 'एवरेस्ट गोलाभ' है। मानचित्र प्रक्षेप कागज पर पार्थिव संदर्भ रेखाओं के निरूपण द्वारा पृथ्वी की वक्र सतह को समतल पृष्ठ पर निरूपण करने की पद्धति है। सामान्य रूप से ये आक्षांश की समांतर रेखाएँ और देशांतर (याम्योत्तर) की रेखाएँ हैं। ये भूतल की काल्पनिक, किंतु परिशुद्ध गणितीय गणना के योग्य रेखाएँ हैं। यह तो प्रकट ही है कि भूमंडल, जिसका आकार लगभग गोलीय है, समतल पृष्ठ पर ठीक ठीक निरूपित नहीं किया जा सकता। अत: समतल कागज पर पृथ्वी की वक्र सतह के निरूपण के लिये प्रक्षेप का आश्रय लिया जाता है। उद्देश्य के अनुसार त्रुटि और विकृति को इच्छित अंश तक सीमित या दूर हटा दिया जाता है (देखें, प्रक्षेप)।
आकार को बनाए रखने के लिये दो बातों का ध्यान रखना आवश्यक है : (१) देशांतर और अक्षांश रेखाएँ प्रक्षेप में एक दूसरे के लंबवत् हों, (२) किसी निश्चित् बिंदु पर सभी दिशाओं में पैमाना एक हो चाहे वह भिन्न बिंदुओं पर विभिन्न हो। इसे समरूपी प्रक्षेप कहते हैं। भारतीय सर्वेक्षण के मानक मानचित्रों के लिये उचित हेर फेर के साथ समरूपी शंक्वाकार प्रक्षेप प्रयुक्त होते हैं।
सर्वेक्षण विधियाँ � ठीक भौगोलिक स्थिति में भू आकृति के रूपांकन के लिये मानचित्र के क्षेत्र के अंदर ऐसे प्रमुख नियंत्रण बिंदुओं के जाल के प्रथम आवश्यकता है जिनके ग्रीनविच के सापेक्ष सही सही अक्षांश और देशांतर अथवा औसत समुद्रतल से ऊँचाई ज्ञात हो। महान् त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण ने भारत के अधिकांश मानचित्रों के निर्माण में यह कर लिया है। सार रूप में यह चौरस भूमि पर इन्वार (invar) धातु के तार या फीते से सावधानी से नापी हुई लगभग १० मील लंबी जमीन होती है जिसे 'आधार' कहते हैं।
आधार की स्थापना के बाद उसपर एक के बाद एक उपयुक्त भुजा और कोण के त्रिभुजों की माला रची जाती है। त्रिभुजों के कोणों का निरीक्षण कर भुजा तथा बिंदुओं के नियामकों की गणना कर ली जाती है। इसे त्रिकोणीय सर्वेक्षण कहते हैं। त्रिभुजों का जाल सर्वेक्षण में सर्वत्र फैला होता है। मुख्य उपकरण काच चाप थियोडोलाइट है जिसमें ऊर्ध्वाधर तथा क्षैतिज कोणों को चाप के एक सेकंड अंश या इससे भी कम तक सही पढ़ने की क्षमता होती है। ये बिंदु काफी दूर दूर होते हैं। अत: विस्तृत सर्वेक्षण संभव नहीं। इसके लिए यह आवश्यक है कि महान् त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण के बड़े त्रिभुजों को तोड़कर छोटे छोटे त्रिभुजों का जाल बनाकर सारी जमीन को कुछ मील के अंतर पर स्थित बिंदुओं की माला में परिणत कर दिया जाए।
पटल चित्रण � इच्छित पैमाने पर प्रेक्षप बनाया जाता है। प्रक्षेप में नियंत्रण बिंदु अंकित किए जाते हैं। इन बिंदुओं से प्रतिच्छेदन और स्थिति निर्धारण (inter secting and resecting) द्वारा पटलचित्रण और दृष्टिपट्टी की सहायता से विस्तृत सर्वेक्षण किया जाता है। इसे पटल चित्रण (Plane tabling) कहते हैं। भारतीय प्रवणतामापी (clinometers) नामक यंत्र के अतिरिक्त ऊँचाई निश्चित की जाती है। ऊँचाई से निश्चित ऊर्ध्वाधर अंतराल पर तलरेखा तक जिसे समोच्च रेखा कहते हैं, खींचे जा सकते हैं, जो भूमि की धराकृति अच्छी तरह प्रदर्शित करते हैं।
हवाई सर्वेक्षण � गत ३० वर्षो में सर्वेक्षण के क्षेत्र में प्रविष्ट, अत्यंत प्रभावकारी विधि हवाई फोटोग्राफ की विधि है। सैनिक और असैनिक उपयोगिता की दृष्टि से हवाई फोटोग्राफी का महत्व प्रथम विश्वयुद्ध काल में ही अनुभव किया जाने लगा था तथा सर्वेक्षण और मानचित्र निर्माणकार्य में इसका उपयोग सर्वप्रथम १९१६ ई. में इंग्लैंड में ऑर्डनांस सर्वे की युद्धोत्तरकालीन योजना में हुआ। तब से यूरोपीय देशों तथा उत्तरी अमरीका में इस दिशा में आश्चर्यजनक प्रगति हुई। अब तो हवाई फोटोग्राफी या फोटोग्राफी द्वारा सर्वेक्षण एक अनूठी वैज्ञानिक प्रविधि है। हवाई फोटोग्राफ द्वारा सर्वेक्षण की दो विधियाँ हैं : लेखाचित्रीय और यांत्रिकी।
लेखाचित्रीय विधि � भारत में लेखाचित्रीय विधि का कुछ वर्षों से अत्याधिक उपयोग हो रहा है और जहाँ तक स्थलाकृतीय मानचित्र अंकन का प्रश्न है, यह विधि लगभग पूर्णता प्राप्त कर चुकी है। इसका आधारभूत सिद्धांत यह है वास्तविक ऊर्ध्वाधर हवाई फोटोग्राफ में विकिरण रेखाएँ, जो फोटोग्राफ में थल बिंदु तक फैली होती हैं, यथार्थ और स्थिर कोण बनाती हैं। आकृतियों का उच्चता विस्थापन (height displacements) मानचित्र के समतल में दृष्टि बिंदु से ठीक नीचे स्थित एक बिंदु से (जिसे अवलंब बिंदु (Plumb line) कहते हैं और जो व्यवहार में वास्तविक ऊर्ध्वाधर फोटो (true vertical photograph) का केंद्र माना जाता है) अरीय होते हैं जिससे विवरण, मानचित्र समतल के बाहर उसकी ऊचाई और अवलंब बिंदु से दूरी के ठीक अनुपात में वास्तविक मानचित्र स्थिति से विस्थापित हो जाता है। अभीष्ट शक्ल फोटो प्राप्त कर लेने के बाद त्रिकोणकरण द्वारा के ठीक अनुपात में वास्तविक मानचित्र स्थिति से विस्थापित हो जाता है। अभीष्ट शक्ल फोटो प्राप्त कर लेने के बाद त्रिकोणकरण द्वारा निश्चित निंयत्रण बिंदुओं की सहायता और फोटो के अरीय गुण का उपयोग कर प्रक्षिप्त पत्रों पर, जिनका जिक्र हो चुका है, ठीक भौगोलिक स्थिति में फोटो के केंद्र अंकित किए जाते हैं। प्रत्येक फोटो के अरीय गुण का उपयोग कर विविध विवरणों का प्रतिच्छेदन उनकी सही स्थिति निश्चित की जाती है। लेखाचित्रीय विधि की सबसे बड़ी समस्या फोटो से परिशुद्ध उच्चता ज्ञात करना है। इस कठिनाई के कारण प्राय: भूमि सर्वेक्षण विधियों में पूरक उच्चता नियंत्रण का घना जाल बनाया जाता है। इस मार्गदर्शक उच्चताओं की सहायता से त्रिविमदर्शी (stereoscope) के नीचे रखकर फोटो पर समोच्च रेखाएँ खींचकर उन्हें मानचित्र पत्र पर लगा दिया जाता है।
यांत्रिक विधि � उद्भासन (Exposure) के समय कैमरा के प्रकाशाक्ष के ऊर्ध्वाधर न होने के कारण उपर्युक्त लेखाचित्रीय विधि से त्रुटिमुक्त मानचित्र नहीं बनते। यांत्रिक संकलन (mechanical compilation) त्रिविम आलेखन उपकरण (stereoscopic plotting instruments) में होता है जिससे फोटो ठीक उसी स्थिति में उलटते, झुकते और घूम जाते हैं जिसमें उद्भासन के समय विमान था। ये उपकरण वायुसर्वेक्षण समस्याओं का ठीक समाधान कर देते हैं जब कि लेखाचित्रीय विधियाँ सन्निकट समाधान प्रस्तुत करती हैं। भारत में आजकल काम आनेवाले आलेखन उपकरण हैं : वाइल्ड ऑटोग्राफ ४७, वाइल्ड ४८, मल्टीफ्लेक्स और स्टीरोटोप।
शुद्ध रेखण � पूर्वोक्त विधियों से विभिन्न सर्वेक्षण खंडों का फोटो लेकर काली छाप तैयार की जाती है। इन्हें पृथक्-पृथक् मानचित्रों द्वारा संकलित (mosaiced) कर लिया जाता है। इन संकलनों के बनाने में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए, ताकि सर्वेक्षणों की परिशुद्धता बनी रहे। काली छाप को मानचित्र प्रक्षेप पर जिसपर कि त्रिकोणमितीय ढाँचा अंकित है, जोड़ा जाता है। यह इसलिए कि सर्वेक्षण का प्रत्येक भाग ठीक मानचित्रित स्थितियों में जम जाए। इस प्रकार संकलन को अंतिम प्रकाशन (final publication) के डेढ़गुने आकार में फोटो चित्रित किया जाता है और एक अच्छे रेखणपत्र पर नीली छापों (blue print) का संग्रह प्राप्त कर लिया जाता है। परिवर्धन का कारण यह है कि अंतिम प्रकाशन में रेखाकृति (line work) की स्पष्टता और सुंदरता में वृद्धि हो।
मानचित्र में विवरण की जटिलता के कारण विविध प्राकृतिक तथा कृत्रिम आकृतियाँ सुपष्टता की दृष्टि से प्रभेदक रंगों (distinctive colours) में प्रस्तुत की जाती हैं। मौलिक रूप से जलाकृतियों के लिए नीला, पहाड़ी तथा मरुस्थल के लिए भूरा या उससे मिलता जुलता, वनस्पति के लिए हरा, कृषि क्षेत्र के लिए पीला, सड़क और बस्तियों के लिए लाल, पहाड़ी आकृति और अन्य विवरणों, जैसे स्रोत, रेलवे आदि के लिए काले रंग का उपयोग किया जाता है। अनुषंगी विषयों जैसे सीमा पट्टी, जल आदि के लिए अन्य रंगों का उपयोग करते हैं। अच्छे रेखांकन के लिए तीन नीली छाप चाहिए। पहाड़ी तथा मरुभूमि की समोच्च रेखा खींचने के लिए एक नीली छाप काम आती है। दूसरी नीली छाप से वन भूमि, छितरे वृक्ष, तरकारियों, चाय बगानों आदि वनस्पतियों का चित्रण होता है। तीसरी नीली छाप अन्य विवरणों तथा नामों के काम आती है। अच्छे रेखांकन के लिए नक्शावीसी में कुशलता तथा प्रवीणता होनी चाहिए और परिशुद्ध तथा सुरेख मूल तैयार करने के लिए धैर्य परमावश्यक है। मानचित्र की चरम सुंदरता, सुपठ्यता और परिशुद्धता इस विधि पर निर्भर है।
मानचित्र संकलन � छोटे पैमाने पर स्थलाकृतिक तथा भौगोलिक मानचित्र सामान्यत: बड़े पैमाने के नक्शों से संकलित किए जाते हैं। विवरण का इच्छित परिमाण चुन लिया जाता है और प्रकाशित मानचित्रों पर गहरी रेखाओं से अंकित कर दिया जाता है। इन अंकित मानचित्रों का फोटो रेखाचित्र के प्रस्तावित पैमाने पर लिया जाता है। इस घटाए गए पैमाने पर काली छापें ली जाती हैं और उन्हें कागज के ऐसे तख्ते पर जोड़ा जाता है जिसपर संकलित मानचित्र की सीमारेखाएँ शुद्धता से प्रक्षिप्त की गई हों। इस संकलन से रेखण की सामग्री ली जाती है और पूर्ववर्ती पैराग्राफ में वर्णित विधि से उसका शुद्ध रेखण चित्रण किया जाता है।
छपाई की विधियाँ � १८३० ई. के पूर्व भारत में मानचित्र तैयार करने की एक ही विधि थी � हाथ से नकल करने की, जो बहुत मंद और खर्चीली थी। ताँबे पर मानचित्र की नक्काशी सम्भव थी, किंतु भारत में बहुत थोड़े खासगी नक्काश थे और रेनेल के समय से ही नक्काशी का कार्य लंदन में होता था।
फोटोजिंको छपाई � १८२३ ई. के बाद भारत में लिथो मुद्रण का प्रारंभ हुआ ओर कलकत्ते में एक सरकारी मुद्रणालय स्थापित हुआ। मानचित्र मुद्रण के लिए इसका बहुत कम उपयोग था लेकिन कलकत्ते में निजी मुद्रणालयों में कई सर्वेक्षण मानचित्र लिथो द्वारा मुद्रित हुए १८५२ ई. में महासर्वेक्षक के कलकत्ता स्थित कार्यालय में मानचित्र मुद्रण कार्यालय स्थापित हुआ और १८६६ ई. में देहरादून में एक और मुद्रणालय (फोटोजिंको मुद्रणालय) चालू हुआ। महासर्वेक्षक के कार्यालय में मानचित्र मुद्रण तथा विक्रय की द्रुत प्रगति हुई और १८६८ ई. से मानचित्रों का मुद्रण के लिये इंग्लैंड जाना बंद हो गया। तब से लिथो मुद्रण प्रगति कर रहा है और अब तो वह एक वैज्ञानिक विधि के रूप में विकसित हो गया है। इस विधि मे जस्ते के प्लेट काम में आते हैं जिनसे रोटरी ऑफसेट मशीनें प्रति घंटे हजारों प्रतियाँ छाप सकती हैं।
पूर्ववर्ती पैराग्राफों में वर्णित विधि से शुद्ध रेखन द्वारा प्राप्त तीन मूल रेखाचित्रों का सही पैमाने पर फोटो लिया जाता है और काच के प्लेटों पर 'गीली प्लेट' विधि द्वारा उनके निगेटिव (प्रतिचित्र) तैयार किए जाते हैं। तीसरे शुद्ध रेखित मूल के निगेटिव से, जिसमें शेष विवरण का समावेश होता है, 'चूर्ण विधि' द्वारा द्वितीय प्रतिलिपि प्राप्त की जाती है। सार रूप में इस विधि से विलग रंग निगेटिव प्राप्त करने के लिए सस्ता प्रतिकृत निगेटिव प्राप्त किया जाता है। इस विधि से तैयार किए तीन निगेटिवों में से एक पर वे सभी विवरण फोटोपेक से आलेपित कर लिए जाते हैं जिन्हें नीले और लाल रंग में दिखाना होता है, केवल वे ही विवरण उसपर रहने देते हैं जिन्हें काले रंग में छापना है। इसी प्रकार अन्य दो निगेटिवों पर केवल वे ही विवरण रहने देते हैं जिन्हें क्रमश: नीले और लाल में प्रस्तुत करना होता है और अन्य विवरणों को आलेपित कर दिया जाता है। इन तीन निगेटिवों के परिणाम जस्ते के प्लेटों पर अंतरित कर लिए जाते हैं। ये प्लेट क्रमश: काले, लाल और नीले विवरण के लिए छपाई के प्लेट हो जाते हैं।
रोटरी ऑफसेट छपाई � छपाई प्रारंभ करने के पूर्व यह आवश्यक है कि उन त्रुटियों को पूरी तरह ठीक कर दिया जाए जो जस्ते के प्लेट की तैयारी के लिए की गई विविध प्रक्रियाओं में प्रविष्ट हो गई हों। इसके लिए प्रमाणक मशीन पर एक प्रूफ प्रति समय रंगों में तैयार की जाती है। प्लेटों के प्रमाणित होने पर उन्हें छपाई मशीनों में रखा जाता है। आजकल कई प्रकार की आधुनिक छपाई मशीनें उपयोग में हैं, किंतु आधुनिक छपाई के अनिवार्य यंत्र 'स्वचालित भरण' (Automatic feed) और 'रबर ऑफसेट' हैं। दूसरे शब्दों में यंत्र में कागज का भरण यंत्र के अपने भरण साधन से होता है। जस्ते के प्लेट से छाप रबर के आवरण पर अंतरित कर देता है। कागज और छपाई प्लेट के सीधे सम्पर्क से जैसी छाप प्राप्त होती है उससे उन्नत और तीव्रतर छाप ऑफसेट विधि से प्राप्त होती है। प्रत्येक कागज के तख्ते को कई बार मशीन में से गुजरना पड़ता है। यह संख्या प्लेटों की संख्या निर्भर है और प्लेटों की पर संख्या अंतिम मानचित्र में रंगों की संख्या पर निर्भर है। आधुनिक मशीनों में अधिकतर दो रोलर होते हैं। दो रोलरों से एक साथ दो रंगों में दो प्लेटों की छपाई हो सकती है।
भारतीय सर्वेक्षण विभाग में मानचित्र उत्पादन के आँकडे � भारतीय सर्वेक्षण विभाग निम्नलिखित कोटि और प्रकार के मानचित्रों की तैयारी और देखभाल करता है :
स्थलाकृतिक मानचित्र � (क) समूचे भारत की व्याप्ति, १:५०,००० पैमाने पर। (ख) १:२,५०,००० पैमाने पर मानचित्रों की माला में भारत की पूर्ण व्याप्ति।
अंतरराष्ट्रीय मानचित्र � (क) भारत के लिए अंतरराष्ट्रीय विशिष्टियों पर १:१०,००,००० कार्टे इंटरनैशनल ड्यू मांड मानचित्र माला� विश्वव्याप्ति के एक भाग के रूप में। (ख) आई. सी. ए. ओ. विशिष्टयों के एक भाग के रूप में १:१०,००,००० आई. सी. ए. ओ. मानचित्र। (ग) भारत के हवाई अड्डों के 'इंस्ट्रमेंट' ऐप्रोच चार्ट पैमाना १:२,५०,००० (घ) २ इंच में १ मील (१:३१,६८०) पैमाने पर भारत के हवाई अड्डों का अवतरण चार्ट (मीट्रिक माप १:३०,००० होगी)। (च) प्रधान हवाई अड्डों के लिए १:१२,००० और लघु हवाई अड्डों के लिए १:२०,००० पैमाने पर अवरोध चार्ट।
भौगोलिक मानचित्र � (क) दक्षिणी एशिया माला; पैमाना १:२०,००,०००, (ख) भारत और सीमावर्ती देशों का मानचित्र तथा (ग) भारत का सड़क मानचित्र, पैमाना १:२,५०,०००, (घ) भारत का रेलवे मानचित्र, पैमाना १ इंच से ६७.०८ मील (मीट्रिक माप १:३५,००,०००)। (च) भारत का राजनीतिक मानचित्र, (छ) भारत का प्राकृतिक मानचित्र तथा (ज) भारत के पर्यटक मानचित्र, पैमाना १ इंच में ७० मील (मीट्रिक माप १:४०,००,०००); (झ) भारत और सीमावर्ती देशों का मानचित्र, पैमाने १ इंच में १२८ मील (मीट्रिक माप १:८०,००,०००), (ट) भारत और सीमावर्ती देशों का मानचित्र, पैमाने १ इंच मे १९२ मील (मीट्रिक माप १:१,२०,००,०००), (ठ) भारत और सीमावर्ती देशों का मानचित्र, पैमाना १:१०,००,०००, (ढ) चार इंच से एक मील पैमाने पर चुने क्षेत्र के वन मानचित्र (मीट्रिक माप १:२५,००१)।
विविध मानचित्र � (क) भारत के प्रमुख नगरों एवं कस्बों के संदर्शक मानचित्र विविध पैमाने के; (ख) तदर्थ आधार पर केंद्रीय और राज्य सकार के विभागों के लिए बहुप्रयोजनी योजना मानचित्र तथा (ग) सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं के लिए अन्य विविध विभागीय मानचित्र।
विविध मानचित्र को छोड़कर १९०५ ई से अब तक फुट पाउंड पद्धति पर छपे हुए अन्य मानक मानचित्र मालाओं की संख्या लगभग ३,६०० है और हर २५ से ४० वर्षो में इनका बराबर पुनरीक्षण होता है।
भारतीय सर्वेक्षण विभाग का संगठन � अनेक प्रकार के मानचित्रों की तैयारी और सर्वेक्षण के लिए भारतीय सर्वेक्षण विभाग का संगठन नीचे दिया गया है :
भारत का महासर्वेक्षक जो सैनिक सर्वेक्षण का निदेशक भी होता है, इसका प्रशासनिक और तकनीकी नियंत्रण करता है। महासर्वेक्षक का मुख्य कार्यालय देहरादून में है और उसका कार्यालय उपमहासर्वेक्षक के अधीन है जो निदेशक की कोटि का होता है। वह भारत के महासर्वेक्षक का सहायक होता है और विभाग के तकनीकी काम, बजट और विनिमय, एवं भंडार का उत्तरदायी होता है। अधीक्षक सर्वेक्षक की कोटि का एक अफसर और होता है जिसके पद का नाम सहायक महासर्वेक्षक है और वही तकनीकी काम और विभाग की नित्यचर्या प्रशासन का उत्तरदायी होता है।
स्थलाकृतिक मंडल निम्नलिखित हैं : (१) मानचित्र प्रकाशन कार्यालय, (२) भूगणितीय तथा अनुसंधान शाखा, (३) हवाई सर्वेक्षण और प्रशिक्षण निदेशालय। भूगणितीय तथा अनुसंधान शाखा को छोड़कर, जो उपनिदेशक के नियंत्रण में हैं, शेष सभी मंडल निदेशालय निदेशक के नियंत्रण में हैं। ये सभी भारत के महासर्वेक्षक के समक्ष उत्तरदायी हैं। प्रत्येक निदेशक के अधीन एक उपनिदेशक होता है जिसके अधीन विविध क्षेत्रीय हवाई सर्वेक्षण और फोटो माप सर्वेक्षण दल और प्राय: एक रेखन कार्यालय होता है। कुल तीन मानचित्र पुन: रचना कार्यालय हैं : दो देहरादून में निदेशक, मानचित्र प्रकाशन के अधीन और एक कलकत्ते में निदेशक, पूर्वी मंडल के अधीन।
निदेशक मानचित्र प्रकाशन � इसका मुख्यालय देहरादून में है। इसके अधीन एक रेखन कार्यालय, दो मानचित्र पुनरंचना कार्यालय (हाथी बरकला लिथो आफिस और फोटोजिको कार्यालय, छपाई कार्यालय को सम्मिलित करके), एक मानचित्र संग्रह तथा निकास कार्यालय ओर एक लघु मोटर परिवहन वर्कशाप है। यह निदेशक मानचित्र संबंधी नियम और नीति के निर्धारण मे भारतके महासर्वेक्षक का परामर्शदाता है। वह इस बात का उत्तरदायी है कि सब विभागीय मानचित्रों का रेखन और छपाई के काम का ठीक समन्वय करता है। सभी भौगोलिक मानचित्रों का रेखन, रेखन कार्यालय सं. १ में होता है जो इसके अधीन हैं। मानचित्र विक्रय, नई दिल्ली का संचालन भी यही निदेशालय करता है।
निदेशक, उत्तरी मंडल � इसका मुख्यालय देहरादून में है। वह उत्तर भारत के जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरप्रदेश और पंजाब तथा मध्यप्रदेश के भागों के कुछ स्थलाकृतिक, छावनी, वन और आयोजन सर्वेक्षण के लिए उत्तरदायी है। इसकी देखरेख में देहरादून में एक रेखन कार्यालय और कई क्षेत्रीय दल हैं।
निदेशक, पूर्वी मंडल � इसका मुख्यालय कलकत्ता में है। पूर्वी भारत में उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, बिहार, असम (नेफा सहित), सिक्किम, भूटान, अंदमन और निकोबार द्वीप के सर्वेक्षण और मानचित्र बनाने के लिये उत्तरदायी है। इसके अधीन एक मंडल रेखन कार्यालय, एक मुद्रण कार्यालय और कई क्षेत्रीय दल हैं।
निदेशक, पश्चिमी मंडल � इसका मुख्यालय आबु में है। यह राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र राज्यों के सर्वेक्षण और मानचित्र बनाने के लिए उत्तरदायी है। इसके अधीन एक रेखन कार्यालय और कई क्षेत्रीय दल हैं।
निदेशक, हवाई सर्वेक्षण और प्रशिक्षण निदेशालय � इसका मुख्यालय देहरादून में है। यह हवाई सर्वेक्षणों के आयोजन और क्रियान्वयन के लिए उत्तरदायी है और उस कार्य का नियंत्रण करता है जो फोटोमापी सर्वेक्षण की आलेखन मशीनों पर बहुत मितव्ययिता से हो सके। वह सभी अफसरों और विभाग के कुछ कर्मचारीवृंद के प्रशिक्षण के लिये भी उत्तरदायी है। उसके अधीन दो प्रशिक्षण दल तथा कई फोटोमापी सर्वेक्षण के दल कार्य करते हैं।
उपनिदेशक, भूमगणितीय तथा अनुसंधानशाखा � इसका मुख्यालय देहरादून में है। यद्यपि इसके पद का नाम उपनिदेशक है, तथापि इसे निदेशक के सभी प्रशासनिक अधिकार प्राप्त हैं। यह भारत भर में सभी भूगणितीय और भूभौतिकीय (Geophysical) सर्वेक्षणों के लिए उत्तरदरायी है। इसके कार्य के अंतर्गत हैंश् : उच्च परिशुद्ध, प्रधान और गौण तलेक्षण तथा ज्वारीय प्रेक्षण। वह भूगणितीय और भूभौतिकीय अनुसंधान कार्य, विभागीय कार्य, अनुषंगी तालिकाओं (auxiliary tables) और गणना फार्म तैयार कराने के लिए उत्तरदायी है। इसके अधीनस्थ एक गणना दल, एक ज्वारीय दल, एक भूभौतिकीय दल और अन्य क्षेत्रीय दल हैं। देहरादून में इसके अंतर्गत वेधशालाएँ और एक वर्कशॉप भी है।
भारतीय सर्वेक्षण के मानचित्रों का विक्रय � मानचित्रों को सीधे ही भारतीय सर्वेक्षण विभाग के देहरादून, कलकत्ता, बेंगलूर और दिल्ली के कार्यालय से मोल लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त मानचित्र भारत कें सर्वत्र स्थापित मानचित्र विक्रय एजेंसियों से भी खरीदे जा सकते हैं, जो सारे देश में विख्यात पुस्तक विक्रेताओं और प्रकाशकों को दी गई हैं। भारतीय सर्वेक्षण के मानचित्र विक्रय कार्यालय इन पतों पर हैं :
मैप रिकार्ड ऐंड इशू ऑफिस, हाथीबरकला, देहरादून। मैप रिकार्ड ऐंड इशू ऑफिस, १३, वुड स्ट्रीट, कलकत्ता। सदर्न सर्कल, सर्वे ऑव इंडिया, २२, रिचमंड रोड, बेंगलूर। मानचित्र विक्रय विभाग, जनपथ बैरक्स, फ्लोर 'ए', नई दिल्ली। (राजिंदर सिंह काल्हा)