भाप इंजन (Steam Engine) ऊष्माशक्ति से यांत्रिक शक्ति का उत्पादन ऊष्मा इंजन (heat engine) द्वारा होता है। ऊष्मा इंजन मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं : अंतर्दहन इंजन (internal combustion egine) और बाह्यदहन इंजन (external combustion engine)। बाह्यदहन इंजन का सर्वोत्तम उदाहरण है, भापइंजन। गरम जलवाष्प द्वारा चलनेवाले इंजन को 'भाप इंजन' कहते हैं एवं इस तरह के इंजन भाप की ऊष्माशक्ति से यांत्रिक शक्ति का उत्पादन करते हैं।

संक्षिप्त इतिहास ¾ भाप इंजन के आविष्कार का श्रेय सर जेम्स वाट को है, किंतु इस विषय के प्राप्त लेखों से सर्वेक्षण करने के पश्चात् पता चलता है कि न्यूकोमेन नामक वैज्ञानिक ने बहुत पहले भाप द्वारा चलनेवाले एक इंजन का निर्माण किया था एवं उसकी सहायता से कुएँ से जल निकाला था। कुछ लोग जेम्स वाट को इस प्रकार के इंजन का प्रथम अविष्कार नहीं मानते हैं क्योंकि जेम्स वाट से करीब ७५ वर्ष पूर्व पेपिन नामक वैज्ञानिक ने भी एक ऐसा इंजन बनाया था जो भाप द्वारा कार्य करता था और इसके लिए उसने एक पिस्टन (piston) और एक सिलिंडर (cylinder) का उपयोग किया था। इस सिलसिले में विशेषज्ञों का मत है कि सर जेम्स वॉट ने न्यूकोमेन के इंजन के सिद्धांत के आधार पर ही एक बृहदाकार इंजन बनाया था, जिसमें बहुत सी विशेषताएँ थीं। जेम्स वाट के इंजन में कुछ सुधार पर जॉर्ज स्टीवेंसन ने रेलगाड़ी का इंजन बनाया और सर्वप्रथम १८२५ ई. में रेलगाड़ी चलाई। तब से भाप इंजन में विभिन्न प्रकार के सुधार होते रहे हैं।

भ्ााप्ा इंजन के प्रकार ¾ भाप इंजन के निम्नलिखित मुख्य प्रकार हैं :

(क) एक एवं द्वि-क्रिया इंजन (single and double acting engine) ¾ एक क्रिया इंजन में भाप पिस्टन के एक ही ओर कार्य करती है एवं द्विक्रिया इंजन में भाप पिस्टन के दोनों ओर कार्य करती है। यदि इन दोनों प्रकार के इंजनों में अन्य सभी अवस्थाएँ समान हों, तो द्वि-क्रिया इंजन द्वारा प्राप्त शक्ति दूसरे प्रकार के इंजन द्वारा प्राप्त शक्ति की दूनी होती है। यही कारण है कि इन दिनों एक क्रिया इंजन कम ही व्यवहार में लाया जाता है।

(ख) ऊर्ध्वाधर एवं क्षैतिज इंजन ¾ सिलिंडर की धुरी के ऊर्ध्वाधर या क्षैतिज होने के अनुसार इंजन ऊर्ध्वाधर या क्षैतिज कहा जाता है। क्षैतिज इंजन ऊर्ध्वाधर इंजन से अधिक जगह घेरता है। ऊर्ध्वाधर प्रकार के इंजन में घर्षण आदि कम होता है, जिसके कारण यह क्षैतिज इंजन की तुलना में अधिक दिन तक चल सकता है।

(ग) निम्न एवं उच्च चाल इंजन (Low and high speed engine) ¾ भाप इंजन की चाल वस्तुत: इसके क्रैंक शैफ्ट (crank shaft) के परिक्रमण (revolutions) की प्रति मिनट की चाल होती है। चार फुट पिस्टन स्ट्रोक (piston stroke) एवं ८० परिक्रमण प्रति मिनट वाले इंजन में औसत पिस्टन चाल ६४० फुट प्रति मिनट होगी यह इंजन निम्न चाल इंजन कहा जाएगा। साधारणत: १०० परिक्रमण प्रति मिनट की चाल से कम चाल पर चलनेवाले इंजन को निम्न चाल इंजन कहते हैं एवं २५० परिक्रमण प्रति मिनट की चाल से अधिक चाल पर चलनेवाले इंजन को उच्च चाल इंजन कहते हैं। १०० और २५० परिक्रमण प्रति मिनट के बीच की चाल पर चलनेवाले इंजन को 'मध्यम चाल इंजन' (medium speed engine) कहते हैं। उच्च चाल इंजन का सबसे बड़ा गुण यह है कि समान शक्ति के लिए यह बहुत ही छोटे आकार का होता है। उच्च चाल के कारण भाप भी कम ही खर्च होती है, क्योंकि इस प्रकार के इंजन में भाप और सिलिंडर के बीच ऊष्मा स्थानांतरण (heat transfer) में बहुत ही कम समय लगता है।

(घ) संघनन और असंघनन इंजन ( Condensing and noncondensing engine) ¾ असंघनन इंजन वह भाप इंजन है जिससे भाप का निकास (exhaust) सीधे वायुमंडल की दाब से कभी कम नहीं होनी चाहिए। संघनन इंजन में भाप कार्य करने के बाद संघनित्र में प्रवेश करती है एवं वहाँ वह वायुमंडल की दाब से बहुत ही कम दाब पर जल में परिवर्तित हो जाती है। संघनित्र का व्यवहार करने से भाप अधिक कार्य कर पाती है।

(च) सरल एवं संयोजी इंजन (Simple and compound engines) ¾ सरल इंजन में प्रत्येक सिलिंडर बॉयलर से सीधे भाप पाता है एवं सीधे वायुमंडल या संघनित्र में निकास (exhaust) करता है। संयोजी इंजन में भाप एक सिलिंडर में, जिसे उच्च दाब सिलिंडर कहते हैं, कुछ हद तक प्रसारित होती है और उसके बाद उससे कुछ बड़े सिलिंडर में, जिसे निम्न दाब सिलिंडर कहते हैं, प्रवेश करती है एवं यहाँ प्रसार की क्रिया पूर्ण होती है। बहुधा निम्न दाब सिलिंडर संघिनित्र में निकास करता है। प्रसार तीन या चार सिलिंडर में भी हो सकता है एवं इन इंजनों को त्रिप्रसार इंजन (triple expansion engine) या चतुष्प्रसार इंजन (quadruple expansion engine) कहते हैं।

प्रत्यागामी इंजन की यंत्रावली ¾ (Reciprocating engine mechanism) ¾ चित्र १. में इंजन के विभिन्नश् पुर्जे दिखाए गए हैं। सिलिंडर (१) फ्रेम (frame) (२) के एक ओर बोल्ट (bolt) द्वारा बँधा रहता है। सिलिंडर ढक्कन (cylnder cover) (३) सिलिंडर के दूसरी ओर बोल्ट द्वारा बँधा रहता है। सिलिंडर से ऊष्मा संचार को कम करने के लिए अचालक (non-conductor) परिवेष्टन (lagging) (४) द्वारा सिलिंडर को चारों ओर से ढँक दिया जाता है। इस परिवेष्टन को इस्पात की चादर (५) से लपेट दिया जाता है ताकि बाहर से देखने में अच्छा लगे। पिस्टन (६) पिस्टन दंड (७) कै एक ओर लगा रहता है, जो भरण बक्स (stuffing box) (८) के अंदर से चलता है। क्रॉस हेड (cross head) (९) पिस्टन दंड के दूसरी ओर लगा रहता है और गाइड (guide) (१०) पर टिका रहता है। योजक दंड (connecting rod) (११) का एक किनारा क्रॉस हेड से गजन पिन (gudgeon pin) (१२) द्वारा जोड़ा रहता है। इसका दूसरा किनारा क्रैंक (crank) (१३) द्वारा बँधा रहता है। क्रैंक शैफ्ट (crank shaft) (१४) से क्रैंक पिन (crank pin) (१५) इंजन का मुख्य पुर्जा है। यह मुख्य बेयरिंग (bearing) (१६) में चलता है। इंजन में व्यवहृत स्नेहक तेल (lubricating oil) आदि इंजन के फ्रेम के आधार के पास इकट्ठा किए जाते हैं (१७)। भाप द्वारों (ports) (१८) द्वारा सिलिंडर में प्रवेश करती हैं, या इससे बाहर निकलती है।

भाप इंजन का कार्यसिद्धांत (working principle) ¾ ऊष्मा इंजन की अधिकतम दक्षता (ता-ता) ता [T1-T2)/T1] होती है जिसमें ता (T1) और ता(T2) ऊष्मा इंजन चक्र (heat engine cycle) में अधिकतम एवं न्यूनतम ताप हैं। इससे पता चलता है कि इंजन की दक्षता इन दोनों तापों पर निर्भर करती है। भाप इंजन की दक्षता उतनी ही बढ़ती जायगी जितनी ता (T1) का मूल्य बढ़ेगा एवं ता (T2) का मूल्य घटेगा। ता (T1) के मूल्य को बढ़ाने के लिए बायलर से निकलकर इंजन में आनेवाली भाप की दाब को बढ़ाना होगा, क्योंकि भाप की दाब जितनी ही अधिक होगी ता (T1) का मूल्य उतना ही बढ़ेगा। ता (T1) को बढाने का एक और उपाय है। वह है भाप को अतितापित करना। अतितापक का बॉयलर में व्यवहार करके भाप का अधिताप बढ़ाया जाता है। ता (T2) के मान को कम करने के लिए संघनित्र का व्यवहार करना आवश्यक हो जाता है। संघनित्र में ठंडे जल द्वारा भाप जल में परिवर्तित की जाती है। अत: अच्छे संघनित्र में ता (T2) का मान ठंढे जल के ताप के बराबर हो सकता है। इससे पता चलता है कि भाप इंजन में अधिक दाब एवं अधिक अतितप्त भाप द्वारा कार्य कराने से एवं कार्य कराने के बाद भाप को संघनित्र में प्राप्य ठंडे जल के ताप के बराबर ताप पर जल में परिवर्तित करने से इंजन अधिक दक्ष होगा।

बॉयलर से भाप उच्च दाब पर भापपेटी (steam chest) में प्रवेश करती है। पिस्टन जैसे ही स्ट्रोक (stroke) के अंत में पहुँचता है, उस समय वाल्व चलता है, जिससें भापद्वार (steam port) खुल जाता है एवं भाप सिलिंडर में प्रवेश करती है। भाप की दाब द्वारा धक्का दिए जाने से पिस्टन आगे बढ़ता है। इसे अग्र स्ट्रोक (forward stroke) कहते हैं। पिस्टन की चाल द्वारा क्रैंक, क्रैंक शाफ्ट एवं उत्केंद्रक (eccentric) चलते हैं। उत्केंद्रक के चलने से द्वार कुछ और अधिक खुल जाता है। सिलिंडर में भाप जब तक प्रवेश करती रहती है जब तक द्वार एकदम बंद नहीं हो जाता। इस समय विच्छेद (cut off) होता है एवं इसके बाद सिलिंडर में भाप का संभरण (supply) नहीं हो पाता। सिलिंडर में आई हुई भाप अब प्रसारित होती है एवं इस प्रसार के समय भाप कार्य करती है। अग्र स्ट्रोक के अंत में वाल्व भाप द्वार को निकास की ओर खोल देता है, जिससे भाप निर्मुक्त होती है। निकली हुई भाप की दाब पश्च दाब (back pressure) के बराबर हो जाती है। निर्मोचन होने के कुछ क्षण के बाद पिस्टन पीछे की ओर लौटता है एवं इसे प्रत्यार्वतन स्ट्रोक के अंत पर पहुँचता है, वाल्व निकास द्वार को बंद कर देता है, जिससे भाप का प्रवाह बंद हो जाता है। सिलिंडर शीर्ष और पिस्टन के बीच कुछ भाप बच जाती है, जो निर्मुक्त नहीं हो पाती है। फिर चक्र की पुनरावृत्ति होती है।

द्वि-क्रिया इंजन में इसी के सदृश चक्र की क्रिया सिलिंडर की दूसरी ओर होती है।

भाप का कार्नों चक्र (Carnot cycle) ¾ गैस के कार्नों चक्र में दो रुद्धोष्म (adiabatic) एवं दो स्थिर ताप वाली क्रियाएँ होती हैं। भाप को व्यवहृत करने पर दो स्थिर ताप वाली क्रियाएँ स्थिर दाब की क्रियाएँ हो जाती हैं, क्योंकि जल या भाप को स्थिर ताप पर रखने के लिए दाब को भी स्थिर रखना होगा। चित्र २. में भाप का कार्नों चक्र दर्शाया गया है। बिंदु अ से आरंभ करने पर चक्र की ये चार क्रियाएँ हैं : (१) बिंदु अ पर जल ता (T1) ताप एवं द (P1) दाब पर रहता है। यह जल स्थिर ताप पर गरम किया जाता है। जल धीरे धीरे भाप में परिवर्तित होता जाता है। जब वाष्पीकरण पूरा हो जाता है तब भाप की अवस्था बिंदु ब से एवं यह क्रिया 'अ ब से है। (२) बिंदु ब पर ऊष्मा का प्रदाय बंद हो जाता है एवं भाप रुद्धोष्म तरीके से बिंदु स तक प्रसारित होती है। प्रसार के अंत में दाब एवं ताप घटकर क्रमश: दा (P2) एवं ता (T2) हो जाता है यह क्रिया व स है। (३) बिंदु स से द तक भाप स्थिर ताप ता (T2) पर संपीडित होती है। इस क्रिया से भाप का संघनन होता जाता है। द बिंदु पर पहुँचने पर कुछ भाप बच जाती है। (४) द बिंदु पर बची हुई भाप का रुद्धोष्म तरीके से 'द अ' द्वारा संपीडन होता है। इससे इसका आयतन बहुत ही कम हो जाता है। इसके बाद चक्र की पुनरावृत्ति होती है।

रैंकिन चक्र (Ranking Cycle) ¾ रैंकिन चक्र एक सैद्धांतिक चक्र है, जिसके अनुसार भ्ााप्ा इंजन कार्य करता है। यह चक्र चित्र ३. में अंकित किया गया है। मान लिया कि चक्र के आरंभ में सिलिंडर के अंतरायतन (clearance volume) में कुछ जल है एवं इस जल का आयतन नगण्य है। इस अवस्था को बिंदु अ से दिखाया गया है। रैंकिन चक्र की ये क्रियाएँ हैं : (१) 'अ ब' संघनित्र से संघनित जल पंप द्वारा बॉयलर में उच्च दाब पर भेजा जाता है। बॉयलर में यह जल उच्च दाब के संतृप्त ताप (saturation temperature) तक गरम किया जाता है। (२) 'ब स' बॉयलर में स्थिर दाब दा (p1) पर गरम जल का वाष्पीकरण होता है। (३) 'स द', बिंदु स पर भाप बॉयलर से भाप इंजन में प्रवेश करती है। भाप इंजन में भाप का प्रसार रुद्धोष्म तरीके से बिंदु द तक होता है। इस प्रसार के द्वारा भाप कार्य करती है। प्रसार के अंत में भाप की दाब दा (p2) हो जाती है। (४) ' द अ' के बिंदु द पर भाप, इंजन में कार्य करने के बाद संघनित्र में प्रवेश करती है। संघनित्र में भाप स्थिर दाब पर जल के रूप में परिवर्तित होती है। बिंदु अ से पुन: चक्र की पुनरावृत्ति होती है।

व्यवहार में रैंकिन चक्र का रूपांतरण ¾ वस्तुत: व्यवहार में भाप को दाब-आयतन रेखाचित्र के अंतिम छोर बिंदु द तक प्रसारित करने से कुछ भी लाभ नहीं होता। इस रेखाचित्र का क्षेत्रफल भाप इंजन द्वारा प्राप्त कार्य के बराबर होता है। इसे देखने से पता चलेगा कि यह अंतिम सिरे की ओर बहुत ही संकीर्ण है, जिसके फलस्वरूप प्रसार स्ट्रोक के अंतिम भाग में प्राप्त कार्य बहुत ही कम होगा। इस संकीर्ण भाग द्वारा प्राप्त कार्य इंजन के गतिमान पुर्जो के घर्षण को भी पूरा कर सकने में असमर्थ होता है। इसी कारण प्रसार स्ट्रोक बिंदु य पर ही समाप्त कर दिया जाता है। तब बिंदु य से भाप की दाब स्थिर आयतन पर कम होती जाती है एवं बिंदु फ पर पहुँचने पर यह संघनित्र की दाब के बराबर हो जाती है। अत: चित्र ३. में 'अ ब स य फ' रूप्ाांतरित रैंकिन चक्र है।

परिकिल्प्ात और वास्तविक सूचक रेखाचित्र ¾ चित्र ४. में 'अ ब स द य' परिकल्पित रेखाचित्र एवं '१-२-३-४-५' वास्तविक रेखाचित्र है। भाप इंजन का परिकल्पित सूचक रेखाचित्र वह सैद्धांतिक रेखाचित्र है जो यह मानकर बनाया जाता है कि इंजन में किसी भी प्रकार की क्षति नहीं हो रही है। इस प्रकार के रेखाचित्र को बनाते समय ये कल्पनाएँ कर ली जाती है : (क) द्वारों का खुलना और बंद होना तात्क्षणिक होता है। (ख) भाप के संघनन द्वारा दाबक्षति (loss) नहीं होती है। (ग) वाल्व द्वारा अवरोधन क्रिया नहीं होती है। (घ) भाप बॉयलर की दाब पर इंजन में प्रवेश करती है और संघनित्र की दाब पर उसकी निकासी होती है। (च) इंजन में भाप का अतिपरवलयिक (hyperbolic) प्रसार होता है।

वस्तुत: वास्तविक इंजन में क्षतियाँ होती हैं। इन क्षतियों के कारण इंजन पर प्रयोग द्वारा मिलने वाले सूचक रेखाचित्र, जिन्हें 'वास्तविक सूचक रेखाचित्र' कहते हैं परिकल्पित रेखाचित्र से विभिन्न होते हैं। बॉयलर से भाप नली द्वारा इंजन में प्रवेश करती है। इस नली में गरम भाप के प्रवाह के कारण कुछ भाप का संघनन हो जाता है, जिसके कारण भाप की दाब कम हो जाती है। वाल्व द्वारा भाप के प्रवेश करते समय अवरोधन के कारण भी दाब में कुछ कमी हो जाती है। इन्हीं सब क्षतियों के कारण इंजन में प्रवेश करते समय भाप की दाब बॉयलर की दाब से कम रहती है। सिलिंडर की दीवारें भाप की तुलना में ठंडी होती हैं इसके कारण भाप का संघनन होता है। इसके फलस्वरूप विच्छेद बिंदु तक दाब में धीरे धीरे क्षति होती जाती है। सिलिंडर की दीवारों द्वारा ताप के चालन के कारण प्रसारवक्र वास्तव में अतिपरवलयिक नहीं हो पाता है। भाप का उन्मोचन स्ट्रोक के पूर्ण होने के पहले ही हो जाता है। प्रवेश एवं निकास द्वार के क्रमश: बंद होने और खुलने में लगनेवाले समय के कारण रेखाचित्र में उन दो बिंदुओं पर कुछ वक्रता आ जाती है। चूँकि कार्य करने के बाद भाप को संघनित्र में भेजना होता है, इसीलिए निकासी रेखा संघनित्र-दाब-रेखा से ऊपर रहती है। निकास द्वार के बंद होने के बाद सिलिंडर में बची हुई भाप का पिस्टन द्वारा संपीडन होता है। इसके कारण इस बिंदु पर भी रेखाचित्र में कुछ वक्रता आ जाती है। इस संपीडन स्ट्रोक के पूर्ण होने के ठीक कुछ पहले ताजी भाप इंजन में प्रवेश करती है। सिद्धांत एवं व्यवहार में पाए जानेवाले इन्हीं सब विचलनों के कारण दोनों रेखाचित्रों में अत्यंत अंतर हो जाता है। इसके कारण वास्तविक रेखाचित्र का क्षेत्रफल परिकल्पित रेखाचित्र के क्षेत्रफल से कम हो जाता है। इन दोनों क्षेत्रफलों के अनुपात को 'रेखाचित्र गुणक' (diagram factor) की संज्ञा दी गई है। रेखचित्र गुणक का मान ०.६ से ०.९ तक होता है।

भाप इंजन की अश्व शक्ति ¾ ऊपर बताए गए परिकल्पित सूचक-रेखाचित्र द्वारा पता चलता है कि भाप की दाब पिस्टन के पूरे स्ट्रोक के समान नहीं रह पाती। इंजन की अश्वशक्ति को जानने के लिए भाप की दाब के औसत मान का अंकन करना आवश्यक हो जाता है। इस दाब को माध्य प्रभावी दाब कहते हैं।

परिकिल्प्ात माध्य प्रभावी दाब

जहाँ द (Pi) = भाप इंजनों में अंतर्गम दाब, द (Pb) = पश्च दाब और प्र (r) = प्रसार का अनुपात है। परिकल्पित सूचक-रेखाचित्र के आधार पर निकाली गई माध्य प्रभावी दाब को 'परिकल्पित माध्य प्रभावी दाब' कहते हैं। वास्तविक सूचक-रेखाचित्र द्वारा प्राप्त माध्य प्रभावी दाब को वास्तविक माध्य प्रभावी दाब कहते हैं।

दोनों में निम्नलिखित संबंध है :

वास्तविक माध्य प्रभावी दाब = (परिकिल्प्ात माध्य प्रभावी दाब) X रेखाचित्र गुणक

भाप इंजन पर वास्तविक सूचक रेखाचित्र, इंजन सूचक द्वारा प्राप्त होता है। इंजन सूचक एक ऐसा उपकरण है जो दो गतियों को दिखाता है : एक, ऊर्ध्वगति जो दाब की अनुपाती होती है, एवं दूसरी, क्षैतिज गति जो पिस्टन विस्थापन की अनुपाती होती है। इस उपकरण में एक छोटा सा सिलिंडर होता है, जिसमें एक बहुत ही चुस्त पिस्टन एक सिरे से दूसरे सिरे तक चलता है। पिस्टन के द्वारा पिस्टन दंड चलता है, जिसपर एक कमानी लगी रहती है। कमानी का दूसरा छोर उपकरण के स्थिर हिस्से से कसकर बँधा रहता हैं। पिस्टन दंड पेंसिल यंत्रावली ( pencil mechanism) को चलाता है, जो सूचक पिस्टन (indicator piston) की गति को ड्रम (drum) पर बढ़ाकर दिखाता है। क्षैतिज विस्थापन एक दोलन ड्रम (oscillating drum) की सहायता से प्राप्त होता है। सूचक चित्र एक खास तरह के पत्रक (card) पर लिया जाता है। ड्रम के ऊपर पत्रक को पकड़ने के लिए दो क्लिप (clip) रहते हैं ड्रम की गति इंजन के पिस्टन की गति को अनुरूपित करती है और इसलिए एक खास माप पर पिस्टन के विस्थापन को दिखाती है।

सूचक रेखाचित्र के आधार पर निकाले गए माध्य प्रभावी दाब को व्यवहार करने से प्र्ााप्त अश्वशक्ति को 'सूचित अश्वशक्ति' (Indicated horse power) कहते हैं।

जहाँ दामा१ (Pm1) और दामा२ (Pm2) भाप इंजन के दोनों ओर के माध्य प्रभावी दाब पाउंड प्रति वर्ग इंच में हैं, क्षे (A1) तथा (A2) क्रमश: दोनों ओर के क्षेत्रफल वर्ग इंच में हैं, स्ट्रो (L) = स्ट्रोक (stroke) की लंबाई फुट में और प (N) = इंजन का परिक्रमण प्रति मिनट है।

सिलिंडर में उत्पन्न की हुई शक्ति का कुछ हिस्सा इंजन के गतिमान पुर्जों के घर्षण में ही समाप्त हो जाता है। अत: क्रैंकशैफ्ट पर प्राप्य ऊर्जा संपूर्ण ऊर्जा से सर्वदा कम रहती है। क्रैंकशैफ्ट पर प्राप्य शक्ति को बहुधा ब्रेक प्रणाली द्वारा मापा जाता है एवं इसी के चलते इसे ब्रेक अश्वशक्ति कहते हैं। इंजन का अश्वशक्ति को मापने के उपकरण को डाइनेमोमीटर (Dynamometer) कहते हैं (देखें, डाइनेमोमीटर)।

इंजन के विभिन्न पुर्जो के घर्षण में लगनेवाली शक्ति को 'घर्षण अश्वशक्ति कहते हैं'।

घर्षण अश्वशक्ति-सूचित अश्वशक्ति-ब्रेक अश्वशक्ति

भाप इंजन का गतिनियामक (governor) ¾ गति नियामक का मुख्य कार्य इंजन की गति का नियमन करना है। भाप इंजन में गतिनियामक इन दो तरीकों में से एक की सहायता से परिभ्रमण की गति स्थिर रख पाता है : (१) विच्छेद बिंदु को बदलने से तथा (२) भाप की प्रारंभिक दाब को परिवर्तित करने से। शक्ति की माँग के अनुसार भाप की दाब को बढ़ाकर या घटाकर इंजन की गति को नियमन करनेवाले गतिनियामक को अवरोध गतिनियामक (throttling governor) कहते हैं। गतिनियामक एक अवरोध वाल्व को चलाता है, जो मुख्य भाप नली में रखा होता है। इस प्रकार के गतिनियामकों में मुख्य गतिपालक कंदुक गतिनियामक (fly ball governor) होता है। वाल्व संतुलित प्रकार का होता है, अर्थात् भापदाब द्वारा परिणामी बल (resultant force) शून्य होता है। जब इंजन की गति बढ़ती है, गतिनियामक कंदुकों के परिभ्रमण की गति में भी वृद्धि हो जाती है, जिससे केंद्रापसारी बल बढ़ जाता है। बल की यह वृद्धि उन्हें गुरुत्वाकर्षणबल एवं नियंत्रण कमानी के विरुद्ध बाहर चलने को बाध्य करती है। इसके चलते वाल्व कुछ अंश में बंद हो जाता है। वाल्व द्वारा अवरोध होने पर पिस्टन पर कार्य करनेवाली भाप की दाब में कमी हो जाती है, जिसके कारण उत्पन्न शक्ति भी कम हो जाती है एवं इंजन की गति में कमी होने के कारण वाल्व कमानी ऊपर उठ जाती है एवं पिस्टन पर कार्य करनेवाली भाप की दाब में वृद्धि हो जाती है, जिसके फलस्वरूप गति बढ़कर सामान्य गति पर आ जाती है। अवरोध-गति-नियामक द्वारा नियमित भाप इंजन में प्रयोग के बाद यदि इंजन में प्रति घंटे व्यवहृत भाप की तौल को अश्वशक्ति के साथ आँका जाए, तो एक सरल रेखा प्राप्त होगी। यह संबंध सर्वप्रथम विलिअन ने पाया था। अत: इन्हीं के नाम पर इसे 'विलिअन की रेखा' (Willian's Line) कहते हैं।

गतिपालक चक्र (flywheel) ¾ बहुधा गतिपालक चक्र ढालवें लोहे का बना होता है। इसमें एक घेरा (rim), एक नाभि (hub) एक नाभि को घेरा से जोड़ने के लिए भुजाएँ (arms) होती हैं। जिस ईषा (shaft) पर गतिपालक चक्र लगाना होता है, उसका व्यास ऐसा होना चाहिए कि उसपर नाभिक ठीक बैठ जाए। गतिपालक चक्र को ईषा के साथ चाभी के द्वारा अटकाया जाता है।

गतिपालक चक्र का मुख्य कार्य है इंजन के कार्य करते समय ऊर्जा के परिवर्तन द्वारा होनेवाली गति के परिवर्तन को कम करना। यह चक्र इंजन को निष्क्रिय स्थिति (dead centres) के ऊपर ले जाता है। निष्क्रिय स्थिति के समय क्रैंक और योजी दंड स्ट्रोक के किसी भी ओर में एक सीध में रहता है और इस समय पिस्टन पर कार्य करनेवाली भाप क्रैंक को घुमाने में असमर्थ हो जाती है। गतिपालक चक्र को चालक घिरनी (driving pulley) के रूप में भी काम में लाया जा सकता है। कार्य का सफलतापूर्ण संपादन करने के लिए इनका भारी होना आवश्यक है।

नौ इंजन (Marine Engines) ¾ निम्न गतिवाले भारवाहक जलपोतों (ship) मे बड़े नोदक (propellers) लगाए जाते हैं एवं ये नोदक प्रति मिनट ८० परिक्रमण करते हैं। इस तरह के जहाजों में भाप इंजन बहुत ही उपयुक्त हैं। उच्च गति पर चलनेवाले जहाजों में भाप इंजन की जगह भाप टरबाइन का व्यवहार किया जा रहा है। समुद्रयान में व्यवहार में लाए जानेवाले भाप इंजन में त्रिप्रसार प्रकार के इंजन प्रसिद्ध हैं। समुद्रयान इंजन सर्वदा पृष्ठ संघनक (surface condenser) द्वारा युक्त होता है, जिसमें पीतल की नलिकाएँ लगी रहती हैं। पंप के द्वारा समुद्र का जल संघनित्र में लाया जाता है। समुद्र के जल से ही संघनित्र में आई हुई भाप का संघनन होता है। यद्यपि आजकल समुद्रयानों में अंतर्दहन इंजन, भाप टरबाइन एवं गैस टरबाइन व्यवहार में लाया जा रहा है, फिर भी कुछ खास अवस्थाओं में भाप इंजन का व्यवहार अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

रेल इंजन (Locomotive Engine) ¾ साधारण रेल इंजन में क्षैतिज भाप इंजन का व्यवहार होता है। यह इंजन रेल इंजन बॉयलर (locomotive boiler) के पास ठोस आधार पर लगा, रहता है। प्राय: सभी रेल इंजनों में संघनित्र नहीं रहता है। कार्य करने के बाद भाप को सीधे वायुमंडल में छोड़ दिया जाता है। इस तरह के इंजन दो प्रकार के होते हैं : (१) बहि:सिलिंडर इंजन, जिसमें सिलिंडर दूर तक फैले रहते हैं और ये इंजन के फ्रेम के बाहर ही लगाए जाते हैं तथा (२) अंत:सिलिंडर इंजन, जिसमें सिलिंडर इंजन के फ्रेम के अंतर्गत ही एक दूसरे के बगल में रखे जाते हैं। आधुनिक डिजाइन में इन दोनों प्रकारों को जोड़ दिया जाता है, अर्थात् कुछ सिलिंडर इंजन के फ्रेम के अंदर रहते हें एवं कुछ सिलिंडर बाहर रहते हें।

एकदिग्वाही इंजन (Uniflow engine) ¾ चित्र ५. में इस प्रकार के इंजन के मुख्य सिद्धांत को दर्शाया गया है। स्ट्रोक के आरंभ में बॉयलर से भाप यंत्र द्वारा नियंत्रित वाल्व से होकर सिलिंडर में प्रवेश करती है और पिस्टन को दाएँ ओर ढकेलती है। यह वाल्व (४) विच्छेद होते ही बंद हो जाता है एवं भाप प्रसारित होती है। स्ट्रोक के अंत में पिस्टन का बायाँ भाग निकास द्वार (२) को खोल देता है। तब भाप इस द्वार से निकल जाती है। जब यह होता है, उस समय पिस्टन (१) का दायाँ भाग अंतर स्थान (clearance space) पर पहुँच जाता है, जिससे वाल्व (३) द्वारा ताजा भाप सिलिंडर के दाँएं भाग में प्रवेश करती है। साधारण भाप इंजन के विपरीत, एक दिग्वाही इंजन में भाप कार्य करने के लिए जिस दशा में चलती है, उसी दिशा में चलकर वह कार्य करने के बाद निकल जाती है। भाप की एक ही दिशा वाली चाल के कारण इस प्रकार के इंजन को 'एकदिग्वाही इंजन' की संज्ञा दी गई है। इसमें भाप का संघनन कम होता है, जिसके कारण बहुत तरह की हानियाँ होने से बच जाती हैं। यह देखा गया है कि भाप की समान मात्रा द्वारा एकदिग्वाही इंजन में किया गया कार्य बहुपद इंजन (multistage engine) के कई सिलिंडरों में किए गए संपूर्ण कार्य के बराबर होता है।

(चंद्रभूषणमिश्र)