भागवत (श्रीमद्भागवत) अष्टादश पुराणों में नितांत महत्वपूर्ण तथा प्रख्यात पुराण। पुराणों की गणना में भागवत अष्टम पुराण के रूप में परिगृहीत किया जाता है (भागवत १२.७.२३)। आजकल भागवत आख्या धारण करनेवाले दो पुराण उपलब्ध होते हैं ¾ (क) देवीभागवत तथा (ख) श्रीमद्भागवते। अत: इन दोनों में पुराण कोटि मे किसकी गणना अपेक्षित है ? इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है।

विविध प्रकार से समीक्षा करने पर अंतत: यही प्रतीत होता है कि श्रीमद्भागवत को ही पुराण मानना चाहिए तथा देवीभागवत को उपपुराण की कोटि में रखना उचित है। श्रीमद्भागवत देवीभागवत के स्वरूपनिर्देश के विषय में मौन है। परंतु देवीभागवत 'भागवत' की गणना उपपुराणों के अंतर्गत करता है (१.३.१६) तथा अपने आपको पुराणों के अंतर्गत। देवीभागपंचम स्कंध में वर्णित भुवनकोश श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध में प्रस्तुत इस विषय का अक्षरश: अनुकरण करता है। श्रीभागवत में भारतवर्ष की महिमा के प्रतिपादक आठो श्लोक (५.९.२१-२८) देवी भागवत में अक्षराश: उसी क्रम में उद्धृत हैं (८.११.२२-२९)। दोनों के वर्णनों में अंतर इतना ही है कि श्रीमद्भागवत जहाँ वैज्ञानिक विषय के विवरण के निमित्त गद्य का नैसर्गिक माध्यम पकड़ता है, वहाँ विशिष्टता के प्रदर्शनार्थ देवीभागवत पद्य के कृत्रिम माध्यम का प्रयोग करता है।

श्रीमद्भागवत भक्तिरस तथा अध्यात्मज्ञान का समन्वय उपस्थित करता है। भागवत निगमकल्पतरु का स्वयंफल माना जाता है जिसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी तथा ब्रह्मज्ञानी महर्षि शुक ने अपनी मधुर वाणी से संयुक्त कर अमृतमय बना डाला है।

भागवत में १८ हजार श्लोक, ३३५ अध्याय तथा १२ स्कंध हैं। इसके विभिन्न स्कंधों में विष्णु के लीलावतारों का वर्णन बड़ी सुकुमार भाषा में किया गया है। परंतु भगवान् कृष्ण की ललित लीलाओं का विशद विवरण प्रस्तुत करनेवाला दशम स्कंध भागवत का हृदय है। अन्य पुराणों में, जैसे विष्णुपुराण (पंचम अंश), ब्रह्मवैवर्तं (कृष्णजन्म खंड) आदि में भी कृष्ण का चरित् निबद्ध है, परंतु दशम स्कंध में लीलापुरुषोत्तम का चरित् जितनी मधुर भाषा, कोमल पदविन्यास तथा भक्तिरस से आप्लुत होकर वर्णित है वह अद्वितीय है। रासपंचाध्यायी (१०.२९-३३) अध्यात्म तथा साहित्य उभय दृष्टियों से काव्यजगत् में एक अनूठी वस्तु है। वेणुगीत (१०.२१), गोपीगीत, (१०.३०), युगलगीत (१०.३५), भम्ररगीत (१०.४७) ने भागवत को काव्य के उदात्त स्तर पर पहुँचा दिया है।

'विद्यावतां भागवते परीक्षा' ¾ भागवत विद्वत्ता की कसौटी है और इसी कारण टीकासंपत्ति की दृष्टि से भी यह अतुलनीय है। विभिन्न वैष्णव संप्रदाय के विद्वानों ने अपने विशिष्ट मत की उपपत्ति तथा परिपुष्टि के निमित्त भागवत के ऊपर स्वसिद्धांतानुयायी व्याख्याओं का प्रणयन किया है जिनमें कुछ टीकाकारों का यहाँ संक्षिप्त संकेत किया जा रहा है¾श्रीधर स्वामी (भावार्थ दीपिका; १३वीं शती, भागवत के सबसे प्रख्यात व्याखाकार), सुदर्शन सूरि (१४वीं शती की शुकपक्षीया व्याख्या विशिष्टाद्वैतमतानुसारिणी है); विजय ध्वज (पदरत्नावली १६वीं शती; माध्वमतानुयायी), वल्लभाचार्य (सुबोधिनी १६वीं श., शुद्धाद्वैतवादी), शुदेवाचार्य (सिद्धांतप्रदीप, निबार्कमतानुयायी), सनातन गोस्वामी (बृहदैवैष्णवताषिणी), जीव गोस्वामी (क्रमसंदर्भ)।

देशकाल का प्रश्न ¾ भागवत के देशकाल का यथार्थ निर्णय अभी तक नहीं हो पाया है। एकादश स्कंध में ५.३८-४०) कावेरी, ताम्रपर्णी, कृतमाला आदि द्रविड़देशीय नदियों के जल पीनेवाले व्यक्तियों को भगवान् वासुदेव का अमलाशय भक्त बतलाया गया है। इसे विद्वान् लोग तमिल देश के आलवारों (वैष्णवभक्तों) का स्पष्ट संकेत मानते हैं। भागवत में दक्षिण देश के वैष्णव तीर्थो; नदियों तथा पर्वतों के विशिष्ट संकेत होने से कतिपय विद्वान् तमिलदेश को इसके उदय का स्थान मानते हैं। काल के विषय में भी पर्याप्त मतभेद है। इतना निश्चित है कि बोपदेव (१३वीं श. का उत्तरार्ध) जिन्होंने भागवत से संबद्ध 'हरिलीलामृत', 'मुक्ताफल' तथा 'परमहंसप्रिया' का प्रणयन किया तथा जिनके आश्रयदाता, देवगिरि के यादव राजा महादेव (सन् १२६०-७१) तथा राजा रामचंद्र (सन् १२७१-१३०९) के करणाधिपति तथा मंत्री, प्रख्यात धर्मशास्त्री हेमाद्रि ने अपने 'चतुर्वर्गं चिंतामणि' में भागवत के अनेक वचन उधृत किए हैं भागवत के रचयिता नहीं माने जा सकते। शंकराचार्य के दादा गुरु गौडपादाचार्य ने अपने 'पंचीकरणव्याख्या' में 'जगृहे पौरुषं रूपम्' (भा. १.३.१) तथा 'उत्तरगीता टीका' में 'श्रेय: स्रुतिं भक्ति मुदस्य ते विभो' (भा. १०.१४.४) भागवत के दो श्लोकों को उद्धृत किया है। इससे भागवत की रचना सप्तम शती से अर्वाचीन नहीं मानी जा सकती।

भागवत का प्रभाव मध्ययुगीय वैष्णव संप्रदायों के उदय में नितांत क्रियाशील था तथा भारत की प्रांतीय भाषाओं के कृष्ण काव्यों के उत्थान में विशेष महत्वशाली था। भागवत से ही स्फूर्ति तथा प्रेरणा ग्रहण कर ब्रजभाषा के अष्टछापी (सूरदास, नंददास आदि) निबार्की (श्रीभट्ट तथा हरिव्यास) राधावल्लभीय (हित हरिवंश तथा हरिदास स्वामी) कवियों ने व्रजभाषा में राधाकृष्ण की लीलाओं का गायन किया। मिथिला के विद्यापति, बंगाल के चंडीदास, ज्ञानदास तथा गोविंददास, असम के शंकरदेव तथा माधवदेव, उत्कल के उपेंद्रभंज तथा दीनकृष्णदास, महाराष्ट्र के नामदेव तथा माधव पंडित, गुजरात के नरसी मेहता तथा राजस्थान की मीराँबाई¾इन सभी संतों तथा कवियों ने भागवत के रसमय वर्णन से प्रेरणा प्राप्त कर राधाकृष्ण की कमनीय केलि का गायन अपने विभिन्न काव्यों में किया है। तमिल, आंध्र, कन्नड तथा मलयालम के वैष्णव कवियों के ऊपर भी भागवत का प्रभाव कम नहीं है।

भागवत का आध्यात्मिक दृष्टिकोण अद्वैतवाद का है तथा साधनादृष्टि भक्ति की है। इस प्रकार अद्वैत के साथ भक्ति का सामरस्य भागवत की अपनी विशिष्टता है। इन्हीं कारणों से भागवत वाल्मीकीय रामायण तथा महाभारत के साथ संस्कृत की 'उपजीव्य' काव्यत्रयी के अंतर्भूत माना जाता है।

सं. ग्रं. ¾ स्वामी अखंडानंद सरस्वती : श्रीमद्भगवतरहस्य, बंबई, १९६३। बलदेव उपाध्याय : भागवत संप्रदाय, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी सं. २०१०; डॉ. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य : फिलॉसफी ऑव श्रीमद्भागवत्, दो खंडों में विश्वभारती से प्रकाशित, १९६० तथा १९६२ (बलदेव उपाध्याय.)