भाई परमानंद प्रसिद्ध क्रांतिकारी, स्वतंत्र विचारक, राष्ट्रीय नेता तथा इतिहास के प्रकांड पंडित थे। आपका जन्म सन् १८७४ ई. में हुआ। पंजाब विश्वविद्यालय से एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर आप डी. ए. वी. कालेज में प्राध्यापक के रूप में कार्य करने लगे। भारत की प्राचीन संस्कृति तथा वैदिक धर्म में आपकी रुचि देखकर महात्मा हंसराज ने आपको भारतीय संस्कृति का प्रचार करने के लिए अफ्रीका भेजा। यहाँ आप तत्कालीन प्रमुख क्रांतिकारियों सरदार अजीत सिंह, सूफी अंबाप्रसाद आदि के संर्पक में आए। इन क्रांतिकारी नेताओं से संबंध तथा कांतिकारी दल की कारवाही पुलिस की दृष्टि से छिप न सकी। फलत: आपको अफ्रीका छोड़कर अमरीका जाना पड़ा जहाँ मार्तनक उपनिवेश में आपकी प्रख्यात क्रांतिकारी लाला हरदयाल से भेंट हुई। भारत में क्रांति कराने के लिए प्रमुख कार्यकर्ताओं के दल को यहाँ संघटित किया जा रहा था। लाला हरदयाल की प्रेरणा से आप भी इस दल में सम्मिलित हो गए।
भारत आने पर गदर पार्टी के सदस्यों के साथ आप भी गिरफ्तार हुए। आपपर मुकदमा चला तथा फाँसी की सजा सुनाई गई। फाँसी की सजा बाद में आजीवन कारावास में बदल दी गई और आप सन् १९१५ में कालापानी की सजा काटने अंदमान भेज दिए गए। सन् १९२९ में आमरण अनशन करने पर आपको रिहा किया गया। आप नवीन उत्साह के साय स्वदेश आए किंतु इस समय तक देश का राजनीतिक वातावरण परिवर्तित हो चुका था। महात्मा गाँधी का सविनय अवज्ञा आंदोलन चल रहा था। भाई परमानंद को कांग्रेस की मुसलमानों के तुष्टीकरण की नीति पसन्द न आई और आप उसके कटु आलोचक बन गए। यही कारण है कि आप राष्ट्रीय आंदोलन में संमिलित नहीं हुए। आंदोलन काल में आपने राष्ट्रीय विद्यापीठ के कुलगुरु के रूप में महत्वपूर्ण सेवा की तथा हिंदुओं के हितों की रक्षा के आंदोलनों का निर्देश किया। बाद में आप हिंदू महासभा में सम्मिलित हो गए। महामना पंडित मदनमोहन मालवीय का निर्देश एवं सहयोग आपको बराबर मिला। सन् १९३३ ई. में आप अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अजमेर अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए।
देशभक्ति, राजनीतिक दृढ़ता तथा स्वतंत्र विचारक के रूप में भाई परमानंद का नाम स्मरणीय रहेगा। आपने कठिन तथा संकटपूर्ण स्थितियों का सदा डटकर सामना किया और कभी विचलित नहीं हुए। आपने हिंदी में भारत का इतिहास लिखा है। इतिहासलेखन में आप राजाओं, युद्धों तथा महापुरुषों के जीवनवृत्तों को ही प्रधानता देने के पक्ष में न थे। आपका मत है कि इतिहास में जाति की भावनाओं, इच्छाओं, आकांक्षाओं, संस्कृति एवं सभ्यता को भी महत्व दिया जाना चाहिए। आपने अपने जीवन के संस्मरण भी लिखे हैं। (लक्ष्मीशंकर व्यास)