भद्रबाहु महावीर निर्वाण के लगभग १५० वर्ष पश्चात् (ईसवी सन् के पूर्व लगभग ३६७) भद्रबाहु नाम के सुप्रसिद्ध जैन आचार्य हो गए हैं जो दिगंबर और श्वेतांबर दोनों संप्रदायों द्वारा अंतिम श्रुतकेवली माने जाते हैं। भद्रबाहु चंद्रगुप्त मौर्य के समकालीन थे। उस समय जब मगध में भयंकर दुष्काल पड़ा तो अनेक जैन भिक्षु भद्रबाहु के नेतृत्व में समुद्रतट की ओर प्रस्थान कर गए, शेष स्थूलभद्र के नेतृत्व में मगध में ही रहे। (दिगंबर मान्यता के अनुसार चंद्रगुप्त जब उज्जैनी में राज्य करते थे तो भद्रबाहु ने द्वादशवर्षीय अकाल पड़ने की भविष्यवाणी की इस पर भ्रदबाहु के शिष्य संघ विशाखाचार्य संघ को लेकर पुन्नार चले गए, जबकि रामिल्ल, स्थूलभद्र और भद्राचार्य ने सिंधुदेश के लिए प्रस्थान किया)। दुष्काल समाप्त हो जाने पर जैन आगमों को व्यवस्थित करने के लिए जैन श्रमणों का एक सम्मेलन पाटलिपुत्र में बुलाया गया। जैन आगमों के ११ अंगों का तो संकलन कर लिया गया लेकिन १२ वाँ अंग दृष्टवाद चौदह पूर्वो के ज्ञाता भद्रबाहु के सिवाय और किसी को स्मरण नहीं था। लेकिन भद्रबाहु उस समय नेपाल में थे। ऐसी परिस्थित में पूर्वो का ज्ञान संपादन करने के लिए जैन संघ की ओर से स्थूलभद्र आदि साधुओं को नेपाल भेजा गया, और भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को पूर्वो की शिक्षा दी।
भद्रबाहु का सबसे प्राचीन उल्लेख देवर्धिगणि क्षमाश्रमण द्वारा ४५३ ई. में रचित 'कल्पसूत्र' की 'स्थविरावलि' में मिलता है, जहाँ इन्हें यशोभद्र का शिष्य बताया है। भद्रबाहु बृहत्कल्प, व्यवहार और दशाश्रुतस्कंध नाम के तीन छेदसूत्रों के कर्ता माने जाते हैं।
भद्रबाहु ने आचारांग, सूतकृतांग, सूर्यप्रज्ञप्ति, व्यवहार, कल्प (बृहत्कल्प) दशाश्रुतस्कंध, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकाश्रिक और ऋषिभाषित नामक दस आगम ग्रंथों पर प्राकृत गाथाओं में निर्युक्तियों की भी रचना की है, लेकिन ये भद्रबाहु दूसरे हैं। इनका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी बताया जाता है। भद्रबाहु ने (उपसर्गहर) स्त्रिंत की भी रचना की है। मेरुतुंग के प्रबंधचिंतामणि में वराहमिहिर नाम के प्रबंध में वराहमिहिर को भद्रबाहु का ज्येष्ठ भ्राता कहा है। वरामिहिर जयौतिषशास्त्र के बड़े विद्वान् थे, इन्होंने वाराहीसंहिता नाम के ज्योतिषशास्त्र की रचना की है। राजशेखर के प्रबन्धकोष में भी भद्राबाहु और वराहमिहिर का उल्लेख मिलता है।
सं. ग्रं.¾जगदीशचंद्र जैन: प्राकृत साहित्य का इतिहास। (जगदीश चंद्र जैन)