भट्ट गोपाल गोस्वामी कावेरी नदी के तट पर श्रीरंग के पास बेलगुंडी ग्राम में इनका जन्म सं. १५५३ वि. में हुआ। सं. १५६८ में जब श्रीगौरांग दक्षिण यात्रा करते हुए श्रीरंग आए, वेंकट भट्ट के यहाँ चातुर्मास व्यतीत किया था। गोपाल भट्ट की सेवा से प्रसन्न हो इन्हें दीक्षा दी तथा जाते समय विवाह न करने पर अध्ययन एवं माता-पिता की सेवा करने का उपदेश दिया। माता पिता की मृत्यु पर सं. १५८८ में वृंदावन आए। श्रीगौरांग के अप्रकट होने पर वृद्ध गोस्वामियों के विशेष आग्रह पर यहश् आसन पर बैठे। उत्तरी तथा पश्चिमी भारत के बहुत से लोग इनके शिष्य हुए। इसके अनंतर यह यात्रा को निकले। देववन में गोपीनाथ को शिष्य बनाया तथा गंडकी नदी से एक शालिग्राम शिला ले आए, जिसकी निरंतर पूजा करते। सं. १५९९ में इनकी अभिलाषा के कारण शिला से राधारमण की मूर्ति का प्राकट्य हुआ। महारासस्थली का स्थान निश्चित कर कुटी बनाई और उसी में सेवा पूजा करने लगे। सं. १६४२ में भट्ट जी का तिरोधान हुआ। कृष्णतत्व तथा अवतारवाद पर कई स्फुट संदर्भ लिखकर जीव गोस्वामी को सुशृंखलित करने को दिया और उन्होंने षट् संदर्भ पूरा किया। इनका हरिभक्तिविलास बृहत् ग्रंथ है, जो वैष्णव स्मृति रूप में विख्यात है। ((स्व.) ब्रजरत्नदास)