ब्रह्मसमाज ब्रह्मसमाज का इतिहास मूलत: उस आध्यात्मिक आंदोलन की कहानी है जो १९वीं शताब्दी के नवजाग्रत भारत की विशेषता थी। इस आंदोलन ने स्वतंत्रता की सर्वव्यापी भावना का सूत्रपात किया एवं जनसाधारण के बौद्धिक, सामाजिक तथा धार्मिक जीवन को नवीन रूप प्रदान किया। वस्तुत: ब्रह्मसमाज के विश्वासों एवं सिद्धांतों ने न केवल विगत १३० वर्षों में भारतीय विचारधारा को ही नवीन मोड़ दिया, अपितु भारतीय राष्ट्रीय एकीकरण, अंतरराष्ट्रीयता एवं मानवता के उदय की भी अभिवृद्धि की।
१८वीं शती के अंत में भारत पाश्चात्य प्रभावों एवं राष्ट्रीय रूढ़िवादिता के चतुष्पथ पर खड़ा था। शक्तियों के इस संघर्ष के फलस्वरूप एक नवीन गतिशीलता का उदय हुआ जो सुधार के उस युग का प्रतीक थी जिसका शुभारंभ पथान्वेषक एवं भारतीय नवजाग्रति के प्रथम अग्रदूत राजा राममोहन राय के आगमन के साथ हुआ। राजा राममोहन राय ने ईश्वरीय ऐक्य 'एकमेवाद्वितीयम्' परमात्मा के पितृमयत्व एवं तज्जन्य मानवमात्र के भ्रातृत्व का संदेश दिया। इस सुदृढ़ तथा विस्तृत आधार पर ब्रह्मसमाज के सर्वव्यापी धर्म के उत्कृष्ट भवन का निर्माण हुआ।
राममोहन राय का जन्म पश्चिम बंगाल के राधानगर ग्राम में २२ मई, १७७२ ई. को हुआ था। उनके पिता रमाकांत राय संभ्रांत ब्राह्मण थे। इसलामी एवं हिंदू धर्मग्रंथों के मूलरूप में अध्ययन के फलस्वरूप राममोहन राय ने मूर्तिपूजा का परित्याग कर एकेश्वरवाद स्वीकार किया। जन्मजात सत्यान्वेषक होने के नाते उन्होंने लगभग तीन वर्ष सुदूर तिब्बत में बौद्धधर्म के परिज्ञानार्थ व्यतीत किए। ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में रहकर राममोहन राय ने ईसाई धर्म का अध्ययन किया तथा आँग्ल मनीषियों से उनका संपर्क हुआ। राममोहन राय की प्रथम पुस्तक 'तुहफ़तुल मुहावदीन' (एकेश्वर वादियों के लिए एक उपहार) ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि एक ईश्वर में विश्वास सभी धर्मों का सार है। उन्होंने हिंदू एवं ईसाई उभय रूढ़िवादिता के विरुद्ध सफल संघर्ष किया। राममोहन राय के अनन्य जीवन का सर्वोपरि कार्य था २३ जनवरी, (माघ ११), १८३० को ब्रह्मसमाज की स्थापना, सगुण ब्रह्म की उपासना का प्रथम सर्वोपरि मंदिर। यहीं से नवीन धार्मिक आंदोलन का जन्म होता है। राममोहन राय का स्वर्गवास २७ सितंबर, १८३३ को ब्रिस्टल, इंग्लैंड में हुआ जहाँ वे सामाजिक तथा राजनीतिक उद्देश्य से गए थे।
राममोहन राय द्वारा प्रवर्तित एकमेवाद्वितीय ब्रह्म की जाति, धर्म तथा निरपेक्ष उपासना ने प्रिंस द्वारिकानाथ के आत्मज महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर (१८१७-१९०५) पर अति गंभीर प्रभाव डाला। देवेंद्रनाथ ने ही ब्रह्मसमाज को प्रथम सिद्धांत प्रदान किए तथा ध्यानगम्य उपनिषदीय पवित्रता के अभ्यास का सूत्रपात किया। प्रथमाचार्य देवेंद्रनाथ की उपासनाविधि इस प्रकार प्रधानत: उपनिषदीय थी। प्रेममय ईश्वर के अनुग्रह से प्राप्त अनुभूतिगम्य आत्मसाक्षात्कार उनका महत्वपूर्ण योग था। उन्होंने आध्यात्मिक साधना हेतु एक संस्था तत्वबोधिनी सभा का आरंभ किया। तत्वबोधिनी पत्रिका, सभा की प्रमुख पत्रिका के रूप में, बहुतों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी। देवेंद्रनाथ के नेतृत्व में एक अपूर्व निर्णय लिया गया कि वेद अच्युत नहीं हैं तथा तर्क एवं अंत:करण को सर्वोपरि प्रमाण मानना है। ब्रह्मसमाज ने प्रचार का तथा समाजसुधार का कार्य अपने हाथ में लिया। ब्रह्मसमाज के अंतर्गत केशवचंद्र सेन के आगमन के साथ द्रुत गति से प्रसार पानेवाले इस आध्यात्मिक आंदोलन के सबसे गतिशील अध्याय का आरंभ हुआ।
केशवचंद्र का जन्म १९ नवंबर, १८३८ को कलकत्ता में हुआ। उनके पिता प्यारेमोहन प्रसिद्ध वैष्णव एवं विद्वान् दीवान रामकमल के पुत्र थे। बाल्यावस्था से ही केशवचंद्र का उच्च आध्यात्मिक जीवन था। महर्षि ने उचित ही उन्हें ब्रह्मानंद की संज्ञा दी तथा उन्हें समाज का आचार्य बनाया। केशवचंद्र के आकर्षक व्यक्तित्व ने ब्रह्मसमाज आंदोलन को स्फूर्ति प्रदान की। उन्होंने भारत के शैक्षिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक पुनर्जनन में चिरस्थायी योग दिया। केशवचंद्र के सतत अग्रगामी दृष्टिकोण एवं क्रियाकलापों के साथ साथ चल सकना देवेंद्रनाथ के लिए कठिन था, यद्यपि दोनों महानुभावों की भावना में सदैव मतैक्य था। १८६६ में केशवचंद्र ने भारतवर्षीय ब्रह्मसमाज की स्थापना की। इसपर देवेंद्रनाथ ने अपने समाज का नाम आदि ब्रह्मसमाज रख दिया।
केशवचंद्र के प्रेरक नेतृत्व में भारत का ब्रह्मसमाज देश की एक महती शक्ति बन गया। इसकी विस्तृताधारीय सर्वव्याप्ति की अभिव्यक्ति 'श्लोकसंग्रह' में हुई जो एक अपूर्व संग्रह है तथा सभी राष्ट्रों एवं सभी युगों के धर्मग्रंथों में अपने प्रकार की प्रथम कृति है। सर्वांग उपासना की दीक्षा केशवचंद्र द्वारा ही गई जिसके भीतर उद्बोधन, आराधना, ध्यान, साधारण प्रार्थना, तथा शांतिवाचन, पाठ एवं उपदेश प्रार्थना का समावेश है। सभी भक्तों के लिए यह उनका अमूल्य दान है।
धर्मतत्व ने तत्कालीन दार्शनिक विचारधारा को नवीन रूप दिया। १८७० में केशवचंद्र ने इंग्लैंड की यात्रा की। इस यात्रा से पूर्व तथा पश्चिम एक दूसरे के निकट आए तथा अंतरराष्ट्रीय एकता का मार्ग प्रशस्त हुआ। १८७५ में केशवचंद्र ने ईश्वर के नीवन स्वरूप-नव विधान समरूप धर्म (औपचारिक रूप से १८८० में घोषित) नवीन धर्म की संपूर्णता (संसिद्धि) का संदेश दिया। अपनी नवसंहिता में केशवचंद्र ने इस विश्वधर्म का प्रतिपादन इस प्रकार किया :
हमारा विश्वास विश्वधर्म है जो समस्त प्राचीन ज्ञान का संरक्षक है एवं जिसमें समस्त आधुनिक विज्ञान ग्राह्य है, जो सभी धर्म गुरुओं तथा संतों में एकरूपता, सभी धर्मग्रंथों में एकता एवं समस्त रूपों में सातत्य स्वीकार करता है, जिसमें उन सभी का परित्याग है जो पार्धक्य तथा विभाजन उत्पन्न करते हैं एवं जिसमें सदैव एकता तथा शांति की अभिवृद्धि है, जो तर्क तथा विश्वास योग्य तथा भक्ति तपश्चर्या, और समाजधर्म को उनके उच्चतम रूपों में समरूपता प्रदान करता है एवं जो कालांतर में सभी राष्ट्रों तथा धर्मों को एक राज्य तथा एक परिवार का रूप दे सकेगा।
केशवचंद्र का विधान (दैवी संव्यवहार विधि), आवेश (साकार ब्रह्म की प्रत्यक्ष प्रेरणा), तथा साधुसमागम (संतों तथा धर्मगुरुओं से आध्यात्मिक संयोग) पर विशेष बल देना ब्रह्मसमाजियों के एक दलविशेष को, जो नितांत तर्कवादी एवं कट्टर विधानवादी था, अच्छा न लगा। यह तथा केशवचंद्र की पुत्री के कूचबिहार के महाराज के साथ विवाह विषयक मतभेद विघटन के कारण बने, जिसका परिणाम यह हुआ कि पंडित शिवनाथ शास्त्री के सशक्त नेतृत्व में १८७८ में साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना हुई। इस समय ने कालांतर में देश के सामाजिक एवं शैक्षिक विकास में बड़ा योग दिया। केशवचंद्र १८८४ में दिवंगत हुए।
इन समाजों में सैद्धांतिक मतभेद शनै: शनै: कम होते गए हैं। आज 'आर्य, 'भारतवर्षीय' अथवा 'नवविधान' तथा 'साधारण' समाजों के बीच, जिनकी शाखाएँ समस्त भारत में फैली हैं, अपेक्षाकृत अधिक अवबोध तथा सहकारिता है।
इससे वैव्यापी आध्यात्मिक आंदोलन के दर्शन तथा साहित्य की चरम परिणति महर्षि देवेंद्रनाथ के आत्मज विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर (१८६२-१९४२) की सुंदरतम कृतियों में हुई। रवींद्रनाथ ने विशेषतया अपने श्रेष्ठतम एवं अनुकरणीय ब्रह्मसंगीत के द्वारा एकरूपता तथा विश्वप्रेम का संदेश सुनाया।
इस प्रकार ब्रह्मसमाज अथवा निरंतररोद्विकासी धर्मसंश्लेषण हमें अपेक्षाकृत कम समय में एक ब्रह्म, एक विश्व तथा एक मानवता के वांछित लक्ष्य के निकट पहुँचाने में समर्थ हो सकता है। (प्रभात बसु)