ब्रजभाषा मूलत: ब्रजक्षेत्र की बोली है। (श्रीमद्भागवत के रचनाकाल में '्व्राज' शब्द क्षेत्रवाची हो गया था-भाग. १०।१।९)। विक्रम की १३वीं शताब्दी से लेकर २०वीं शताब्दी तक भारत के मध्य देश की साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने उत्थान एवं विकास के साथ आदरार्थ 'भाषा' नाम प्राप्त किया और 'ब्रजबोली' नाम से नहीं, अपितु 'ब्रजभाषा' नाम से विख्यात हुई। अपने विशुद्ध रूप में यह आज भी आगरा, धौलपुर, मथुरा और अलीगढ़ जिलों में बोली जाती है। इसे हम केंद्रीय ब्रजभाषा के नाम से भी पुकार सकते हैं। केंद्रीय ब्रजभाषा क्षेत्र के उत्तर पश्चिम की ओर बुलंदशहर जिले की उत्तरी पट्टी से इसमें खड़ी बोली की लटक आने लगती है। उत्तरी-पूर्वी जिलों अर्थात् बदायूँ और एटा जिलों में इसपर कन्नौजी का प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। डा. धीरेंद्र वर्मा 'कन्नौजी' को ब्रजभाषा का ही एक रूप मानते हैं। दक्षिण की ओर ग्वालियर में पहुँचकर इसमें बुंदेली की झलक आने लगती है। पश्चिम की ओर गुड़गाँवा तथा भरतपुर का क्षेत्र राजस्थानी से प्रभावित है।

भारतीय आर्यभाषाओं की परंपरा में विकसित होनेवाली 'ब्रजभाषा' शौरसेनी अपभ्रंश की कोख से जन्मी है। जनपदीय जीवन के प्रभाव से ब्रजभाषा के कई रूप हमें दृष्टिगोचर होते हैं। किंतु थोड़े से अंतर के साथ उनमें एकरूपता की स्पष्ट झलक हमें देखने को मिलती है।

ब्रजभाषा की अपनी रूपगत प्रकृति औकारांत है अर्थात् इसकी एकवचनीय पुंलिंग संज्ञाएँ तथा विशेषण प्राय: औकारांत होते हैं; जैसे खुरपौ, यामरौ, माँझौ आदि संज्ञा शब्द औकारांत हैं। इसी प्रकार कारौ, गोरौ, साँवरौ आदि विशेषण पद औकारांत है। क्रिया का सामान्य भूतकालिक एकवचन पुंलिंग रूप भी ब्रजभाषा में प्रमुखरूपेण औकारांत ही रहता है। यह बात अलग है कि उसके कुछ क्षेत्रों में 'य्' श्रुति का आगम भी पाया जाता है। जिला अलीगढ़ की तहसील कोल की बोली में सामान्य भूतकालीन रूप 'य्' श्रुति से रहित मिलता है, लेकिन जिला मथुरा तथा दक्षिणी बुलंदशहर की तहसीलों में 'य्' श्रुति अवश्य पाई जाती है। जैसे :

''कारौ छोरा बोलौ'' -(कोल, जिला अलीगढ़)।

''कारौ छोरा बोल्यौ'' -(माट जिला मथुरा)।

''कारौ लौंडा बोल्यौ'' -(बरन, जिला बुलंदशहर)।

कन्नौजी की अपनी प्रकृति ओकारांत है। संज्ञा, विशेषण तथा क्रिया के रूपों में ब्रजभाषा जहाँ औकारांतता लेकर चलती है वहाँ कन्नौजी ओकारांतता का अनुसरण करती है। जिला अलीगढ़ की जलपदीय ब्रजभाषा में यदि हम कहें कि- ''कारौ छोरा बोलौ'' (= काला लड़का बोला) तो इसे ही कन्नौजी में कहेंगे कि-''कारो लरिका बोलो। भविष्यत्कालीन क्रिया कन्नौजी में तिङ्ंतरूपिणी होती है, लेकिन ब्रजभाषा में वह कृदंतरूपिणी पाई जाती है। यदि हम 'लड़का जाएगा' और 'लड़की जाएगी' वाक्यों को कन्नौजी तथा ब्रजभाषा में रूपांतरित करके बोलें तो निम्नांकित रूप प्रदान करेंगे :

कन्नौजी में -श्श् (१) लरिका जइहै।

(२) बिटिया जइहै।

ब्रजभाषा में -श्श् (१) छोरा जाइगौ।

(२) छोरी जाइगी।

उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि ब्रजभाषा के सामान्य भविष्यत् काल रूप में क्रिया कर्ता के लिंग के अनुसार परिवर्तित होती है, जब कि कन्नौजी में एक रूप रहती है।

इसके अतिरिक्त कन्नौजी में अवधी की भाँति विवृति (Hiatus) की प्रवृत्ति भी पाई जाती है जिसका ब्रजभाषा में अभाव है। कन्नौजी के संज्ञा, सर्वनाम आदि वाक्यपदों में संधिराहित्य प्राय: मिलता है, किंतु ब्रजभाषा में वे पद संधिगत अवस्था में मिलते हैं। उदाहरण :

(१) कन्नौजी -''बउ गओ'' (= वह गया)।

(२) ब्रजभाषा -''बो गयौ'' (= वह गया)।

उपर्युक्त वाक्यों के सर्वनाम पद 'बउ' तथा 'बो' में संधिराहित्य तथा संधि की अवस्थाएँ दोनों भाषाओं की प्रकृतियों को स्पष्ट करती हैं।

ब्रजभाषा क्षेत्र की भाषागत विभिन्नता को दृष्टि में रखते हुए हम उसका विभाजन निम्नांकित रूप में कर सकते हैं :

(१)��� केंद्रीय ब्रज अर्थात् आदर्श ब्रजभाषा - अलीगढ़, मथुरा तथा पश्चिमी आगरे की ब्रजभाषा को 'आदर्श ब्रजभाषा' नाम दिया जा सकता है।

(२)��� बुदेली प्रभावित ब्रजभाषा - ग्वालियर के उत्तर पश्चिम में बोली जानेवाली भाषा को यह नाम प्रदान किया जा सकता है।

(३)��� राजस्थान की जयपुरी से प्रभावित ब्रजभाषा - यह भरतपुर तथा उसके दक्षिणी भाग में बोली जाती है।

(४)��� सिकरवाड़ी ब्रजभाषा - ब्रजभाषा का यह रूप ग्वालियर के उत्तर पूर्व के अंचल में प्रचलित है जहाँ सिकरवाड़ राजपूतों की बस्तियाँ पाई जाती हैं।

(५)��� जादोबाटी ब्रजभाषा - करौली के क्षेत्र तथा चंबल नदी के मैदान में बोली जानेवाली ब्रजभाषा को 'जादौबारी' नाम से पुकारा गया है। यहाँ जादौ (यादव) राजपूतों की बस्तियाँ हैं।

(६)��� कन्नौजी से प्रभावित ब्रजभाषा - जिला एटा तथा तहसील अनूपशहर एवं अतरौली की भाषा कन्नौजी से प्रभावित है।

ब्रजभाषी क्षेत्र की जनपदीय ब्रजभाषा का रूप पश्चिम से पूर्व की ओर कैसा होता चला गया है, इसके लिए निम्नांकित उदाहरण द्रष्टव्य हैं :

जिला गुड़गाँवा में - ''तमासो देख्ने कू गए। आपस् मैं झग्रो हो रह्यौ हो। तब गानो बंद हो गयो।''

जिला बुलंदशहर में -''लौंडा गॉम् कू आयौ और बहू सू बोल्यौ कै मैं नौक्री कू जाङ्गौ।''

जिला अलीगढ़ में - ''छोरा गाँम् कूँ आयौ औरु बऊ ते बोलौ (बोल्यौ) कै मैं नौक्री कूँ जाङ्गो।''

जिला एटा में - ''छोरा गॉम् कूँ आओ और बऊ ते बोलो कै मैं नौक्री कूँ जाउँगो।''

इसी प्रकार उत्तर से दक्षिण की ओर का परिवर्तन द्रष्टव्य है-

जिला अलीगढ़ में -''गु छोरा मेरे घर् ते चलौ गयौ।''

जिला मथुरा में -''बु छोरा मेरे घर् तैं चल्यौ गयौ।''

जिला आगरा में -''मुक्तौ रुपइया अप्नी बइयरि कूँ भेजि दयौ।''

ग्वालियर (पश्चिमी भाग) में - 'बानैं एक् बोकरा पाल लओ। तब बौ आनंद सै रैबे लगो।''

जब से गोकुल वल्लभ संप्रदाय का केंद्र बना, ब्रजभाषा में कृष्ण विषयक साहित्य लिखा जाने लगा। इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि महात्मा सूरदास से लेकर आधुनिक काल के विख्यात कवि श्री वियोगी हरि तक ब्रजभाषा में प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य समय समय पर रचे जाते रहे।

सं. ग्रं. - डॉ. ग्रियर्सन, जी. ए. : मॉडर्नं वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑव हिंदोस्तान (एशियाटिक सोसायटी ऑव बंगाल, १८८९); आचार्य रामचंद्र शुक्ल : बुद्धचरित की भूमिका एवं हिंदी साहित्य का इतिहास (ना. प्र. सभा, वाराणसी); डॉ. धीरेंद्र वर्मा : 'ले लांग दि ब्रज' हिंदी भाषा और लिपि। (अंगिका प्रसाद सक्सेना)