ब्रजबुलि उस काव्यभाषा का नाम है जिसका उपयोग उत्तर भारत के पूर्वी प्रदेशों अर्थात् मिथिला, बंगाल, आसाम तथा उड़ीसा के भक्त कवि प्रधान रूप से कृष्ण की लीलाओं के वर्णन के लिए करते रहे हैं। नेपाल में भी ब्रजबुलि में लिखे कुछ काव्य तथा नाटकग्रंथ मिले हैं। इस काव्यभाषा का उपयोग शताब्दियों तक होता रहा है। ईसवी सन् की १५वीं शताब्दी से लेकर १९वीं शताब्दी तक इस काव्यभाषा में लिखे पद मिलते हैं।
यद्यपि 'ब्रजबुलि साहित्य' की लंबी परंपरा रही हैं, फिर भी 'ब्रजबुलि' शब्द का प्रयोग ईसवी सन् की १९वीं शताब्दी में मिलता है। इस शब्द का प्रयोग अभी तक केवल बंगाली कवि ईश्वरचंद्र गुप्त की रचना में ही मिला है।
'ब्रजबुलि' शब्द की व्युत्पत्ति तथा ब्रजबुलि भाषा की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में बहुत मतभेद है। यहाँ एक बात को स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ब्रजबुलि, ब्रजभाषा नहीं है। व्याकरण संबंधी दोनों की अपनी अपनी अलग अलग विशेषताएँ हैं, वैसे भाषातत्तव की दृष्टि से यह स्वीकार किया जाता है कि ब्रजबुलि का संबंध ब्रजभाषा से है। ब्रजबुलि के पदों में ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग अधिक देखने को मिलता है।
ब्रजबुलि की उत्पत्ति अवहट्ठ से हुई। अवहट्ठ संबंधी थोड़ी सी जानकारी प्राप्त कर लेना आवश्यक है। कालक्रम से अपभ्रंश, साहित्य की भाषा बन चुका था, इसे परिनिष्ठित अपभ्रंश कह सकते हैं। यह परिनिष्ठित अपभ्रंश उत्तर भारत में राजस्थान से असम तक काव्यभाषा का रूप ले चुका था। लेकिन यहाँ यह भूल नहीं जाना चाहिए कि अपभ्रंश के विकास के साथ साथ विभिन्न क्षेंत्रों की बोलियों का भी विकास हो रहा था और बाद में चलकर उन बोलियों में भी साहित्य की रचना होने लगी। इस प्रकार परवर्ती अपभ्रंश और विभिन्न प्रदेशों की विकसित बोलियों के बीच जो अपभ्रंश का रूप था और जिसका उपयोग साहित्य रचना के लिए किया गया उसे ही अवहट्ठ कहा गया है। डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी ने बतलाया है कि शौरसेनी अपभ्रंश अर्थात् अवहट्ठ मध्यदेश के अलावा बंगाल आदि प्रदेशों में भी काव्यभाषा के रूप में अपना आधिपत्य जमाए हुए था। यहाँ एक बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है कि यद्यपि अवहट्ठ काव्यभाषा के रूप में ग्रहण किया गया था फिर भी यह स्वाभाविक था कि प्रांत विशेष की छाप उसपर लगती, इसीलिए काव्यभाषा होने पर भी विभिन्न अंचलों के शब्द, प्रकाशनभंगी आदि को हम उसमें प्रत्यक्ष करते हैं।
'ब्रजबुलि' शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में कुछ लोगों ने अनुमान लगाया है कि 'ब्रजावली बोलि' का रूपांतर 'ब्रजाली बुलि' में हुआ और 'ब्रजाली बुलि' 'ब्रजबुलि' बना। यह क्लिष्ट कल्पना है। वास्तव में अधिक तर्कसंगत यह लगता है कि इस भाषा में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है अतएव कृष्ण की लीलाभूमि 'ब्रज' के साथ इसका संबंध जोड़ इस भाष को 'ब्रजबोली' समझा गया होगा जो बँगला के उच्चारण की विशिष्टता के कारण 'ब्रजबुलि' बन गया होगा।
ब्रजबुलि में लिखे पद मिथिला, बंगाल, असम और उड़ीसा में पाए गए हैं। असमी साहित्य में ब्रजबुलि का प्रमुख स्थान है। असम की ब्रजबुलि की रचनाओं में असमी भाषा का स्वभावत: सम्मिश्रण है। असम के वैष्णव भक्त कवियों में दास्य भाव की प्रधानता है। वे ब्रज से अधिक प्रभावित थे। बंगाल तथा उड़ीसा के भक्त कवियों में भी कहीं कहीं दास्य भाव के दर्शन होते हैं लेकिन उनमें सख्य और मधुर भाव की प्रधानता है। बंगाल और उड़ीसा का वैष्णव-शक्ति-साहित्य राधा और कृष्ण की लीलाओं से ओतप्रोत है, लेकिन असमी के ब्रजबुलि साहित्य में राधा का वैसा स्थान नहीं दिया गया है। मिथिला में विद्यापति के पदों में राधा की प्रमुखता है। ब्रजबुलि के कुछ नाटक भी मिले हैं लेकिन ये नाटक केवल नेपाल और असम में ही प्राप्त हुए है। बंगाल या उड़ीसा में ब्रजबुलि के नाटक अभी तक नहीं मिले हैं।
असम के भक्त कवियों में शंकरदेव (१४४९ ई.-१५६८ ई.) तथा उनके शिष्य माधवदेव (१४९८ ई.-१५९६ ई.) का मुख्य स्थान है। असम के जनजीवन तथा साहित्य पर शंकरदेव तथा उनके अनुयायियों का गहरा प्रभाव पड़ा। ब्रजबुलि को इन लोगों ने अपने प्रचार का साधन बनाया। उड़ीसा के भक्त कवियों में राय रामानंद का प्रमुख स्थान था। ये उड़ीसा के गजपति राजा प्रताप रुद्र (राजत्वकाल १५०४ ई.-१५३२ ई.) के एक उच्च अधिकारी थे। महाप्रभु चैतन्य और राय रामानंद के मिलन का जो वर्णन चैतन्य संप्रदाय के कृष्णदास कविराज ने 'चैतन्य चरितामृत' में किया है उससे पता चलता है कि मधुर भक्ति के रहस्यों से दोनों पूर्ण परिचित थे। उड़ीसा के अन्य कवियों में प्रतापरुद्र, माधवीदासी, राय चंपति के नाम आते हैं।
बंगाल में गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के भक्त कवियों की संख्या बहुत अधिक है। उनमें कुछ के नाम यों हैं : यशोराज खान (१६वीं शताब्दी का प्रारंभ), मुरारि गुप्त (१६वीं शती का प्रारंभ), वासुदेव घोष, रामानंद बसु, द्विज हरिदास, परमानंददास, ज्ञानदास (१५३० ई. के लगभग इनका जन्म हुआ), नरोत्तमदास, कृष्णदास कविराज, गोविंदराज कविराज। ब्रजबुलि के अंतिम श्रेष्ठ कवि के रूप में रवींद्रनाथ ठाकुर का नाम लिया जा सकता है। उनकी 'भानुसिंह ठाकुरेर पदावली' सन् १८८६ ई. में प्रकाशित हुई। ब्रजबुलि के पद, भाषा और भाव की दृष्टि से अत्यंत मधुर हैं। (रामपूजन तिवारी)