ब्रजनिधि (संवत् १८२१-१८६०) जयपुर नरेश प्रतापसिंह का काव्यप्रयुक्त उपनाम। प्रतापसिंह १४ वर्ष की अवस्था में सिंहासनारूढ़ हो गए थे। युद्धों में अत्यधिक व्यस्त एवं रोगों से ग्रस्त रहने पर भी इन्होंने अपने अल्प जीवन में लगभग १४०० वृत्तों का प्रणयन किया। लोकविश्रुत है कि महाराज परम भागवत थे।
भक्ति-रस-तरंग अथवा मन की उमंग में वे जो पद, रेखते अथवा छंद रचते थे, उन्हें उसी दिन या अगले दिन अपने इष्टदेव गोविंददेव तथा ठाकुर ब्रजनिधि महाराज को समर्पित करते थे। कम से कम पाँच वृत्त नित्य भेंट करने का उनका नियम था।
उनकी २२ रचनाएँ उपलब्ध हैं। किंतु सोरठ ख्याल, (३६ चरण की एक लघु रचना) उनके किसी पदसंग्रह का ही एक अंश दिखाई पड़ती है। २२ रचनाएँ, जिनका निजी स्वतंत्र अस्तित्व है, काल क्रम से इस प्रकार हैं : (क) संवत् १८४८ विरचित-प्रेमप्रकाश, फाग रंग, प्रीतिलता,। (ख) संवत् १८४९ प्रणीत-सुहागरैनि। (ग) १८५० लिखित-विरहसरिता, रेखतासंग्रह, स्नेहबिहार। (घ) संवत् १८५१ रचित-रमक-जमक-बतीसी, प्रीतिपचीसी, ब्रजशृगांर। (ङ) संवत् १८५२ कृत-सनेहसंग्राम, नीतिमंजरी, शृंगारमंजरी, वैराग्यमंजरी, (च) रंगचौपड़, (संवत् १८५३)। (छ) प्रेमपंथ, दुखहरनवेलि, रास का रेखता, श्रीब्रजनिधिमुक्तावली, ब्रजनिधि-पद-संग्रह, तथा हरिपदसंग्रह, इन शीर्षक छह कृतियों का रचनाकाल कवि ने नहीं दिया है। संख्या में २२ होने के कारण इन्हें 'ग्रंथबाईसी' कहते थे।
तीनों मंजरियाँ भर्तृहरि के शतकत्रय, क्रमश: 'नीतिशतक', 'शृंगारशतक' एवं 'वैराग्यशतक' का ब्रजभाषा में पद्यानुवाद हैं। अन्य रचनाओं में राधा गोविंद तथा ब्रजनिधि की भक्ति, उनका लीलाविहार, विरहव्यथा, उद्धव के प्रति गोपियों की उक्तियाँ, कुब्जा की निंदा, कवि का दैन्य एवं भक्तिसंपृक्त मनोभाव दर्शाए गए हैं। वस्तुत: कृष्ण राधा का वैभवसंपन्न रूप, नीति के पद तथा चौपड़ का खेल, स्नेह संग्राम तथा यत्र तत्र शस्त्रास्त्रों की उपमाएँ जहाँ ब्रजनिधि की राजोचित प्रवृत्तियाँ प्रदर्शित करती हैं, वहाँ कृष्ण के नटवर रूप के प्रति आकर्षण के ब्रजरज, यमुना, गोकुल, मथुरानिवास उनकी अनन्य भक्ति के परिचायक हैं। शांत रस के अतिरिक्त इन रचनाओं में वात्सल्य, शृंगार और हास्य रस के सुंदर उदाहरण मिलते हैं।
ब्रजनिधि की पदरचनाएँ राग-ताल-बद्ध हैं। वे स्वयं भी संगीतप्रेमी थे। इस दिशा में उनके उस्ताद थे चाँदखाँ उर्फ दलखाँजी, जो बुधप्रकाश के नाम से प्रसिद्ध हैं। अन्यत्र दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया, कुंडलियाँ, छप्पै, चौपाई, बरवै, रेखता प्रयुक्त हुए हैं। इनके काव्य में अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, श्लेष प्रभृति अलंकार अनायास ही आ गए हैं। 'रमक-जमक-बतीसी' में यमक की बानगी विशेष दर्शनीय है।
कवि ने अधिकतर ब्रजभाषा का प्रयोग किया है किंतु कई एक पद राजस्थानी और पंजाबी में भी हैं।
ब्रजनिधि ने अपने काव्य में अपने पूर्ववर्ती एवं समकालिक कवियों के लगभग १०० पद भी संगृहीत किए हैं। घनआनंद और नागरीदास का इनपर स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है। कई एक कवि आपके आश्रित थे। विश्वेश्वर महाशब्दे, बुधप्रकाश, भारतीय, रसपुंज, रसराज आदि विद्वानों ने आपकी प्रेरणा से संगीत, ज्योतिष, वैद्यक और काव्यग्रंथों का प्रणयन भी किया। फारसी के 'आइने अकबरी' और दीवान-ए-हाफिज' का भी हिंदी अनुवाद हुआ।
प्रतापसिंह ब्रजनिधि ने भवननिर्माण में भी विशेष रुचि दिखाई। चंद्रमहल के कई विशाल भवन रिधसिधपोल, बड़ा दीवानखाना, गोविंद जी के पिछाड़ी का हौज, हवामहल, गोवर्धननाथ, ब्रजराजबिहारी, ठाकुर ब्रजनिधि तथा मदनमोहन जी के मंदिर आपके स्थापत्य कलाप्रेम के द्योतक हैं।
सं. ग्रं. - पुरोहित हरिनारायण शर्मा (संकलित) : ब्रजनिधि ग्रंथावली (नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी, प्रथमावृत्ति सं. १९९०)। (नवरत्न कपूर)