बोस, सुभाषचंद्र भारतीय स्वाधीनता संग्राम के उन महारथियों में एक हैं जिनका नाम इतिहास में सदैव अमर रहेगा। द्वितीय विश्वमहायुद्ध के समय दक्षिण पूर्व एशिया के रणप्रांगण में आजाद हिंद फौज का संगठन करके और 'जयहिंद' तथा 'दिल्ली चलो' के नारे बुलंद करके उन्होंने अपना 'नेता जी' उपनाम सार्थक कर दिया। अपने शौर्य और संगठनशक्ति द्वारा दलित मानवता का उद्धार करनेवाली शिवाजी, वाशिंगटन, गैरीबाल्डी, कमाल अतातुर्क और ट्राट्स्की जैसी विश्व की अमर विभूतियों की कोटि में नेता जी सुभाषचंद्र बोस का नाम सहज ही गिनाया जा सकता है। महात्मा गाँधी के 'भारत छोड़ो' आंदोलन को नेता जी ने अपनी आजाद हिंद फौज के कार्यकलापों द्वारा बहुत शक्तिशाली बनाया, जिसका संगठन करने में उनके इस आह्वान ने -मुझे खून दो! मैं तुम्हें आजादी दूँगा!! जादू जैसा कमाल दिखाया।

सुभाष बाबू का जन्म २३ जनवरी, १८९७ को कटक में हुआ। उनके पिता श्री जानकीनाथ बोस कटक के प्रमुख वकील थे और माता प्रभावती देवी थीं। वे अत्यंत मेधावी किंतु साथ ही उद्दंड विद्यार्थी थे। स्वदेश में ही स्कूल और कालेज की पढ़ाई समाप्त करके वे लंदन में १९२० में आइ. सी. एस. परीक्षा में बैठे और उसमें सफल हुए। किंतु प्रशिक्षण अवधि में ही उन्होंने इस ऊँची नौकरी से इस्तीफा दे दिया। इंग्लैंड से स्वदेश वापस आकर वे सीधे महात्मा गांधी के पास गए, जिन्होंने भारत में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध देशव्यापी असहयोग आंदोलन उसी समय प्रारंभ किया था। सुभाष बाबू उस समय २४ वर्ष के नवयुवक थे और महात्मा गांधी की पारखी राजनीतिक दृष्टि ने नवयुवक सुभाष के हृदय में उद्दीप्त देशभक्ति की लगन को पहचान लिया। गांधी जी के आदेशानुसार सुभाष बाबू बंगाल के महान् नेता देशबंधु चित्तरंजनदास से मिले और पहली ही भेंट में उनको अपना राजनीतिक गुरु मान लिया। दास बाबू भी अपने इस शिष्य से बहुत प्रभावित हुए और विनोद में उन्हें 'यंग ओल्ड मैन' कहा करते थे।

सुभाषचंद्र बोस ने १९२१ में कलकत्ता में प्रिंस ऑव् वेल्स का पूर्ण बहिष्कार करने में पहली बार अपनी संगठनशक्ति का परिचय दिया। जिस अवधि में देशबंधु चित्तरंजन दास कलकत्ता के मेयर थे, सुभाष बाबू ने नगर के निगम चीफ़ एक्जिक्यूटिव अफसर की हैसियत से प्रशासक शक्ति और अतिशय कार्यक्षमता का प्रशंसनीय उदाहरण प्रस्तुत किया। अंगरेजी सरकार ने उनकी गतिविधियों से भयभीत होकर उन्हें मांडले जेल में नजरबंद कर दिया। उनपर यह आरोप लगाया गया कि वे बंगाल के आतंकवादियों के प्रति सक्रिय सहानुभूति रखते हैं। १९२० के अंत में शारीरिक अस्वस्थता के कारण सुभाष बाबू को बिना शर्त रिहा कर दिया गया। परंतु गिरे हुए स्वास्थ्य के बावजूद वे राजनीति में सक्रिय भाग लेने लगे-अपना सारा समय वे युवकों के संगठन और ट्रेड यूनियन आंदोलन में देते थे।

जब १९२८ में मोतीलाल नेहरू समिति ने देश की स्वाधीनता के संबंध में 'डोमिनियन स्टेटस' के पक्ष में प्रतिवेदन प्रस्तुत किया, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस ने उसका तीखा विरोध किया और इस बात पर बल दिया कि वे पूर्ण स्वतंत्रता के अतिरिक्त किसी भी स्थिति को मान लेने के पक्ष में नहीं हैं। फलत: 'इंडिपेडेंस लीग' की स्थापना की घोषणा कर दी गई, और भारत के संविधान को पूर्ण स्वतंत्रता पर आधारित करने के लिए पूरे वेग से आंदोलन छेड़ दिया गया। कलकत्ता कांग्रेस (१९१७) में, जिसकी अध्यक्षता मोतीलाल नेहरू ने की थी, नेहरू कमेटी की सिफारिशों की स्वीकृति के हेतु प्रस्तुत किए गए प्रस्ताव पर जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस ने मिलते जुलते संशोधन पेश किए थे। उनका लक्ष्य, भारत के लिए डोमिनियन स्टेटस के प्रस्ताव को अमान्य करना था जो सर्वदलीय सम्मेलन में निर्मित संविधान में सम्मिलित किया गया था। यद्यपि सुभाष बाबू इसमें तत्काल सफल नहीं हुए, तथापि वे, बिना निराश हुए, कांग्रेस अधिवेशन के पश्चात् अपने प्रयत्नों में लगे रहे।

कलकत्ता कांग्रेस में अंग्रेजी सरकार को दिए गए एक वर्षीय अल्टीमेटम से देश में जोश की लहर फैल गई थी और लाहौर कांग्रेस में, जो १९२९ में रावी के तट पर जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ, एक प्रस्ताव पारित करके यह स्पष्ट घोषणा की गई थी कि कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वराज्य है, जिसमें ब्रिटेन से संबंधविच्छेद का भी भाव सम्मिलित है। इस प्रकार वह अभियान, जिसमें सुभाषचंद्र बोस ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, लाहौर में सफल हुआ। इसके तुरंत बाद इंडिपेंडेंस लीग विघटित कर दी गई क्योंकि इसका उद्देश्य पूरा हो चुका था। इस प्रकार १९२०-१९३० की अवधि में सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस युवक संगठन और ट्रेड यूनियन में सुधारवादी परिवर्तन लाने का काम कर रहे थे, जिससे कांग्रेस भारतीय जनता, खेतों और कारखानों में जूझनेवाले श्रमिकों पर आधारित हो सकी। यह एक ऐसा कदम था जिसने कांग्रेस को संघर्षपथ पर और आगे बढ़ाया।

गांधी जी के १९३० के सत्याग्रह ने सुभाष को घनघोर संघर्ष में झोंक दिया। सरकार ने पहले की तरह उन्हें पुन: जेल में बंद कर दिया। उसी समय उनका स्वास्थ्य इतना खराब हो गया कि सरकार को उन्हें स्वास्थ्यलाभ करने के लिए यूरोप जाने की स्वीकृति देनी पड़ी। विदेश में उन्होंने भारत और यूरोप के बीच सांस्कृतिक और राजनीतिक संबंध दृढ़ करने की दृष्टि से अनेक यूरोपीय राजधानियों में विचारकेंद्र स्थापित किए। कांग्रेस पार्टी ने अभी तक इस प्रकार के काम की ओर ध्यान नहीं दिया था और सुभाष उन पहले लोगों में थे, जिन्होंने द्रुत गति से परिवर्तनशील और परस्पर आश्रित संसार में इस तरह के प्रचार पर बल दिया।

वे अपने कुछ मित्रों के आग्रह पर कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन (१९३६) में भाग लेने के लिए भारत लौटे, किंतु स्वदेश की धरती पर कदम रखते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी गिरफ्तारी का देशव्यापी विरोध हुआ। केंद्रीय धारासभा में कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन नेता श्रीभूलाभाई देसाई ने सदन में कार्यस्थगन का प्रस्ताव रखा। उसका विरोध करते हुए सरकारी प्रवक्ता ने कहा था-सुभाष बोस जैसा तीक्ष्णबुद्धि और संगठनक्षमता का व्यक्ति किसी भी राज्य के लिए खतरनाक होगा। सुभाष बाबू जेल में पुन: बीमार पड़ गए, और उनका स्वास्थ्य तेजी से गिर गया। १९३७ के आम चुनाव 'गवर्नमेंट ऑव इंडिया ऐक्ट', १९३५ के अंतर्गत हुए। इसके पश्चात् ११ राज्यों में से ७ में कांग्रेस मंत्रिमंडल बनने पर सुभाष बाबू तुरंत रिहा कर दिए गए। उसके बाद कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन (१९३८) में वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष निर्वाचित हुए।

सुभाष बाबू अपने लक्ष्यों के लिए एक दृढ़संकल्प क्रांतिकारी तो थे, किंतु लक्ष्यप्राप्ति की प्रक्रिया के संबंध में दुराग्रही नहीं थे। उनकी दृष्टि में सफलता के लिए संगठन अनिवार्य रूप में आवश्यक था और अनुशासित एकता ही लक्ष्य तक पहुँचानेवाला मार्ग थी। किसी निश्चित समय में किसी एक तरीके का महत्व वे आंतरिक तथा अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के संदर्भ में आँकते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान देश में तथा देश के बाहर उनकी इस नीति और दाँव पेच का अच्छा प्रमाण मिला। हरिपुरा अधिवेशन (फरवरी, १९३८) में उनका अध्यक्षीय भाषण कांग्रेस की समयोचित नीतियों की स्पष्टता की दृष्टि से उल्लेखनीय था, और किसी हद तक कांग्रेस के भीतर फारवर्ड ब्लाक में अभ्युदय की ओर संकेत करता था। एक वर्ष बाद फारवर्ड ब्लाक बन भी गया।

कांग्रेस अध्यक्षों में सुभाष पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने देश की उन्नति की योजना का ठोस प्रस्ताव प्रस्तुत किया, और कुछ महीनों के बाद ही उन्होंने राष्ट्रीय योजना समिति की स्थापना करके अपने विचार को कार्यरूप दिया। हरिपुरा अधिवेशन में उन्होंने कहा था 'योजना आयोग के परामर्श पर राज्य उत्पादन और वितरण दोनों में संपूर्ण कृषि और उद्योग के क्रमिक समाजीकरण का व्यापक कार्यक्रम बनाएगा।'

हरिपुरा कांग्रेस के बाद के वर्ष में अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति बहुत ही बिगड़ हुई। यूरोप के संपूर्ण अंतरिक्ष मे युद्ध के बादल छा गए। ऐसे ही उत्तेजनाच्छन्न वातावरण में कांग्रेस का त्रिपुरी अधिवेशन हुआ (1939)।

कांग्रेस के इतिहास में प्रथम बार अध्यक्षपद के लिए खुला निर्वाचन हुआ। सुभाषचंद्र बोस और डा. पट्टाभि सीतारामय्या इस पद के लिए प्रत्याशी थे। डा. सीतारामय्या को गांधी जी और कांग्रेस हाई कमान का समर्थन प्राप्त था। दोनों प्रत्याशियों के बीच विवाद इस प्रस्ताव पर था कि भारत के लिए संघ-शासन-योजना के आधार पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद से समझौता किया जाए या नहीं। सुभाष ने बिगड़ती हुई अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों और युद्ध की निश्चितता की संभावना के संदर्भ में इस प्रस्ताव की निंदा की थी।

सुभाष पुन: निर्वाचित हो गए, परंतु दुर्भाग्य से उनके निर्वाचन से पार्टी में एक संकट पैदा हो गया, जो कांग्रेस के इतिहास में अपना सानी नहीं रखता। गांधी जी ने सुभाष की इस जीत को स्वयं अपनी हार माना। गांधी जी इस प्रतिक्रिया के अनुसार कार्यसमिति के सभी सदस्यों ने समिति से यह कहकर त्यागपत्र दे दिया कि वे सुभाष बाबू के कार्यक्रम और नीतियों के मार्ग में बाधक नहीं बनना चाहते।

रोगशय्या पर पड़े पड़े उन्होंने अपना अध्यक्षीय भाषण लिखा। शक्तिक्षीणता के कारण वे खुले अधिवेशन में भाग नहीं ले पाए और उनका भाषण उनके बड़े भाई शरत्चंद्र बोस ने पढ़ा। भाषण में उन्होंने अगले छह मास के भीतर संसार में साम्राज्यवादी युद्ध छिड़ जाने की भविष्यवाणी की और कहा था कि उसी समय भारत के स्वराज्य की माँग उपस्थित करके छह महीने का तत्संबंधी अल्टिमेटम अंग्रेजी सरकार को देना चाहिए। किंतु तत्कालीन कार्यसमिति ने उनके अल्टिमेटम के प्रस्ताव का विरोध किया। तीन वर्ष पश्चात् अगस्त, १९४२ में महात्मा गांधी और उनके साथियों ने उसके महत्व को समझा।

आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के कलकत्ता अधिवेशन (अप्रैल, १९३९) में सुभाष बाबू ने कांग्रेस अध्यक्ष बने रहने की व्यर्थता समझकर त्यागपत्र दे दिया। कांग्रेस को स्वतंत्रता की लोक इच्छा का प्रतीक बनाने के लिए उसका लोकतंत्रीकरण और पुनर्नवीकरण करने के निमित्त उन्होंने मई, १९३९ में कांग्रेस के अंतर्गत फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की घोषणा। की तदनुसार जून, १९३९ में उनके नेतृत्व में वामपंथी एकता समिति की स्थापना हुई जिसमें कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी (राष्ट्रीय मोर्चा), एम. एन. राय की रेडिकल डिमोक्रेटिक पार्टी, कई ट्रेड यूनियन संगठन तथा किसान सभाएँ और नवजात फारवर्ड ब्लाक के प्रतिनिधि सम्मिलित थे। इस समिति के प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन में, जो बंबई में हुआ, पूर्ण स्वतंत्रता तथा स्वतंत्रता के पश्चात् समाजवादी राज्य की स्थापना के लक्ष्य स्वीकार किए गए।

अप्रैल, १९४० में फारवर्ड ब्लाक के आह्वान पर भारत में देशव्यापी सत्याग्रह छिड़ गया। सत्याग्रह की इस लहर से सुभाष बाबू को बड़ा ही उत्साह मिला और उसके नागपुर अधिवेशन में फारवर्ड ब्लॉक को एक स्वतंत्र दल के रूप में घोषित कर दिया गया। अब वह कांग्रेस के भीतर प्रगतिशील तत्वों का मंच मात्र नहीं था।

जुलाई, १९४० में हालवेल स्मारक विरोधी सत्याग्रह के दौरान बंगाल सरकार ने उनको भारतरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया। उन्हें उनके घर में नजरबंद कर दिया गया। जनवरी, १९४१ में वे भाग निकले, और पेशावर, काबुल तथा मास्को होते हुए बर्लिन पहुँच गए। बर्लिन में नेता जी हिटलर से मिले और भारत की स्वाधीनता समस्या पर उससे वार्ता की। जनवरी, १९४२ में नेता जी ने जर्मनी में 'स्वतंत्र भारत स्वयंसेवक दल' की स्थापना की जिसमें अधिकतर सैनिक भारतीय युद्धबंदी थे। वे बर्लिन रेडियों से नियमित रूप से अपना भाषणा प्रसारित करते थे, जिससे भारत में विशेष उत्साह की लहर फैली।

१९४२ में जब अंग्रेजी, फ्रांसीसी और डच साम्राज्यवाद पूर्वी एशिया में जापानी ब्लित्ज़कीग के मुकाबले चूर चूर हो गया तो नेता जी को लगा जैसे उनके कूद पड़ने का समय आ गया। जर्मन और जापानी सेनाओं के सहयोग से वे १९४३ के आरंभ में जर्मनी से रवाना हो गए, और हंबर्ग से पेनांग तक पनडुब्बी में बैठकर तीन मास की कठिन यात्रा के पश्चात् वे टोकियो पहुंचे। वहाँ २ जुलाई, १९४३ को वे सिंगापुर पहुंच गए।

दो दिन बाद ४ जुलाई को उन्हें रासबिहारी बोस ने दक्षिण पूर्व एशिया में चलाए जानेवाले भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का नेतृव सौंप दिया। नेता जी ने आजाद हिंद फौज का संगठन किया। भारत की अस्थायी सरकार का गठन वहीं हुआ, जिसके वे अध्यक्ष बनाए गए। दिसंबर में अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह स्वतंत्र करा लिए गए, जिनके नाम शहीद और स्वराज द्वीपसमूह रखे गए। जनवरी, १९४४ में आजादहिंद फौज का मुख्य कार्यालय रंगून लाया गया। अपनी मातृभूमि की ओर निरंतर बढ़ते हुए आजादहिंद फौज ने बर्मा की सीमा पार कर १८ मार्च, १९४४ को भारत की धरती पर पैर रखे।

सैनिकों को अपनी जन्मभूमि का दर्शन करके असीम प्रसन्नता हुई, उन्होंने प्रेमविह्वल होकर भारतमाता की मिट्टी को चूमा। वह बहादुर सेना तब कोहिमा और इंफाल की ओर बढ़ी। 'जय हिंद' और 'नेता जी ज़िंदाबाद' के गगनभेदी नारों के साथ स्वतंत्र भारत का झंडा वहाँ फहराया गया१ किंतु हिरोशिमा और नागासाकी पर अमरीकी बमवर्षा ने जापान को हथियार डालने पर मजबूर कर दिया और आजाद हिंद फौज को पीछे हटना पड़ा।

१८ अगस्त १९४५ को फारमोसा के ताहपेह नामक स्थान में वायुयान दुर्घटना में नेता जी की मृत्यु का समाचार मिला। निर्भय योद्धा, कर्मवादी दार्शनिक और विलक्षण राजनीतिज्ञ नेता जी उस समय ५० वर्ष के भी नहीं थे। (हरिविष्णु कामथ.)