बोगी (Bogie), वाहनों के आगे और पीछेवाले धुरों के बीच का फासला जितना ही कम रखा जावे, उतना ही, पहियों की कोरों में घर्षण और पहियों के रेल से उतरने का खतरा बिना पैदा किए, सुरक्षापूर्वक रेलवाहनों के यातायात के लिए, अच्छा है। लेकिन आधुनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, लंबे वाहन बनाना और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण रेलमार्ग में कम त्रिज्या के मोड़ बनाना भी कई जगहों पर अनिवार्य हो जाता है। अत: लंबे वाहनों की इस असुविधा को दूर करने के लिए सन् १८१२ ई. में इंग्लैंड के विलियम चैपमैन नामक एक रेल इंजन निर्माता ने, इंजनों में लगाने के उद्देश्य से एक चौपहिया बोगी की अभिकल्पना की, जिसके धुरों का स्थिर फासला लगभग ६ फुट था। यातायात के इंजनों में इस प्रयुक्ति का सफलतापूर्वक प्रयोग १८३३ ई. से आरंभ हुआ। १८४४ ई. में इंग्लैंड के जोज़ेफ राइट नामक इंजीनियर ने अपने बनाए सवारी वाहन के नीचे दो बोगियाँ लगाकर उसका पेंटेंट करवाया। सन् १८७४ के बाद तो अमरीका और इंग्लैंड दोनों देशों में बोगीयुक्त वाहन काफी संख्या में बनने लगे। बहुत बड़े वाहनों के लिए तीन धुरों, अर्थात् ६ पहियों, की बोगियाँ भी अब बनाई जाती हैं।

मूलत: बोगी दो धुरोंवाले, चार पहियों के, ठेले के रूप में होती है। इसके ऊपरी तल के बीच में एक बड़ा छेद बना होता है, जिसमें वाहन के नीचे की तरफ स्थिरता से जड़ी हुई चूलनुमा एक ऊर्ध्वाधर कीलक फँस जाती है और रेलपथ के मोड़ों पर वह समग्र ठेला ही उस चूल के सहारे आवश्यकतानुसार थोड़ा घूम जाता है और रेल पथ का सीधा भाग आते ही वह ठेला फिर वापस सीधा हो जाता है। इस सब क्रिया में मुख्य वाहन का ऊपर वाला ढाँचा सीधा रहता है। बोगी के उक्त ढाँचे पर, जो टेढ़ा सीधा होकर चलता रहता है, प्राय: आकुँचन (bucketing) और पार्श्व विकृतियाँ (racking strains) काफी मात्रा में पड़ा करती हैं। अत: इसे समुचित प्रकार से दृढ़ बनाना पड़ता है। वाहनों की बोगियों के ढाँचों को तो उसी शैली के अनुसार बनाया जाता है जिसमें उन वाहनों के निचले ढाँचे (Under frames) बनाए जाते हैं और इंजनों की बोगियाँ इंजनों के फ्रेम की शैली के अनुसार बनाई जाती हैं।

चित्र १. (देखें फलक) में सवारी तथा मालगाड़ियों की बोगी का पार्श्व, सामने तथा प्लान के दृश्य दिखाकर, उसकी पूरी बनावट दिखाई है। इसके विभिन्न भागों को रिवेट द्वारा अथवा वेल्डिंग से जोड़ते हैं। फिर उचित प्रकार की भट्ठियों में तपाकर आंतरिक विकृतियाँ दूर कर लेते हैं। बोगी का केंद्रीय कीलक (pivot) भी दो भागों में बनाया जाता है, जिसका ऊपरी भाग तो गाड़ी की निचली फ्रेम के आड़े अवयवों में स्थिरता से जड़ दिया जाता है और निचला भाग बोगी के ढाँचे की आड़ी स्लाइड में सरकता रहता है। दोनों के संपर्कतलों में से एक को अवतल (concave) और दूसरे को उसी के अनुरूप उत्तल (convex) बनाते हैं। कीलक के निचले भाग की सतह पर तेल की झिरियाँ काटकर, उनमें तेल या ग्रीज़ भर देते हैं, जिससे उनके बीच घर्षण कम हो जाता है। इन दोनों के केंद्र में छेद करके एक मोटी पिन भी फँसा देते हैं, जिससे गाड़ी के उछलकर चलते समय वे अलग न हो जाएँ। बोगी की आड़ी स्लाइड की सतहों पर भी ग्रीज़ आदि लगाने का प्रबंध किया जाता है।

इंजन की बोगियाँ - चित्र २. (देखें फलक) में इंजन के एक बोगी की बनावट पार्श्व और बीच में से आड़ी काट करके दो दृश्यों में दिखाई है। इसमें बोगी के फ्रेम प्लेट उसी प्लेट में से बनाए जाते हैं जिससे कि इंजन का फ्रेम बनता है। इसमें इस्पात के बने दो बेयरिंग कास्टिंग, दोनों फ्रेम प्लेटों के बीच में लगभग १० के फासले से समांतर जड़ दिए जाते हैं। इनकी दूरी बोगी की मध्य रेखा से बराबर रहती है, जिससे वे केंद्रीय कास्टिंग 'क' के निचले भाग के लिए मार्गदर्शिका (guide) का काम कर सकें, क्योंकि वह इन्हीं के ऊपर टिककर, बगलियों में एक सीमा के भीतर भीतर सरकता है। अत: इन बेयिरिंग कास्टिंगों के रूप में जो मार्गदर्शिका बनती है, उसकी लंबाई लगभग दो फुट और चौड़ाई दोनों तरफ ६ इंच के लगभग होती है। केंद्रीय कास्टिंग क में बने छेदों तथा खाँचों द्वारा इनपर तेल की चिकनाई फैलती रहती है। केंद्रीय कास्टिंग के ऊपरी भाग को गोल थालीनुमा चौरस खरादकर बना देते हैं, जिसमें पीतल का बना थालीनुमा ही एक अस्तर (liner) लगभग १ फुट ९ इंच व्यास तथा श्मोटा लगा दिया जाता है, जो सैडल प्लेट स और उपर्युक्त कास्टिंग क के बीच दबा रहता है। इंजन का सैडल प्लेट स, जो ढले इस्पात से ही बनाया जाता है, अपनी फ्लैंजों के द्वारा, इंजन के मुख्य फ्रेंम प्लेटों में श्व्यास के, सही सही खरादे हुए, टाइट फिट बोल्टों द्वारा स्थिरता से कस दिया जाता है। सैडल प्लेट स का निचला भाग भी थाली के रूप में सही सही खराद कर पीतल के उपर्युक्त घर्षण वाश्र (अस्तर) पर टिकाव खाने योग्य बनाया जाता है। इनके बीच में रहनेवाली कम से कम ६ व्यास की बेलनाकार चूल भी सही खरादकर ऐसी बनाते हैं कि वह घर्षण वाशर और केंद्रीय कास्टिंग क के मध्य में बने तथा सही सही बोर किए छेद में से होकर लगभग १० नीचे निकल आती है। इस प्रकार की मजबूत बनी चूल के सहारे से ही बोगी का ठेला रेलपथ के मोड़ों पर आवश्यकतानुसार घूम जाता है। रास्ते में चलते समय, रेल पथ की स्वल्प ऊँचाई निचाई के कारण, जब इंजन कुछ उछलता है, उस समय यह चूल कहीं निकल न जाए इसलिए इसके केंद्र में भी एक छेद बनाकर, उसमें एक मजबूत पिन प फँसा दी जाती है और नीचे की तरफ से उसे एक मजबूत नट और वाशर द्वारा कस देते हैं। कई इंजनों में उक्त चूल और पिन एकांगी ही बनाई जाती हैं। चित्र में ट चि्ह्रत दो मोटे स्टे (stay) भी लगे दिखाए हैं, जिनसे बोगी की फ्रेम को और भी अधिक दृढ़ता प्राप्त होती है। चित्र में ह एक्सल बक्सों के हॉर्न स्टे, ब बेयरिग कमानी और फ, उनका भार पारेषक बीम है, जिसके सिरों के माध्यम से इंजन का बोझा ऐक्सल के बक्सों पर पड़ता है। चित्र में दाहिने हाथ की तरफ बने काट के दृश्य में, एक एक मोटी छड़ों में, जो ब्रेकटों के द्वारा स्थिरता से चूल के दोनों तरफ थमी हुई हैं, रबर की गद्दीनुमा कमानियाँ पिरो दी गई। इनका काम रास्ते की मोड़ों पर चूल के एक तरफ सरक जाने के बाद, सीधा रास्ता आने पर, उसे फिर से मध्य में लाना होता है।

जब रेल इंजनों के आगे के भाग में अधिक बोझा नहीं होता, अथवा जगह की कमी के कारण चौपहिया बोगी नहीं लग सकती तब उसके बदले में एक धुरेवाली बोगी ही लगाते हैं। चित्र ३. (देखें फलक) में तिकोने फ्रेमवाली बोगी की बनावट तीन दृश्यों में दिखाई है, जिसे बिसल ट्रक (Bissel truck) भी कहते हैं। इस तिकोने फ्रेम के शीर्ष को एक मजबूत पिन द्वारा, इंजन की मुख्य फ्रेम के आड़े स्टे के नीचे की तफ स्थिरता से अटका देते हैं, जिसपर यह अंशत: घूमती रहती हैं।

रेलमार्ग की मोड़ों पर, इंजन के चक्कों के स्थिर आधार को लचीलापन देन का एक तरीका त्रिज्यीय ऐक्सल बक्स (Radial axle box) का प्रयोग करना भी है। इसकी बनावट चित्र ४. (देखें फलक) में दिखाई है। इसकी क्रिया पूर्वोक्त बोगियों के सिद्धांत से सर्वथा भिन्न है, क्योंकि इसके धुरे पर लगे ऐक्सल बक्स ही अपनी वक्र गाइडों में, मोड़ आने पर, स्वयं तिरछे हो जाते हैं। अत: मध्यरेखा के दोनों तरफ इनकी पार्श्विक चाल (Sideplay), लगभग रखना होता है।

बिसल ट्रक में रेडियल ऐक्सल बक्सों की अपेक्षा घर्षण कम होता है, क्योंकि बिसल ट्रक की स्विंग लिंकें, रेडियल बक्सों की अपेक्षा, रास्ते की मोड़ों पर तिरछी होते समय कम मात्रा में प्रतिरोध उपस्थित करती है। रेडियल ऐक्सल बक्सों की त्रिज्यीय गाइडों में तथा उसकी कमानियों द्वारा काफी प्रतिरोध प्रसतुत होता है। अत: कई लोग रेडियल ऐक्सल बक्सों को इंजन के पिछले भाग में ही लगाना पसंद करते हैं। बिसल ट्रक में यह दोष है कि उसकी कड़ियाँ अपनी अपनी पिनों में काफी ढीली रहती हैं, क्योंकि घूमते समय उनमें काफी मरोड़ बल पड़ता है। अत: उसकी चाल में स्थिरता कम रहती है; वैसे तो उसके ऊपर लगा प्रतिकारी दंड (compensating beam) स्थिरता बनाए रखने में काफी सहायक होता है।

सं. ग्रं.-लेनीस : रेलवे कैरैज ऐंड वैगंस इन थ्योिरी ऐंड प्रैक्टिस (ओंकारनाथ शर्मा.)