बैंबिलोनिया (बाबुल) ईराक, जिसे प्राचीन ग्रीक द्वाब, नदियों के बीच का देश, मैसोपोटामिया कहते थे, कभी प्राचीनतम मानव सभ्यताओं की क्रीड़ाभूमि था। दजला और फरात की इसी घाटी में दोनों नदियों के बीच सुमेरी बावुली और असूरी संस्कृतियाँ फली फूलीं। यदि हम नदियों की इस घाटी को उत्तर और दक्षिण के दो भागों में बांट दें तो उत्तरी भाग प्राचीन असूर देश होगा, असीरिया, और दक्षिणी बाबुल होगा, बैबिलोनिया। असीरिया अधिकतर दजला के उत्तर का देश था। असीरिया और बाबिलोनिया अपने साम्राज्य काल में स्वाभाविक ही अपनी प्राकृतिक सीमाएँ लांघ गए थे। सुमेर या सुमेरिया नदियों के बीच उनके मुहानों के पास दक्षिण बैबिलोनिया की सीमा में ही अवस्थित था और अधिकतर सागरवर्ती था। (दे. इराक)

प्राचीन काल में बैबिलोनिया की पूर्वी सीमा दक्षिण-पश्चिम के एलाम राज्य और फारस की खाड़ी से लगी थी और उत्तरी असीरिया से, और उसके दक्षिण और पश्चिम अरब का मेरु प्रसार चलता चला गया था। इस देश के प्रधान नगर राजधानी बाबुल (संस्कृत, बावेरु) के अतिरिक्त, निप्पुर एरेख (उरूक, आधुनिक वर्का), लार्सा, ऊर, एरिदू और बोर्सिप्पा थे। बैबिलोनिया का विस्तार उस स्थल से आरंभ होता था जहाँ फरात और दजला की शाख बात-एल-हैय का संगम है। उसके दक्षिण-पश्चिम जैसे रेगिस्तान फैला था वैसे ही उत्तर-पूर्व पठारी भूमि थी। और इन दोनों के बीच की भूमि बैबिलोनिया, प्राचीन आक्रमणशील जातियों का प्यारा शिनार का मैदान, सर्वथा पर्वतहीन था, नदियों के बीच की उनके तटों की भूमि या उनसे निकली नहरों से सींची जानेवाली धरती असाधारण उपजाऊ है। अन्न छोड़ आवश्यकता की सभी वस्तुएँ बाबुली बाहर से मँगाते थे-पत्थर अरब और असीरिया से, लकड़ी लेबनान से, सोना, चाँदी और सीसा (राँगा) लघु एशिया से, और ताँबा अरब और फारस से। असूरिया का देश इससे भिन्न था, दजला के पूर्व कुर्दिस्तान के पहाड़ों तक फैला, चार चार धाराओं से सिक्त, संसार के रुचिरतम देशों में से एक, जहाँ गेहूँ और जॉ के खेत लहराते थे, और अंगूरी बेलों के प्रसार के बीच बीच जैतून और आडू के जंगल थे। मरुविस्तार के कारण ही प्रचीन बैबिलोनिया में नहरों का बड़ा माहात्म्य था और महान् राजाओं के महात्तम अभियानों में उनका निर्माण माना जाता था।

प्राचीन काल में बैबिलोनिया का नाम सुमेर (प्राचीन ग्रीकों का सुमेरिया) और अक्काद (अक्कादिया) था। बाद में सामी राजाओं के शासनकाल में, विशेषत: हम्मुराबी के समय, जब बाबुल साम्राज्य की राजधानी और प्रधान नगर बना उसी के नाम से देश की संज्ञा प्रसिद्ध हुई। कस्सी राजाओं के समय उस देश का नाम 'कार्दु नियाश' था। सुमेरी नगरराज्य और अक्कादी साम्राज्य वहाँ उठे और गिरे और असूरी, अमुर्री, खत्ती, हुर्री, कस्सी, खल्दी और ईरानी आर्यों की महत्वाकांक्षा ने उसे अपनी क्रीड़ाभूमि बनाया। ७० साल तक वहाँ बाइबिल की प्राचीन पोथी के यहूदी नबियों ने अपनी तपश्चर्या का बंदी जीवन बिताया और अपनी धर्मपुस्तक के पाँच प्राचीनतम पुनीततम भाग, 'पैंतुतुख', लिखे। बाइबिल का नाम ही उस प्राचीन देश की राजधानी बाबुल से पड़ा। सही ग्रीक 'बिब्लस' से बाइबिल की उत्पत्ति मानी जाती है, पर स्वयं पुस्तकार्थक शब्द 'बिब्लस्' की व्युत्पत्ति भी तो मूलत: उन्हीं बाबुली ईटों से संबंधित है जिनपर सुमेरी अक्कादी कीलनुमा लिखावट में पुस्तकें खुदी थीं और जिस आधार से प्राचीन ग्रीक वर्णमाला की मूल इब्रानी और फिनीशी वर्णमालाएँ उठीं।

बैबिलोनिया के इतिहास के प्रधानत: चार अंग हैं, अशेमी सुमेरी, शेमी अक्कादी, साम्राज्यवादी शेमी असूरी, और खल्दी। सागरवर्ती और नदियों के मुहाने की दलदल पर प्राय: ४००० ई. पू. में ही गाँव बसने लगे थे, जैसा अल उबैद और वर्का की खुदाइयों से प्रकट होता है। इसके बाद ही ३५०० ई. पू. के लगभग सुमेरी सभ्यता ने वहाँ की भूमि में अपनी जड़ें फेंकना शुरू किया। उन अद्भुत और प्राचीन लिपियों में सबसे महत्वपूर्ण कीलाक्षरी लिपि का सुमेरियों ने आविष्कार किया जिसमें सारे प्रधान और गौण सुमेरी, अक्कादी, असूरी, खत्ती, हुर्री ग्रंथ और हजारों राजनीतिक तथा व्यावसायिक अभिलेख सहस्राब्दियों, ई. पू. प्राय: ३५०० और दूसरी सदी ईसवी के बीच, लिखे जाते रहे। इनका क्षेत्रविस्तार पूरब में पाकिस्तानी पंजाब (अशोकीय खरोष्टी के रूप में) और फारस (एलामी, अरमई और फारसी के रूप में), पश्चिम में लघु एशिया-अनातोलिया तक, फिर दक्षिण में एरेख-येमेन से उत्तर में अरमीनिया-उरातूँ (आरारात) और कुर्दिस्तान (कास्पियन सागर) तक था। इस लिपि के प्राचीनतम चित्रलिपिप्राय जल-प्रलय-पूर्व के अभिलेख वर्का (एरेख) में मिले हैं, जो ३००० ई. पू. से भी पहले के हैं।

इस गैरशेमी सभ्यता की सामग्री ऊर और लगाश की खुदाइयों से मिली है। इस सभ्यता की बागडोर सुमेरी पुरोहितों के हाथ में थी। वे ही राजनीति और धर्म दोनों में प्रबल थे। वे एक प्रकार से पुरोहित राजा थे। इससे प्रगट होता है कि पहले शायद एक ही व्यक्ति पूजा और शासन दोनों कार्य करता था, पीछे दोनों कृत्य अलग अलग हो गए। राज्य का सबसे महान व्यक्ति 'लुगाल' कहलाता था, जो धरा पर देवताओं का प्रतिनधि माना जाता था। सुमेरियों का धर्म बहुदेववादी था और उनके अनेक देवता थे, परंतु वे मिस्री देवताओं की भाँति सर्प, मार्जार, मगर, नदी आदि के प्रतीक न थे, स्वर्ग, नरक, आदि के थे। प्रत्येक नगर का अपना देवता था जो सृष्टि का कर्ता और पालक समझा जाता था। जब एक नगर दूसरे पर आक्रमण कर विजयी हो जाता था वह विजित नगर के देवता को आचारभ्रष्ट कर उसके स्थान पर अपने नगर का देवता प्रतिष्ठित करता था। इस प्रकार राजनीतिक उत्कर्ष के साथ साथ नगरों के देवता भी बदलते और चढ़ते-गिरते रहते थे। जब नगर राज्यों की सत्ता उठ चली और साम्राज्य स्थापित होने लगे, देवताओंश् का भी एक केंद्र या प्रधान देवता हुआ या अन्य देवता उसी एक के अंग समझे जाने लगे। सुमेरियों का यह प्रधान देवता अनू था, स्वर्ग का देवता। इसके देववर्ग में तूफान के देवता एन्लिल का स्थान देवराज अनु के बाद दूसरा था। निप्पुर में इस एन्लिल की विशेष पूजा होती थी। इसी ने जलप्रलय के अवसर पर सुमेरी विश्वास के अनुसार, तूफान चलाया था जिसके परिणामस्वरूप आकाश मेघों से आच्छन्न हो गया था और पृथ्वी पर अंधकार छा गया था और अनंत जलवृष्टि होने लगी थी। सुमेरियों के मदिंर उन ईटों के बने ठोस मेचनुमा पिरामिडों से मिलते जुलते विशाल आधारों पर बनते थे। इनको ज़ग्गुरत कहते थे।

मारी (फरात की उपरली घाटी) से प्राप्त अभिलेखों से प्रकट होता है कि सभी जातियाँ मेसोपोतामिया में अत्यंत प्राचीन काल में बस चुकी थीं। धीरे धीरे अपने पराक्रम से उन्होंने प्रदेशों पर अधिकार करना शुरु किया और ई. पू. २४वीं सदी में वे असामान्य प्रबल हो गईं। अगली दो सदियों ल. २३६०-२१८० ई. पू. में पहला शेमी अक्कादी राजवंश मेसोपोतामिया में अनवार्य रूप से प्रतिष्ठित हो गया। इस अक्कादी साम्राज्य का आरंभयिता सारगोन (शरूकिन) था। उस राजवंश ने पश्चिमी एशिया के अधिकतर भागों पर अनातोलिया तक राज किया, यद्यपि सांस्कृतिक क्षेत्र में सत्ता सुमेरी भाषा, धर्म और कला की ही थी।

ई. पू. २१८० के लगभग अक्कादी राजकुल का अंत हो गया। उसका अंत जाग्रोस पहाड़ों की बर्बर गुती जाति ने किया। इससे सुमेर को एक लाभ हुआ, उसे साँस लेने की फुरसत मिली और उसकी चेतना को नई साँस मिली। ऊर के तृतीय राजवंश (ल. २०६०-१९५० ई. पू.) ने शीघ्र राजनीतिक पासा पलट दिया और उसने जिस साम्राज्य का निर्माण किया था वह शक्ति अथवा सीमा में अक्कादी साम्राज्य से किसी मात्रा में कम न था। उस राजवंश के पहले राजा उर नम्मू ने बैबिलोनिया की प्राचीनतम कानून पद्धति घोषित की, २००० ई. पू. से भी पूर्व। ऊर के पिछले राजाओं के लगाश स्थित प्रतिनिधि शासक अपने भवननिर्माण, लंबे सुमेरी अभिलेखों और मंदिर निर्माण कार्य के लिए विशेष प्रसिद्ध हुए।

१९०० ई. पू. के आसपास दजला फरात के द्वाब में एक नई राजनीतिक स्थिति का प्रादुर्भाव हुआ। वहाँ के राज्यों पर अमुरीं (पश्चिमी शेमी) सत्ता प्रतिष्ठित हुई। लारसा, एश्नुम्ना, मारी, बरबुल सर्वत्र अमुरीं राजकुल राज्य करने लगे। ये सारे राज्य एक दूसरे से सर्वथा स्वतंत्र बराबर चलते रहते थे और शक्ति के लिए निरंतर कशमकश होती रहती थी। इस कशमकश के अंत में जो शक्ति सर्वोपरि सिद्ध हुई वह बाबुल की थी। वहाँ के पहले राजकुल के छठे राजा हम्मुराबी (१७२८-१६८६ ई. पू.) ने लारसा के एलामी राजा रिमसिन तथा द्वाब के अपने अन्य प्रतिस्पर्धियों पर संपूर्ण विजय प्राप्त कर बैबिलोनिया में नई उदीयमान शक्ति का साका चलाया। हम्मुराबी ने विजय इतनी की कि उसकी एक सीमा ईरान, दूसरी भूमध्यसागर से जा लगी, पर उससे भी महत्व की जो उसने बात की वह थी एक नई और सुविस्तृत दंडनीति और नई कानून व्यवस्था जिसकी घोषणा पत्थर के स्तंभ पर खुदी हमें प्राप्त हुई है और जो उस सुदूर काल के पश्चिमी एशिया के इतिहास, अपराध और उसके दंडविधान पर इतना प्रकाश डालती है। वह संसार के सभी प्राचीन पद्धतिबद्ध दंडविधानों से भी प्राचीनतर है। हम्मुराबी के शासन ने जिस शक्ति वातावरण की प्रतिष्ठा की वह बाबुली विज्ञान और ज्ञान के इतिहास में स्वर्णयुग उतार लाया। कीलनुमा लिपि में उस काल सर्वथा नए च्ह्रोिं का आविष्कार हुआ और सुमेरी तथा अक्कादी दोनों मे कोश रचे गए। बाबुली ज्योतिषियों ने विशेषत: ग्रहों की गति का अध्ययन कर उनको स्थायी पुस्तकों में अंकित करना शुरू किया और नक्षत्रों की सूची प्रस्तुत की। निश्चय ही इसका आरंभ फलित ज्योतिष, भविष्यकथन, जादू आदि से हुआ पर उससे धीरे धीरे विज्ञान को लाभ हुआ और अन्य विश्वासों के पार गणित की ठोस दीवार पर पंडितों की नजर टिकी। हमें राशिचक्र, चौबीस घंटों के दिन रात, और वृत्त में ३६० डिग्री गिनने की पद्धति देने का श्रेय उन बावलियों को ही है जिन्होंने (क्वाड्रेटिक इक्वेशन) द्विघात समीकरण को काल्पनिक स्थिति से हल करने का मार्ग बताया।

अगले डेढ़ सौ वर्षों में दजला फरात की राजनीति ने करवट ली। सामी शक्ति को उसने प्राय: सर्वत्र पराभूत कर दिया। सर्वत्र गैरशेमी जातियाँ विजयिनी हुईं। खत्तियों के राजा मुसिलि ने अनातोलिया से आकर (ल. १५३ ई. पू.) बाबुल को नष्ट कर दिया। उधर उत्तर में हुर्रियों और भारतीय आर्यों मितन्नियों ने असूरिया पर अधिकार कर वहाँ अपना नया राज्य स्थापित किया। प्राय: तभी गैरशेमी कस्सियों ने बाबुल में प्रवेश कर वहाँ अपने राजकुल की प्रतिष्ठा की और प्राय: ४०० साल राज किया। उत्तरी असूरिया में मितन्नी चिरकालिक सत्ता नहीं भोग सके और ई. पू. १४वीं सदी के मध्य उनके दुर्बल होते ही असुर राजाओं ने सिर उठाया और शक्ति संचित की। जब जब उन्हें अवसर मिला और उन्हें उनके उत्तरी पश्चिमी शत्रुओं ने दम लेने दिया, तब तब उन्होंने बैबिलोनिया पर आघात किए। एलाम बाबुल का पारस्परिक शत्रु था। वह भी इस बीच प्रबल हो गया था और उसके राजाओं ने बार बार बाबुल पर चढ़ाई कर उसका पराभव किया। बाबुल के इस निरंतर पतन के इतिहास में बस एक अपवाद हुआ जब ईसिन के दूसरे राजवंश के राजा ने बूखदनेज़्जवार प्रथम ने १२वीं सदी ई. पू. के अंत में एलाम को भी परास्त किया और असूरिया को भी अपनी सीमा के भीतर रहने को बाध्य किया।

असूरिया का सूर्य १०७५ से ९२५ ई. पू. तक प्राय: निस्तेज रहा पर बैबिलोनिया को उसका लाभ न हुआ। क्योंकि उसके भाग्याकाश में एक दूसरी शेमी जाति का इस बीच उदय हो आया था। इसी आरामाई जाति के एक राजा ने ११वीं सदी ई. पू. बाबुल की गद्दी पर अधिकार कर लिया। उधर खल्दी जातियों ने फारस की खाड़ी की तटवर्ती भूमि से उठकर बाबुल और निकटवर्ती जनपदों में बसना शुरू कर दिया। ई. पू. आठवीं सदी तक वे पूर्णत: उस भूभाग में बस चुकी थीं। बाबुल पर दुतरफी मार कुछ काल से लगातार पड़ रही थी। सदियों से उसपर विदेशियों का शासन रहा था और प्राय: डेढ़ सौ साल बाद उसके प्रबल पड़ोसी असूरिया ने फिर गतिशील होने के लक्षण ई. पू. दसवीं सदी के अंत में प्रकट किए। परिणाम यह हुआ कि बार बार खल्दियों को भगाकर उसने सदियों बाबुल की राजनीति को यथेष्ट दिशा दी। पर अंत में खल्दी उसे हटाकर वहाँ अपना स्वत्व स्थापित करने में सफल हुए।

उस बाबुली-खल्दी-असूरी संघर्ष का अस्थायी अंत शत्रुओं को परास्त कर असूरी सम्राट् तिगलाथ पिलेजेर तृतीय ने किया जब उसने ७२९ ई. पू. में अपने को बाबुल का राजा घोषित किया पर आरामाई राजा आँ और असुरों से युद्ध ठना का ठना रह गया। और असूरी सम्राट् सारगोन द्वितीय के शासनकाल में बित याकिन के आरामाई राजा मार्दुक अपाल इद्दिना (बाइबिल का मेरोदाख बलादान) ने बाबुल पर अधिकार कर एलाम की सहायता से १२ साल तक असूरी शक्ति से सफल संघर्ष किया। कुछ साल बाद यह संघर्ष अपनी चरम सीमा तक पहुंच गया और असूरिया ने बाबुल का ६८९ ई. पू. में विध्वंस कर उसके देवता मार्दुक की मूर्ति हर ली। पर बाबुल फिर जी उठा जब असूरी सम्राट् एसारउद्दीन ने उसका नवनिर्माण कर उसे नवजीवन दान दिया और उसकी प्रतिष्ठा पूर्ववत् कर दी। पर मरते मरते वह बाबुल के संहार का बीज फिर भी बोता गया। उसने अपने साम्राज्य के दो भाग कर बड़े बेटे अशुरबनिपाल को स्वदेश दे दिया और छोटे बेटे शमाश-शुभ-उकिन को बाबुल गृहयुद्ध के परिणामस्वरूप बड़े भाई ने ६४८ ई. पू. में बाबुल का फिर संहार कर डाला। अशुरबनिपाल की मृत्यु के पश्चात् नि:संदेह बाबुल की गोटी लाल हुई। वहाँ की गद्दी पर खल्दियों का अधिकार हो गया था और उसके खल्दी राजा नाबोपोलस्सार ने फारस के मीदी राजाओं से समझौता कर असूरी साम्राज्य को मिटा दिया।

प्राय: ७५ वर्ष बाबुल फिर ऐश्वर्य की चोटी पर चढ़ा रहा। उस काल अपना चरम उत्कर्ष उसने खल्दी सम्राट् ने बूखदनेज्जार द्वितीय के शासनकाल (६०४-५६२ ई. पू.) में प्राप्त किया। एक नया बाबुली साम्राज्य अब स्थापित हुआ, राजनीतिक सांस्कृतिक दोनों दिशाओं में। ने बूखदनेज्जार की पहली चिरस्मरणीय विजय उसे दूर उत्तर में फरात के तीर ६०५ ई. पू. में उन मिस्री सेनाओं पर प्राप्त हुई जो असुरों की सहायता के लिए कारखेमिश में इकट्ठी हुई। फिर तो बाबुल का अधिकार समूचे सीरिया और फिलिस्तीन पर मिस्री सीमा तक स्थापित हो गया। ने दूखदनेज्जार की सेनाओं ने एक और सिलीशिया, दूसरी और मिस्र पर चोट की। इस्रायल को तो उस सम्राट् ने रौंद ही डाला। ५८७ ई. पू. में जुदा और जुरूसलम को नष्ट कर उसने यहूदी (इस्रायली) नबियों की उस सत्तर साल की कैद का आरंभ किया जो इतिहास में बाबुली कैद के नाम से विख्यात है।

अपने अभिलेखों में बूखदनेज़्ज़ार ने अपने धार्मिक और सांस्कृतिक कृत्यों का विशेष उल्लेख किया है। उनके अनुसार उसने मार्दुक के मंदिर का बाबुल में फिर से निर्माण किया। अपने जगत्प्रसिद्ध उस 'अवलंबित उद्यान' की रचना की जिसे ग्रीकों ने संसार के सात आश्चर्यों में गिना। नेबूखदनेज्जार के शांतिकाल में भी हम्मुराबी के शासनकाल की ही भाँति गणित और फलित ज्योतिष का बाबुल में प्रभूत विकास हुआ।

पर बाबुल के ऐश्वर्य के दिन अब इने गिने ही रह गए थे। राजा नबोनिदुस के बेटे बेलशज़्ज़ार के पापों के परिणामस्वरूप, बाइबिल की पुरानी पोथी का कलाम है, एक हाथ निकला और उसने उसके जशन के हाल की दीवार पर लिख दिया-मेने मेने तेकेल उफासीन-तुला पर तुम तुल चुके। बड़े हल्के सिद्ध हुए (अंत निकट है, सावधान) और ५२९ ई. पू. में हखमनी सम्राट् कुरूष महान् के सम्मुख बिना लड़ाई लड़े बाबुल ने आत्मसमर्पण कर दिया। कुरूष ने बाबुल की जान बख्श यहूदी नबियों को मुक्त कर दया। परंतु नगर ने ५१४ में सम्राट् दारा महान् (५२१-४८५ ई. पू.) के विरुद्ध विद्रोह किया और दारा ने उसकी आधीरें गिरवा दीं।

सिकंदर ने ई. पू. चौथी सदी में बाबुल को अपने पूर्वी साम्राज्य की राजधानी बनाना निश्चित किया परंतु उसकी अकाल मृत्यु ने नगर की उस आशा पर भी पानी फेर दिया। ग्रीक शासनकाल में उसका ्ह्रास निरंतर होता गया क्योंकि उस सत्ता का एक केंद्र सीरिया में अंतिओक था, दूसरा आमू की घाटी में वाख्त्री। धीरे धीरे ईसा के जन्म से पहले ही अभाग्य की छाया का उसपर अनुमान कर नगर के निवासियों ने बाबुल तज दिया। जिस नगर ने सहस्राब्दियों राजनीति में साका चलाया था और जिसकी संस्कृति इब्रानी और ग्रीक के माध्यम से यूरोपीय संस्कृति में आज भी अनेकांश में बीजरूप में बैठी है वह बाबुल आज वीरान पड़ा है।

बाबली सभ्यता-बाबुली सभ्यता का अंतरंग-उसके धर्म और साहित्य का-सुमेरी संस्कृति द्वारा निर्मित हुआ था और अनेकांश में हमें उस सभ्यता का ज्ञान मूल के अध्ययन से होगा। पर चूँकि सुमेरी राजनीति का विस्तार या उसके सौदागरों की पहुँच सीमित थी, उसे प्रचार के माध्यम की आवश्यकता थी। वह माध्यम बैबिलोनिया ने अपने धार्मिक प्रतिनिधान और उत्साह तथा राजनीतिक फैलाव द्वारा अस्त किया था जैसे वही कार्य असूरिया ने अपनी राजनीति और व्यापारी वर्ग द्वारा संपन्न किया। जहाँ जहाँ बाबुली राजनीति, देवता और धर्म, साहित्य और लिपि तथा असूरी शास्त्र और सौदागर पहुँचे वहाँ वहाँ सुमेर की सभ्यता प्रचरित हुई। सुमेर से बाबुल ने लिया और बाबुल से असुर ने और असुरों से फिनीशिया, अनातोलिया, उरार्त सबने पाया। सुमेर स्वयं तो जाति और रक्त की दृष्टि से गैरशेमी था, पर कस्सियों, खत्तियों और मितन्नियों को छोड़ उसके सभी प्रचारक शेमी थे। पर इन शेमी जातियों ने सुमेर की संस्कृति और सभ्यता अपनाने में किसी प्रकार की आपत्ति न की। वस्तुत: उसकी संस्कृति की रक्षा, विकास और प्रचार शेमी बाबुल ने उसी प्रकार किया जैसे आर्य ग्रीस के साहित्य, दर्शन और विज्ञान की रक्षा, विकास और प्रचार पिछले युगों में शेमी अरबों ने किया।

सुमेर और बाबुल के इसी घने संपर्क का यह परिणाम हुआ कि आज हम सुमेरी और बाबुली देवताओं में विशेष पहचान नहीं कर पाते। आज जो बाबुली देवताओं की संख्या हमें उपलब्ध है उसमें से कौन देव सुमेरी, कौन बाबुली है, यह कह सकना कठिन है। विद्वानों का मत है कि जिन देवों की पत्नियाँ या देवियों के पति नहीं हैं वे सुमेरी देवता हैं, शेष बाबुली। उनका कहना है कि बाबुली देवता बेल (या बाल) संभवत: सुमेरी एंलिल का प्रतिनिधि है, जैसे शमाश उतू का। बाबुली देवराज मार्दुक को प्राय: सभी मूल रूप में सुमेरी देवता स्वीकार करते हैं, वैसे ही बिजली और तूफान के देवता रंमान या अदाद को शुद्ध बाबुली (शेमी)। शेमी देवियों में प्रधान बेल की पत्नी, मार्दुक की पत्नी सार्पनीतुम, और नर्गाल की पत्नी लाज थी। आनूनीतुम मूल में संभवत: बाबुली शेमी थी और ईश्तर सीरियाई अथवा कनानाई। इन देवियों की पूजा के लिए क्लीव पुजारी नियत थे और अधिकतर मंदिरों में देवदासियाँ देवकार्य संपन्न करती थीं।

बाबूली देवपरिवार बड़ा था और देवताओं की मूर्तियाँ बनती थीं। वस्तुत: आर्यों और इस्रायलियों को छोड़ तब की प्राय: सभी जातियाँ, शेमी और गैरशेमी, मूर्तिपूजा करती थीं। यह मूर्तिपूजा हज़रत मुहम्मद के प्रादुर्भाव काल तक उस भूखंड में प्रचलित रही। बाबुली देवता सृष्टि के विविध अंगों के स्वामी थे, उनके अपने अपने देव कर्तव्य थे। देवराज मार्दुक इंद्र वृत्र की भाँति अकाल के दैत्य तियामत को जलमोक्ष के लिए वज्र मारता था। बाबुलियों में भी स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल के प्रति विश्वास प्रचलित थे। उन्होंने सुमेरी देवताओं के साथ ही उनकी कीलनुमा लिपि और साहित्य भी अपना लिए। सुमेरियों के जलप्रलय गिल्गमेश आदि वीरकाव्य और अनुश्रुतियाँ उनकी लिपि की ही भाँति बाबुलियों ने अपनी कर ली और साहित्यकथाओं तथा लिपि दोनों में पर्याप्त और आकर्षक परिवर्तन कर उन्होंने अन्यत्र उनका प्रचलन किया। उनमें देवताओं के अतिरिक्त साँड़ों की भी पूजा होती थी।

बाबुली इतिहास से प्रकट है १७वीं १६वीं से पर्याप्त पूर्व बाबुल में धनुष बाण का उपयोग होने लगा था और रथों के साथ अब घुड़सवारों पर भी सैन्य संगठन में कुछ बल दिया जाने लगा था। सम्राट् हम्मुराबी के प्रसिद्ध अभिलेख से प्रमाणित है कि गणित और फलित ज्योतिष का प्रचार था और अन्न नदियों के अतिरिक्त नहरों द्वारा सींची भूमि में उपजाया जाता था। टैक्स और लगान वस्तुओं या अन्न के रूप में दिए जाते थे और व्यापार का क्षेत्र बड़ा था। यद्यपि सिक्के अभी नहीं चले थे, व्यवसाय वस्तुपरिवर्तन द्वारा होता था, बाट बटखरे प्रयुक्त होते थे और मूल्य चाँदी के वजन (शेकेल) में आँका जाता था, स्वतंत्र मजदूरों की स्थिति दासों से बदतर थी क्योंकि उन्हें मात्र भोजन मिलता था, स्वामी की संरक्षा उपलब्ध न थी। दासों की रक्षा कानून करता था। राजा द्वारा नियुक्त न्यायाधीश देश में अभियान करते और न्याय का वितरण करते थे। भूमि पर अधिकतर राजा या मंदिरों का स्वत्व था। मर्द सिर पर लंबे बाल और दाढ़ी रखते थे। उनका लिबास लंबा होता था।

हम्मुराबी का विधान, जो आज भी उपलब्ध है और पैरिस के ल्व्रुा-संग्रहालय में सुरक्षित है, बाबुली जीवन का प्रतिबिंब है और उसके संबंध में अनंत सामग्री प्रस्तुत करता है। सामाजिक और कानूनी दृष्टि से वह असाधारण महत्व का है। उस काल के बर्बर राजनीतिक जीवन को देखते हुए लगता है कि हम्मुराबी द्वारा उद्घोषित और प्रवर्धित बाबुली कानून साधारण: न्यायसंमत था। सम्राट् ने अपने कानून में नारी के प्रति विशष उदारता दिखाई। सुमेरी सभ्यता में नारी को तलाक का अधिकार न था पर हम्मुराबी के कानून के अनुसार पत्नी को तलाक देनेवाले पति को उसका वैवाहिक धन लौटाने के अतिरिक्त उसका और उसके बच्चों का निर्वाह करना पड़ता था। पत्नी को ही बच्चे रखने का भी अधिकार होता था। उसे संपत्ति, गृह, दास सब रखने और न्यायालय में अपनी वकालत करने का अधिकार प्राप्त था। देवदासियों को विशेष अधिकार प्राप्त थे और बाबुली धर्म में मंदिरवर्ती वेश्यावृत्ति धार्मिक नियम सा बन गई थी। बाबुली मुकदमे काफी लड़ते थे। मुकदमे अधिकतर भूमि के अधिकार, उसकी बिक्री और पट्टे संबंधी होते थे। बिक्री और पट्टों का कार्य ईटं या पत्थर पर लिखकर, साहित्यों का साक्ष्य अंकित कर मुहर छापकर संपन्न किया जाता था।

सं. ग्रं. - आर. डब्ल्यू. रॉजर्स : ए हिस्ट्री ऑव बैबिलोनिया ऐंड असीरिया, न्यूयार्क, १९१५; एच. आर. हाल : दि एंशेंट हिस्ट्री ऑव दि नियर ईस्ट; त्रिपाठी, रामप्रसाद, विश्व इतिहास (प्राचीन), हिंदी समिति, सूचना विभाग, लखनऊ। (भगवत शरण उपाध्याय)