बैनर्जी, सुरेंद्रनाथ इनका जन्म बंगाल के एक उच्च बाह्मण कुल में सन् १८४८ में हुआ था। बी. ए. पास करने के पश्चात् सुरेंद्रनाथ आई. सी. एस. की प्रतियोगिता में प्रविष्ट हुए और सफल हो गए। उन्हें इस नौकरी के मिलने में कई अड़चनों का सामना करना पड़ा, क्योंकि अंग्रेज वास्तव में भारतीयों को इंडियन सिविल सर्विस में स्थान नहीं देना चाहते थे। पर अंत में उन्हें स्थान मिल गया। वह पहले भारतीय थे जिन्हें इंडियन सिविल सर्विस में नियुक्त किया गया था। वह कुछ दिन ही नौकरी कर पाए थे कि उन्हें एक भूल पर नौकरी से निकाल दिया गया। सुरेंद्रनाथ के नौकरी से अलग हो जाने से उनका स्वयं लाभ हुआ; साथ ही उनके राजनीति में प्रवेश करने से देश का भी हित हुआ।
वह शिक्षा के कार्यों में काफी रुचि लेते थे। सन् १८८२ में उन्होंने एक कॉलेज की स्थापना की। इस समय भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में विचार प्रकट करने के लिए शिक्षित भारतीयों की कोई संस्था न थी। सुरेंद्रनाथ बैनर्जी ने इस कमी का अनुभव किया और सन् १८७६ में 'इंडियन एसोसिएशन' को जन्म दिया।
सुरेंद्रनाथ एक ओजस्वी तथा अजेय वक्ता थे। उनका भाषा लालित्य, उत्कृष्ट भावुकता, मौलिक कल्पना तथा सीधे हृदय से निकले उद्गार लोगों को प्रभावित किए बिना न रहते थे। उनके बारे में सर हेनरी कॉटन ने कहा था कि अपनी वक्तृत्व शक्ति से वह मुल्तान से चटगाँव तक विद्रोह की ज्वाला भड़का सकते थे। उनकी स्मरणशक्ति विलक्षण थी। बड़े बड़े भाषणों अथवा पुस्तक के पृष्ठों को जैसा का तैसा दुहरा देना उनके लिए कोई विशेष बात न थी।
सन् १८८५ में सुरेंद्रनाथ तथा ऐलेन ऑक्टेवियन ह्यूम ने मिलकर 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' को जन्म दिया। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन की सूचना में ह्यूम तथा सुरेंद्रनाथ दोनों के हस्ताक्षर थे, यद्यपि सुरेंद्रनाथ इस अधिवेशन में भाग न ले सके थे। सुरेंद्रनाथ का कांग्रेस से लगभग ४० वर्ष तक संबंध रहा। दो बार सन् १८९५ तथा १९०२ में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। सन् १९१८ में इस देशभक्त ने कांग्रेस छोड़ दी और 'नैशनल लिबरल फेडरेशन' की स्थापना की। मांटेग्यू चेम्सफ्रर्ड सुधारों के बाद जब प्रांतों में द्विविध शासन प्रणाली आरंभ हुई तब बंगाल प्रांत में सुरेंद्रनाथ मंत्री बने। सरकार ने इन्हें 'नाइट' की उपाधि दी।
राष्ट्रीय आंदोलन के संबंध में सुरेंद्रनाथ ने प्रशंसनीय कार्य किया। कांग्रेस के अध्यक्ष पद से दिए गए उनके भाषणों की इंग्लैंड के विद्वानों में भूरि भूरि प्रशंसा की। अपने तर्कों से वह विरोधियों को भी अपने पक्ष में करने की क्षमता रखते थे। सन् १९०५ के कर्जन द्वारा किए गए बंग विभाजन ने सुरेंद्रनाथ को अच्छा अवसर प्रदान किया। बंगाल विभाजन के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन शुरू हो गया। सुरेंद्रनाथ इस आंदोलन के सर्वप्रिय नेता थे। बंगाल विभाजन के विरुद्ध उन्होंने बंगाल विधान परिषद् में एक ऐतिहासिक भाषण किया जिसमें उन्होंने विभाजन का डटकर विरोध किया। इस समय देश में स्वदेशी आंदोलन तथा बहिष्कार का बड़ा जोर था। सुरेंद्रनाथ बैनर्ज़ी ने स्वदेशी का समर्थन किया। वह बहिष्कार के पक्ष में थे पर वह उग्रवादियों की नीति तथा अराजकता फैलाने से सहमत नहीं थे। उनके राजनीतिक कार्यों के कारण उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन का जनक कहा जाता है।
सुरेंद्रनाथ बैनर्जी इटली के देशभक्त मात्सीनी के विचारों से काफी प्रभावित हुए। सुरेंद्रनाथ चाहते थे कि बंगाल के नवयुवक अपनी शक्ति का विकास करके भारत का नवनिर्माण करें। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि उन्होंने मात्सीनी के क्रांतिकारी आदर्शों को त्यागकर वैधानिकता का मार्ग पकड़ा और भारतीयों को नि:स्वार्थ भाव से देश की सेवा करने का संदेश दिया। इसी समय इंडियन सिविल सर्विस के लिए भारतीयों की अवस्था २१ से घटाकर १९ वर्ष कर दी गई। भारतीय नवयुवकों से १९ वर्ष की अवस्था में सिविल सर्विस की प्रतियोगिता में सफलतापूर्वक भाग लेने की आशा करना व्यर्थ था। इसका अर्थ हुआ कि व्यावहारिक रूप से सिविल सर्विस में भारतीयों का प्रवेश निषिद्ध हो गया। इस निश्चय के विरुद्ध भारतीय जनमत को तैयार करने के लिए 'इंडियन ऐसोसिएशन' ने सुरेंद्रनाथ को नियुक्त किया। सुरेंद्रनाथ ने लाहौर, अमृतसर, आगरा, इलाहाबाद, दिल्ली, अलीगढ़, कानपुर आदि स्थानों पर सभाएँ कीं, जिनमें उन्हें आशातीत सफलता मिली। इन सभाओं में उन्होंने भारतीए एकता तथा सिविल सर्विस के विषयों पर ओजपूर्ण भाषण दिए।
राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सुरेंद्रनाथ केवल वैधानिक आंदोलन का ही सहारा लेना पसंद करते थे। वह उदारवादी विचारधारा के थे। वह इस पक्ष में थे कि भारत सरकार में भारतीयों को अधिकाधिक प्रतिनिधित्व दिया जाए। वह देश की पूर्ण स्वतंत्रता के पक्षपाती नहीं थे। वह चाहते थे कि भारतीय अंग्रेजों के प्रति अपनी स्वामिभक्ति बनाए रखें। इंग्लैंड की पार्लमेंट को वह बहुत पवित्र वस्तु समझते थे क्योंकि वह लोकतंत्रात्मक संस्थाओं की जननी है। वह चाहते थे कि अंग्रेज भारत में लोकतंत्रात्मक शासन का विकास करें। उनका विश्वास था कि अंग्रेजों ने भारतीय हित में कई कार्य है। उन्होंने भारत में स्वशासन की शिक्षा देने का श्रीगणेश किया, भारतीयों का चरित्र उन्नत किया, भारत की सामाजिक बुराइयों को दूर किया तथा अंग्रेजी सभ्यता के सारे गुणों को भारत में बिखरा दिया। सुरेंद्रनाथ के विचार से अंग्रेजी सभ्यता संसार की सर्वश्रेष्ठ सभ्यता थी। उनकी कृति 'ए नेशन इन द मेकिंग' में उनके जीवन का विस्तृत वर्णन मिलता है। (मिथिलोचंद्र पांडिया)