बैंक तथा बैंककार्य आर्थिक आयोजन के वर्तमान युग में कृषि, उद्योग एवं व्यापार के विकास के लिए बैंक एवं बैंकिंग व्यवस्था एक अनिवार्य आवश्यकता मानी जाने लगी है। बैंक उस संस्था को कहते हैं जो जनता से धनराशि जमा करने तथा जनता को ऋण देने का काम करती है। लोग अपनी अपनी बचत राशि को सुरक्षा की दृष्टि से अथवा ब्याज कमाने के हेतु इन संस्थाओं में जमा करते और आवश्यकतानुसार समय समय पर निकालते रहते हैं। बैंक इस प्रकार जमा से प्राप्त राशि को व्यापारियों एवं व्यवसायियों को ऋण देकर ब्याज कमाते हैं। राशि जमा रखने तथा ऋण प्रदान करने के अतिरिक्त बैंक अन्य काम भी करते हैं जैसे, सुरक्षा के लिए लोगों से उनके आभूषणादि बहुमूल्य वस्तुएँ जमा रखना, अपने ग्राहकों के लिए उनके चेकों का संग्रहण करना, व्यापारिक बिलों की कटौती करना, एजेंसी का काम करना, गुप्त रीति से ग्राहकों की आर्थिक स्थिति की जानकारी लेना देना। अत: बैंक केवल मुद्रा का लेन देन ही नहीं करते वरन् साख का व्यवहार भी करते हैं। इसीलिए बैंक को साख का सृजनकर्ता भी कहा जाता है। भारतीय बैंकिग कंपनी कानून, १९४९ के अंतर्गत बैंक की परिभाषा निम्न शब्दों में दी गई हैं :

ऋण देना और विनियोग के लिए सामान्य जनता से राशि जमा करना तथा चेकों, ड्राफ्टों तथा आदेशों द्वारा माँगने पर उस राशि का भुगतान करना बैंकिंग व्यवसाय कहलाता है और इस व्यवसाय को करनेवाली संस्था बैंक कहलाती है।

ईसा से दो हजार वर्ष पहले भी राशि उधार लेने देने की प्रथा प्रचलित थी। मनुस्मृति में ब्याज के बदले राशि उधार देने का पर्याप्त संकेत मिलता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से भी इस बात का पता चलता है कि प्राचीन काल में साहूकारी का नियम था परंतु ब्याज की दर एवं राशि वसूल करने के नियम आज जैसे न थे। मध्य एशिया में हुंडी का प्रयोग १२वीं शती के आसपास होने लगा जबकि विदेशी व्यापार का क्षेत्र बढ़ने लगा और एक स्थान से दूसरे स्थान पर धन या राशि (रकम) भेजने की आवश्यकता हुई। मुगल सम्राटों ने धनी महाजनों और साहूकारों को करवसूली के अधिकार सौंपे और उन्हें स्थान-स्थान पर कोषाध्यक्ष नियुक्त किया। जनसाधारण अपनी बचत राशि को इन महाजनों के पास जमा करते और जमा राशि पर महाजन ब्याज भी देते थे। आवश्यकता पड़ने पर लोग इन्हीं महाजनों से राशि उधार लेते थे जिसपर उन्हें ब्याज देना पड़ता था। इस प्रकार आधुनिक बैंकों का प्रारंभ होने के पूर्व महाजन ही बैकिंग का काम करता था, जिसके पास धन राशि जमा की जाती थी और रुपया उधार भी मिलता था।

अंगरेजों ने अपनी व्यापारिक एवं मौद्रिक आवश्यकताओं के लिए एजेंसी गृह और ज्वाइन्ट स्टाक बैंक स्थापित किए। १८वीं शताब्दी के अंत में औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप इंग्लैंड और यूरोप में व्यापार की वृद्धि हुई और वहाँ नए नए व्यापारिक केंद्र बनते गए। भारत में भी सन् १८०६ में बैंक ऑव कलकत्ता स्थापित हुआ तथा इसके पश्चात् सन् १८४० तथा सन् १८४३ में क्रमश: बैंक ऑव बंबई और बैंक ऑव मद्रास स्थापित किए गए। ये तीन प्रेसीडेंसी बैंक विदेशी पूँजी और संचालन से चलाए गए थे और इनका काम ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार में सहायता करना था। इसी काल में सन् १८४४ में बैंक चार्टर ऐक्ट के अनुसार इंग्लैंड में बैंक ऑव इंग्लैंड बनाया गया१ अंशधारियों का बैंक भारत में सीमित देनदारी के आधार पर सबसे पहले सन् १८८१ में 'अवध कमर्शियल बैंक' बनाया गया। यद्यपि इससे पहले भी इलाहाबाद बैंक और एलायंस बैंक ऑव शिमला बन चुके थे परंतु ये दोनों बैंक विदेशी प्रबंध में थे। इसके पश्चात् व्यावसायिक बैकों की संख्या बढ़ती गई। सन् १९०६ से लेकर सन् १९१३ तक बैंकों में काफी वृद्धि हुई। भारत के प्रसिद्ध बैंक, जैसे बैंक ऑव इंडिया, सेंट्रल बैंक ऑव इंडिया, बैंक ऑव बड़ौदा इसी बीच स्थापित हुए। परंतु सन् १९१३ के बाद बैंकों का संकटकाल आया जिसमें अनेक बैंक बंद करने पड़े। सन् १९१३-१७ के बीच भारत में लगभग ९० बैकों को अपना व्यवसाय बंद करना पड़ा। प्रथम महायुद्ध समाप्त होने पर बैकों की स्थिति में पुन: सुधार हुआ। सन् १९२१ में भारत के तीनों प्रेसीडेंसी बैंकों को मिलाकर इंपीरियल बैंक ऑव इंडिया बनाया गया। यह एक सरकारी बैंक था पर जनता के साथ भी लेनदेन करता था। १ अप्रैल, १९३५ को भारत में रिजर्व बैंक ऑव इंडिया की स्थापना की गई।

द्वितीय युद्धकाल में अनेक नए नए बैंक खोले गए। भारत का युनाइटेडश् कमर्शियल बैंक इसी काल में बनाया गया। युद्ध समाप्त होने के पश्चात् बैंकिंग व्यवसाय में कुछ शिथिलता आने लगी। बैकिंग कानूनों में परिवर्तन संशोधन किए जाने लगे ताकि बैंकों के प्रबंध संचालन में कुशलता एवं मितव्ययिता आ जाए। भारत का बैंकिंग कंपनी कानून सन् १९४९ में पास किया गया। भारत में रिजर्व बैंक ऑव इंडिया तथा इंपीरियल बैंक ऑव इंडिया का राष्ट्रीयकरण क्रमश: सन् १९४९ और सन् १९५५ में कर लिया गया।

बैंक की क्रियाओं और सेवाओं को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है : (१) जनता से राशि लेकर जमा करना, (२) जनता को ऋण तथा अग्रिम धन देना, (३) ग्राहको के लिए एजेंट बनकर काम करना, (४) विविध सेवाएँ करना।

राशि जमा करने में बैंक प्राय: तीन प्रकार के लेखे खोलते हैं : (१) चल लेखे, (२) स्थिर लेखे, (३) बचत लेखे। चल लेखे में जमा राशि बैंक को जमाकर्ता की माँग पर किसी समय भी भुगतान करनी पड़ती है। अत: इसे बैंक की 'माँग देनदारी' भी कहते हैं। स्थिर लेखों में एक निश्चित अविध के लिए राशि जमा की जाती है जो अवधि समाप्त होने से पहले नहीं निकाली जा सकती। यदि कोई जमाकर्ता स्थिर लेखे में जमा अपनी राशि को अवधि पूर्ण होने से पूर्व निकालना चाहे तो उसे राशि पर ब्याज नहीं मिलता। इस प्रकार की जमा राशि को बैंक 'काल देनदारी' कहते हैं। तीसरे प्रकार की जमा बचत लेखे में की जाती है। बचत लेखे में निर्धारित सीमा से अधिक राशि जमा नहीं की जा सकती। इस प्रकार के लेखे कम आयवाले लोगों की बचत को प्रोत्साहन देने के लिए खोले जाते हैं। कभी कभी विशेष कार्यों के लिए विशेष प्रकार के लेखे भी खोले जाते हैं। उदाहरणार्थ, विवाह के लिए धनराशि संग्रह के हेतु विवाह लेखा, शिक्षा के लिए राशि संग्रह करने के हेतु शिक्षा लेखा आदि।

बैंक द्वारा ऋण तथा अग्रिम कई रूपों में दिए जाते हैं : (१) सामान्य ऋण एवं अग्रिम राशि स्वीकृत करके, (२) अधिविकर्श द्वारा, (३) नकद साख के रूप में, (४) बिलों की कटौती करके। बैंक अपने ग्राहकों और अन्य विश्वसनीय व्यक्तियों तथा संस्थाओं को केवल व्यवसाय एवं उत्पादन संबंधी कार्यों के लिए ऋण देते हैं। ऋण देते समय बैंक ऋणयाचक के नाम से एक लेख खोलकर उसमें ऋणराशि जमा कर देते हैं जिसके बल पर ऋणयाचक आवश्यकतानुसार समय समय पर चेक लिखकर राशि लेता रहता है। इससे बैंक को सकल ऋणराशि एक साथ ही ऋणायाचक को दे देने की आवश्यकता नहीं होती जिससे बैंक का हानिभय कम हो जाता है। ऋण वैयक्तिक साख तथा माल की जमानत पर स्वीकृत किए जाते हैं। अधिविकर्श द्वारा ऋण देने से बैंक अपने जमाकर्ता को उसके चल तथा बचत लेखों में जमा राशि से अधिक राशि निकालने का अधिकार दे देता है। पर ऐसा अधिकार प्राप्त करने से पूर्व ग्राहक को अपने बैंक के साथ अधिविकर्श की राशि, उसकी अवधि, ब्याज की दर आदि मामलों पर निश्चित समझौता करना पड़ता है। बैंक व्यावसायिक माल की जमानत पर तथा प्रणपत्रों और साखपत्रों की साख पर भी ऋण देते हैं। माल को अपने गोदामों में रखकर या व्यापारियों के गोदामों में अपना ताला लगाकर उसकी जमानत पर ऋण दिए जाते हैं। पर इस प्रकार ऋण देने से पहले बैंक माल के वास्तविक मूल्य पर छूट लगा लेते हैं।

बिलों की कटौती द्वारा भी बैंक से ऋण प्राप्त किया जा सकता है। कोई भी मालविक्रेता अपने खरीदार के नाम विनिमय बिल लिखकर उसपर उसकी स्वीकृति प्राप्त करके किसी बैंक से उस स्वीकृत बिल की कटौती करा लेता है। कटौती करने पर बैंक अपना कमीशन काटकर बिल की शेष राशि बिलधारक को दे देता है और फिर बिल की अवधि समाप्त होने पर उसे बिल के स्वीकृतिकर्ता से पूरी राशि मिल जाती है। इस प्रकार दिया गया ऋण प्राय: अल्पकालीन होता है।

बैंक अपने ग्राहकों के लिए एजेंसी का काम भी करता है। एजेंसी संबंधी क्रियाएँ इस प्रकार हैं : ग्राहकों के लिए बिलों, चेकों तथा प्रणपत्रों की राशि वसूल तथा उनकी ओर से चुकाए जानेवाले बिलों, चेकों तथ प्रणपत्रों का भुगतान करना, किसी व्यक्ति अथवा संस्था को नियमित रूप से एक निश्चित राशि भुगताना, बीमा कंपनियों को प्रव्याजि (बीमा की किश्त) की राशि चुकाना, सरकार का ग्राहकों की ओर से आयकर चुकाना तथा उनकी ओर से मालगुजारी चुकाने की व्यवस्था करना, कंपनी के अंशों पर लाभांश तथा ऋणपत्रों पर ब्याज वसूल करना और सरकारी सिक्यूरिटियों का क्रय-विक्रय करना तथा उनके सलाहकार और प्रतिनिधि की हैसियत से काम करना।

सारांश यह कि बैंक देश की बिखरी और निठल्ली संपत्ति को केंद्रित करके देश में उत्पादन के कार्यों में लगाते हैं जिससे पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन मिलता है और उत्पादन की प्रगति में सहायता मिलती है।

एक ही बैंक के लिए व्यापार, वाणिज्य, उद्योग तथा कृषि की समुचित वित्तव्यवस्था करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य होता है। अतएव विशिष्ट कार्यों के लिए अलग अलग बैंक स्थापित किए जाते हैं जैसे व्यापारिक बैंक, कृषि बैंक,श् औद्योगिक बैंक, विदेशी विनिमय बैंक तथा बचत बैंक। इन सब प्रकार के बैंकों को नियमपूर्वक चलाने तथा उनमें पारस्परिक तालमेल बनाए रखने के लिए केंद्रीय बैंक होता है जो देश भर की बैंकिंग व्यवस्था का संचालन करता है।

बैंकिंग व्यवहार में बैंक और ग्राहक का संबंध प्राय: तीन प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है : (१) लेनदार का संबंध, (२) प्रधान एवं प्रतिनिधि का संबंध, (३) न्यासी एवं प्रत्याशी का संबंध। जब बैंक में ग्राहक की राशि जमा हो, जिसका भुगतान बैंक को ग्राहक के माँगने पर करना पड़े तो बैंक ग्राहक का देनदार ओर ग्राहक बैंक का लेनदार होता है। पर कभी कभी यह संबंध विपरीत भी हो जाता है। जब ग्राहक बैंक से ऋण ले अथवा अपने लेखे में जमा राशि से अधिक राशि निकाले तो बैंक ग्राहक का लेनदार और ग्राहक उसका देनदार बन जाता है। सामान्य व्यवहार में देनदार को, ऋण की अवधि बीतने पर, राशि का भुगतान लौटाना ही होता है चाहे उसकी माँग लेनदार की ओर से हो अथवा न हो। पर बैंक एक ऐसा देनदार होता है जो अपने पास जमा की हुई राशि को ग्राहक के माँगने पर ही लौटाता है, अन्यथा नहीं। पर यदि ग्राहक बैंक का देनदार हुआ तो उसे ऋण का भुगतान अवधि बीतने पर बैंक के माँगने पर व न माँगने पर भी करना होता है। बैंक द्वारा जमा रूप में लिए हुए ऋणों के साथ अन्य सामान्य ऋणों की भाँति 'काल मर्यादा नियम' लागू नहीं होता। ग्राहक के लेखे में राशि कितने ही समय तक जमा रह सकती है।

बैंक एक ही ग्राहक के विभिन्न लेखों को एकत्र मानकर अपना ऋण वसूल कर सकता है पर ग्राहक बैंक में अपने विभिन्न लेखों को एकत्र मानकर राशि भुगतान करने के लिए बैंक को विवश नहीं कर सकता।

बैंक को ग्राहक से सामान्य लेनदेन में आई हुई राशि अथवा सिक्यूरिटियों पर स्वत्व ग्रहणाधिकार प्राप्त होता है। बैंक को ग्राहक की उन सिक्यूरिटियों पर, राशि पर तथा वस्तुओं पर ग्रहणाधिकार प्राप्त होता है जो उसके पास किसी विशिष्ट उद्देश्य के हेतु न आई हों वरन् बैंकिंग लेनदेन के सामान्य क्रम में प्राप्त हुई हों। ग्रहणाधिकार के अंतर्गत आई हुई वस्तुओं को बैंक बेचकर ग्राहक द्वारा ऋण का भुगतान न होने पर, अपनी ऋणराशि वसूल कर सकता है।

जिस समय बैंक अपने ग्राहक के आदेश से उसके लेखे पर सिक्यूरिटियों का क्रय विक्रय करता है, उसके लेखे पर आयकर, भूमिकर, बीमा की प्रख्याजि का (प्रीमियम), चंदा आदि की राशि का भुगतान करता है तो उस स्थिति में बैंक ग्राहक के प्रतिनिधि के रूप में काम करता है।

जब तक ग्राहक की धरोहर बैंक के पास रखी रहती है तब तक बैंक ग्राहक का प्रन्यासी तथा ग्राहक बैंक का प्रत्याशी कहलाता है। प्रत्याशी के रूप में काम करते हुए बैंक को अपने प्रत्याशी के द्वारा जमा की हुई वस्तुओं को बड़ी सावधानी और सुरक्षा के साथ रखना आवश्यक होता है। इस सेवा के लिए बैंक ग्राहकों से कुछ शुल्क वसूल करते हैं।

बैंक मूलत: साख का लेनदेन करते हैं-साख पर जनता से उनकी अतिरेक बचत राशि जमा लेते और उस जमा राशि को अन्य ऋणयाचकों को ऋण रूप में उधार देते हैं। इस प्रकार राशि के लेनदेन के क्रम में बैंक साख का सृजन करते और साख के सृजनकर्ता कहे जाते हैं। साख की सृजनक्रिया में जमा, कटौती तथा निर्गमन ये तीन कार्य संनिहित होते हैं। जब बैंक किसी व्यक्ति या संस्था को ऋण स्वीकृत करता है तो वह सामान्यत: ऋणराशि नकद रूप में एक साथ ही नहीं देता वरन् ऋणराशि को ऋण माँगनेवाले का लेखा खोलकर उसमें जमा कर लेता है और ऋणयाचक को अधिकार दे दिया जाता है कि वह अपने आवश्यकतानुसार चेक लिखकर ऋणराशि निकालता रहे। इस प्रकार एक ओर ऋण स्वीकृत किया जाता है तो दूसरी ओर उसी ऋण की राशि से जमा बना ली जाती है। अत: ऋण जमा को जन्म देते हैं।

जब बैंक अपनी जमा राशि में से ग्राहकों को ऋण देता है तो उस समय जमा ऋण की जन्मदात्री होती है और जब बैंक ऋण स्वीकृत करने में जमा का निर्माण करते हैं, तो उस समय ऋण जमा के जन्मदाता बन जाते हैं। साख सृजन की तीसरी विधि है बैंक नोट निर्गमन द्वारा। पर यह अधिकार केवल देश के केंद्रीय बैंक को ही मिला होता है।

प्रत्येक बैंक अपनी साख सृजन नीति में स्वतंत्र होता है तो भी उसे अपनी साख निर्माण की क्षमता मर्यादित करने के लिए अपने पास रखा जानेवाला नकद कोष, केंद्रीय बैंकों के पास जमा बैंकों का कोष, बैंकों के पास जमा धात्विक कोष, ऋण याचकों की साख, और देश की सामान्य आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति का ध्यान रखना पड़ता है।

जनता से धन राशि जमा कराने में बैंक दो प्रकार का दायित्व अपने ऊपर लेता है-(१) माँग देनदारी, (२) काल देनदारी। माँग देनदारी का भुगतान बैंक को जमाकर्ताओं की वैधानिक माँग होने पर किसी समय भी करना पड़ता है, और काल देनदारी का भुगतान सामान्यत: निश्चित अवधि समाप्त होने पर करना होता है।

ऐसी स्थिति में बैंक अपने पास जमा कुल राशि को ऋण याचकों को उधार नहीं दे सकता क्योंकि उसे यह भय रहता है कि न मालूम कब जमाकर्ता माँग करके अपनी राशि लेने आ जाए। अत: ऋण देने से पूर्व बैंक अपने पास कोष में कुछ नकद राशि बचाकर रख लेता है जिससे समय आने पर उसमें से जमाकर्ताओं की माँग पूरी करता रहे। यह राशि बैंक का नकद कोष कहलाता है। कोई कोई बैंक नकद कोष अपने पास भी रखते हैं और केंद्रीय बैंक में भी जमा करा देते हैं ताकि आवश्यकता पड़ने पर वहाँ से राशि देकर जर्माकर्ताओं की माँग पूरी कर सकें। नकद कोष बैंक की साख बनाए रखने में सहायक होता है। नकद कोष बैंक की रक्षा की 'प्रथम पंक्ति' कहा जाता है। किसी भी समय नकद कोश की राशि निम्न परिस्थितियों पर निर्भर होती है :

(अ) वैधानिक निर्णय, (आ) जमाकर्ताओं की औसत जमाराशि, (इ) लोगों की बैंकिंग आदत तथा प्रवृत्ति, (ई) ग्राहकों की सामान्य प्रकृति, (उ) स्थानीय प्रथा एवं परिस्थितियाँ, (ऊ) मुद्रामंडी की व्यवस्था (ऋ) व्यापारिक परिस्थितियाँ अथवा (ॠ) देश में समाशोधन गृह की सुविधाएँ। उक्त परिस्थितियों के अतिरिक्त नकद कोष की मात्रा बैंक अधिकारियों के पूर्व अनुभव, उनकी दूरदर्शिता तथा उस देश की व्यापारिक स्थिति पर निर्भर होती है।

बैंक को जमाकर्ताओं से जो राशि प्राप्त होती है उसे वह दूसरों को उधार देकर ब्याज वसूल करता है। इस ब्याज की राशि में से कुछ भाग वह जमाकर्ताओं को उनकी जमा राशि पर ब्याज स्वरूप देकर शेष राशि वह अपने पास बचा लेता है। बैंक को अपनी सकल जमा राशि में से कुछ भाग नकद कोष के रूप में रखकर शेष राशि का सावधानी से विनियोग करना आवश्यक होता है।

बैंक की विनियोग नीति भिन्न भिन्न देशों में, भिन्न भिन्न अवसरों पर और विभिन्न बैंकों के साथ भिन्न भिन्न होती है। प्रत्येक बैंक के लिए अपनी विनियोग नीति निर्धारित करते समय कई बातों का विचार करना आवश्यक होता है। बैंक की राशि का विनियोग इस प्रकार हो कि आवश्यकता होने पर उसे रोकड़ राशि में बदलवाया जा सके, विनियोजित मूलधन सुरक्षित रहे, विनियोगों से संतोषजनक आय भी मिले, धनराशि का विनियोग किसी एक ही उद्योग व्यापार में न किया जाए, बैंक की राशि किसी व्यक्तिविशेष को ही ऋण के रूप में न दी जाए, जमानतों का भली भाँति निरीक्षण कर लिया जाए, जमानत, जिसपर राशि विनियोजित की जा रही है, तरल, सुरक्षित और लाभप्रद हो, और यदि कभी किसी जमानत में मूल्य का ्ह्रास होने लगे तो ऋणी से तुरंत अन्य जमानत लेकर उस ्ह्रास का पूरा किया जा सके।

सामान्यत: बैंक दो प्रकार से अपनी राशि का विनियोग किया करते हैं: (१) व्यवसाय संचालन के लिए भूगृहादि, फर्नीचर आदि वस्तुएँ खरीदकर। इससे बैंक को कोई आय नहीं मिलती। (२) अल्पकालीन ऋण देकर, बिलों की कटौती करके तथा सिक्यूरिटियों का क्रय विक्रय करके। इनसे बैंक को आय होती और लाभ मिलता है। लाभ कमाने के लिए बैंक अपनी राशि का विनियोग अल्पकालीन ऋण देकर, बिलों का क्रय करके तथा उनकी कटौती करके, विनियोग पत्र तथा अन्य सिक्यूरिटियों का क्रय करके, अथवा ऋण तथा अग्रिम स्वीकार करके करते हैं। बैंक द्वारा मान्य जमानतें अचल संपति से संबद्ध अथवा वैयक्तिक हो सकती हैं।

सांपार्श्विकश् जमानत ऋण लेनेवाले व्यक्ति की वैयक्तिक साख के अतिरिक्त माल अथवा माल के संबंध में अधिकारपत्र के रूप में हो सकती है। इसमें सामान्यत: तीन अधिकार होते हैं-(१) स्वत्व ग्रहणाधिकार, (२) प्राधि, और (३) बंधक। ग्रहणाधिकार के अंतर्गत बैंक को अधिकार होता है कि यदि ऋणी ऋण का भुगतान न करे तो वह ऋणी द्वारा रखी गई जमानत को अपने अधिकार में रख ले। बैंक को इस जमानत को बेचने का अधिकार नहीं होता और यदि वह ऐसा करना ही चाहे तो उसे न्यायालय से तत्संबंधी आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक होता है। प्राधि में जमानत का स्वामित्व बैंक के नाम पर हस्तांतरित हो जाता है पर उस वस्तु पर अधिकार ऋणी का ही होता है। बंधक के अंतर्गत बैंक को जमानत पर ग्रहणाधिकार करने और उसे उचित सूचना देकर बेचने का भी अधिकार होता है। सांपार्श्विक जमानत में व्यावसायिक माल तथा माल संबंधी अधिकारपत्र, जीवनबीमा पत्र तथा स्टाक एक्सचेंज पर बिकनेवाली सिक्यूरिटियाँ होती हैं। सामान्यत: बैंक अचल संपत्ति की साख पर ऋण नहीं देते।

वैयक्तिक जमानत अथवा गारंटी दो प्रकार की हो सकती है : (१) विशिष्ट राशि के लिए, (२) संपूर्ण राशि के लिए। विशिष्ट गारंटी के अंतर्गत गारंटी करनेवाला व्यक्ति किसी विशिष्ट एवं निश्चित राशि की गारंटी कर देता है। संपूर्ण गारंटी के अतिरिक्त ऋण की सकल राशि की गारंटी की जाती है और उसका दायित्व सकल राशि के लिए होता है। गारंटी लिखित अथवा मौखिक दी जा सकती है। गारंटी लेते समय बैंक को गारंटी करने व्यक्ति की साख एवं आर्थिक स्थिति की भली भाँति पड़ताल कर लेना आवश्यक है जिससे भविष्य में किसी प्रकार की हानि की संभावना न रहे। बैंक की सफलता अधिकांश में उसके प्रबंधकों एवं संचालकों पर निर्भर होती है। (गिरजा प्रसाद गुप्त)