बेकारी एक विशेष अवस्था को, जब देश में कार्य करनेवाली जनशक्ति अधिक होती हैं किंतु काम करने के लिए राजी होते हुए भी बहुतों को प्रचलित मजदूरी पर कार्य नहीं मिलता, बेकारी की संज्ञा दी जाती है। ऐसे व्यक्तियों का जो मानसिक एवं शारीरिक दृष्टि से कार्य करने के योग्य और इच्छुक हैं परंतु जिन्हें प्रचलित मजदूरी पर कार्य नहीं मिलता, उन्हें बेकार कहा जाता है। कार्य प्रापत करने की इच्छा के संबंध में अनेक विचार हैं। विशेषकर प्रतिदिन कार्य करने के घंटे, मजदूरी की दरें तथा मनुष्य की स्वस्थ दशाओं आदि पर विचार करने के पश्चात् ही कार्य करने की इच्छा के संबंध में निश्चित रूप से जाना जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि किसी उद्योग में कार्य करने के सामान्य घंटे आठ हैं परंतु एक व्यक्ति नौ घंटे कार्य करने की क्षमता रखता है, ऐसी परिस्थिति में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति प्रतिदिन एक घंटा बेकार रहता है। बेकारी का सीधा तात्पर्य निष्क्रियता नहीं होता। उदाहरणार्थ - यदि व्यक्ति रात्रि में सोता है तो उसे बेकार नहीं कहा जा सकता है।

इसी प्रकार मजदूरी की दस से तात्पर्य प्रचलित मजदूरी की दर से है और मजदूरी प्राप्त करने की इच्छा का अर्थ प्रचलित मजदूरी की दरों पर कार्य करने की इच्छा है। यदि कोई व्यक्ति उसी समय काम करना चाहे जब प्रचलित मजदूरी की दर पंद्रह रुपए प्रतिदिन हो और उस समय काम करने से इन्कार कर दे जब प्रचलित मजदूरी बारह रुपए प्रतिदिन हो, ऐसे व्यक्ति को बेकार अथवा बेकारी की अवस्था से त्रस्त नहीं कहा जा सकता। इसके अतिरिक्त ऐसे भी व्यक्ति को बेकार अथवा बेकारी से त्रस्त नहीं कह सकते जो कार्य तो करना चाहता है परंतु बीमारी के कारण कार्य नहीं कर पाता। बालक, रोगी, वृद्ध तथा असहाय लोगों को 'रोजगार अयोग्य' (unemployables) तथा साधु, पीर, भिखमंगे तथा कार्य न करनेवाले जमींदार, सामंत आदि व्यक्तियों को पराश्रयी कहा जा सकता है।

बेकारी का अस्तित्व श्रम की माँग और उसकी पूर्ति के बीच स्थिर अनुपात पर निर्भर करता है। बेकारी के दो भेद हैं - असंतुलनात्मक (फ्रक्शनल) तथा ऐच्छिक (वालंटरी)। असंतुलनात्मक बेकारी श्रम की माँग में परिवर्तन के कारण होती है। ऐच्छिक बेकारी का प्रादुर्भाव उस समय होता है जब मजदूर अपनी वास्तविक मजदूरी में कटौती को स्वीकार नहीं करता। समग्रत: बेकारी श्रम की माँग और पूर्ति के बीच असंतुलित स्थिति का प्रतिफल है।

प्रोफेसर जे.एम. कीन्स 'अनैच्छिक बेकारी' को भी बेकारी का भेद मानते हैं। 'अनैच्छिक बेकारी' की परिभाषा करते हुए उन्होंने लिखा है - 'जब कोई व्यक्ति प्रचलित वास्तविक मजदूरी से कम वास्तविक मजदूरी पर कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है, चाहे वह कम नकद मजदूरी स्वीकार करने के लिए तैयार न हो, तब इस अवस्था को अनैच्छिक बेकारी कहते हैं।'

यदि कोई व्यक्ति किसी उत्पादक व्यवसाय में कार्य करता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह बेकार नहीं है। ऐसे व्यक्तियों को पूर्णरूपेण रोजगार में लगा हुआ नहीं माना जाता जो आंशिक रूप से ही कार्य में लगे हैं, अथवा उच्च कार्य की क्षमता रखते हुए भी निम्न प्रकार के लाभकारी व्यवसायों में कार्य करते हैं।

सन् १९१९ ई. में अंतरराष्ट्रीय श्रमसम्मेलन के वाशिंगटन अधिवेशन ने बेकारी अभिसमय (Unemployment convention) संबंधी एक प्रस्ताव स्वीकार किया था जिसमें कहा गया था कि केंद्रीय सत्ता के नियंत्रण में प्रत्येक देश में सरकारी कामदिलाऊ अभिकरण स्थापित किए जाएँ। सन् १९३१ ई. में भारत राजकीय श्रम के आयोग (Royal Commission on Labour) ने बेकारी की समस्या पर विचार किया और निष्कर्ष रूप में कहा कि बेकारी की समस्या विकट रूप धारण कर चुकी है। यद्यपि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रमसंघ का 'बेकारी संबंधी' समझौता सन् १९२१ ई. में स्वीकार कर लिया था परंतु इसके कार्यान्वयन में उसे दो दशक से भी अधिक का समय लग गया।

सन् १९३५ के गवर्नमेंट आव इंडिया ऐक्ट में बेकारी (बेरोजगारी) प्रांतीय विषय के रूप में ग्रहण की गई। परंतु द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के बाद युद्धरत तथा फैक्टरियों में काम करनेवाले कामगारों को फिर से काम पर लगाने की समस्या उठ खड़ी हुई। १९४२-१९४४ में देश के विभिन्न भागों में कामदिलाऊ कार्यालय खोले गए परंतु कामदिलाऊ कार्यालयों की व्यवस्था के बारे में केंद्रीकरण तथा समन्वय का अनुभव किया गया। अत: एक पुनर्वास तथा नियोजन निदेशालय (Directorate of Resettlement and Employment) की स्थापना की गई है। (पुरुषोत्तम वाजपेयी)