बुक्क १४वीं सदी के पूर्वार्ध में दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के किनारे विजयनगर राज्य की स्थापना हुई थी जिसके संस्थापक बुक्क तथा उसके ज्येष्ठ भ्राता हरिहर का नाम इतिहास में विख्यात है। संगम नामक व्यक्ति के पाँच पुत्रों में इन्हीं दोनों की प्रधानता थी। प्रारंभिक जीवन में वारंगल के शासक प्रतापरुद्र द्वितीय के अधीन पदाधिकारी थे। उत्तर भारत से आक्रमणकारी मुसलमानी सेना ने वारंगल पर चढ़ाई की, अत: दोनों भ्राता (हरिहर एवं बुक्क) कांपिलि चले गए। १३२७ ई. में बुक्क बंदी बनाकर दिल्ली भेज दिया गया और इस्लाम धर्म स्वीकार करने पर दिल्ली सुल्तान का विश्वासपात्र बन गया। दक्षिण लौटने पर भारतीय जीवन का ्ह्रास देखकर बुक्क ने पुन: हिंदू धर्म स्वीकार किया और विजयनगर की स्थापना में हरिहर का सहयोगी रहा। ज्येष्ठ भ्राता द्वारा उत्तराधिकारी घोषित होने पर १३५७ ई. में विजयनगर राज्य की बागडोर बुक्क के हाथों में आई। उसने बीस वर्षों तक अथक परिश्रम से शासन किया। पूर्व शासक से अधिक भूभाग पर उसका प्रभुत्व विस्तृत था।

शाति स्थापित होने पर राजा बुक्क ने आदर्श मार्ग पर शासन व्यवस्थित किया। मंत्रियों की सहायता से हिंदूधर्म में नवजीवन का संचार किया। इसने कुमार कंपण को भेजकर मदुरा से मुसलमानों को निकल भगाया जिसका वर्णन कंपण की पत्नी गंगादेवी ने 'मदुरा विजयम्' में मार्मिक शब्दों में किया है। बुक्क स्वयं शैव होकर सभी मतों का समादर करता रहा। इसकी संरक्षता में विद्वत् मंडली ने सायण के नेतृत्व में वैदिक संहिता, ब्राह्मण तथा आरण्यक पर टीका लिखकर महान् कार्य किया। अपने शासन काल में (१३५७-१३७७ ई.) बुक्क प्रथम ने चीन देश को राजदूत भी भेजा जो स्मरणीय घटना थी। अनेक गुणों से युक्त होने के कारण माधवाचार्य ने जैमिनी न्यायमाला में बुक्क की निम्न प्रशंसा की है:

जागर्ति श्रुतिमत्प्रसंग चरित:

श्री बुक्कण क्ष्मापति:। (बलदेव उपाध्याय)