बी.सी.जी. बेसिलस कालमेट गेरैं (Bacillns Calmette-Girerin) का संक्षिप्त नाम है। यह एक वैक्सीन है, जो सजीव किंतु विषहीन क्षय जीवाणुओं से तैयार किया जाता है। नीरोग व्यक्तियों को क्षय रोग से बचाने में यह वैक्सीन प्रभावशाली सिद्ध हुआ है।
बी.सी.जी. का जन्म - पैस्टर ने सिद्ध किया था कि जीवाणु जब एक पशु से दूसरे पशु के शरीर में जाते हैं तब उनकी विषमयता बढ़ती है और इसके विपरीत कृत्रिम संवर्धनों में वे क्रमश: विषहीन होते जाते हैं। इसी आधार पर पेस्टर के शिष्य और फ्रांस में लील स्थित पैस्टर इंस्ट्टियूट के निदेशक अलबर्ट कालमेट ने पशु चिकित्सा विशेषज्ञ कामिल गेरैन् के सहयोग से सन् १९०३ में अनुसंधान आरंभ किए। सन् १९०६ में कालमेट ने सिद्ध किया कि शरीर में क्षय प्रतिरोध की क्षमता विषहीन जीवाणुओं की उपस्थिति पर निर्भर रहती है। अतएव अब ऐसा जीवाणु, जो विषहीन हो और साथ ही जिसके पैतृक गुण वैसे ही रहें तैयार करने का काम होने लगा। १९०८ ई. में विषहरण की विधि ज्ञात हुई और अनुसंधान बी.सी.जी. निर्माण की ओर प्रवृत्त हुआ। विष भरे बोवाइन क्षय जीवणुओं का ग्लिसरीनयुक्त वृषभपित्त में उबाले आलू पर संवर्धन आरभ किया गया। २३ दिन तक निरंतर संवर्धन करने पर, जीवाणुओं की विषमयता कम होने लगी। अनेक कठिनाइयों और प्रथम महायुद्ध की छाया में, विषम परिस्थितियों के बावजूद, कालमेट और गेरैन् ने संवर्धन का क्रम अटूट रखा, हर तीसरे हफ्ते नया संवर्धन और नई पीढ़ी की विषमयता की जाँच होती रही। याद रहे कि इस प्रयोग में एक बड़ी कठिनाई यह थी कि कहीं क्रम टूटा तो पुन: शुरू से चलना पड़ेगा। अंततोगत्वा १३ वर्ष और २३० अनवरत संवर्धनों के बाद, सन् १९२१ में नए जीवाणु का जन्म हुआ, जो क्षय का जीवाणु होते हुए भी विषहीन था तथा रोग उत्पन्न करने में असमर्थ था।
बी.सी.जी. के प्रयोग - पहले पशुओं पर प्रयोग किए गए, जो सफल रहे। तब चैरिटी हॉस्पिटल, पैरिस के बालरोग विशेषज्ञ, डाक्टर वीलहाले, ने साहस किया और एक क्षयग्रस्त माता के नवजात शिशु को जन्म के तीसरे, पाँचवें और सातवें दिन मुख से छह मिलीग्राम बी.सी.जी. खिलाया गया। तीन महीने के बाद भी बच्चे को हानि नहीं हुई, उल्टे वह तपेदिक से भी बचा रहा। फिर तो १९२१ के बाद सैकड़ों बच्चों को सफलतापूर्वक बी.सी.जी. खिलाया गया।
१९३० ई. में ल्युबेक में भीषण दुर्घटना हो गई। यहाँ पर २४२ बच्चों को बी.सी.जी. दिया गया और इनमें से ६८ मर गए। बड़ा बावेला मचा। अंत में न्यायिक जाँच हुई और ल्युबेक के दो डाक्टर, बी.सी.जी. के साथ असावधानी के कारण विषभरे क्षय जीवाणु मिला देने के, दोषी पाए गए। अगले २० वर्षों में बी.सी.जी. का जितना अध्ययन और प्रयोगात्मक परीक्षण हुआ उतना शायद ही किसी ओषधि का हुआ होगा। अब यह सिद्ध हो चुका है कि यह हानिरहित सफल टीका है और टीका लगवानेवालों में से ८०% को चार पाँच वर्ष तक सुरक्षित रखता है।
द्वितीय महायुद्ध के बाद इसे पूर्ण मान्यता प्राप्त हुई। अनेक देशों ने यह टीका लगवाना कानूनन अनिवार्य कर दिया है। संसार की ५० से अधिक प्रयोगशालाओं में यह टीका बनता है और २० करोड़ से अधिक लोगों को टीका लग चुका है।
भारत में बी.सी.जी. का टीका मद्रास के निकट गिंडी नामक स्थान पर बनता है और समूचे दक्षिण-पूर्व एशिया को भेजा जाता है। हमारे देश में अब तक १५ करोड़ से अधिक लोगों की परीक्षा हो चुकी है और पाँच करोड़ से अधिक लोगों को टीका लग चुका है।
बी.सी.जी. का टीका लगाने से पूर्व ट्यूबर्क्युलिन परीक्षा करते हैं और यदि परीक्षाफल निगेटिव रहा तो बी.सी.जी. की सुई लगाते हैं। (भानश्कुांर मेहता)