बीजगणित (Algebra) गणित की उस शाखा को कहते हैं जिसमें संख्याओं के गुणों और उनके पारस्परिक संबंधों का विवेचन सामान्य प्रतीकों (symbols) द्वारा किया जाता है। ये प्रतीक अधिकांशत: अक्षर (a, b, c,...,x,y, z) और संक्रिया च्ह्रि (operation signs) (+,-,´,...) और संबंधसूचक च्ह्रि (= >, <...) होते हैं। उदाहरणत:, x2+3x = 28 का अर्थ है, 'कोई ऐसी संख्या x है, जिसके वर्ग में यदि उसका तीन गुना जोड़ दिया जाए, तो फल २८ मिलता है, बीजगणितीय प्रतीकों और संख्याओं का उपयोग न केवल गणित में किंतु विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में होने लगा है। व्यापक अर्थ में बीजगणित में निम्नलिखित विषयों का विवेचन सम्मिलित होता है :

समीकरण (equation), बहुपद (polynomial), वितत भिन्न (continued fraction), श्रेणी (series), संख्या अनुक्रम (sequence of numbers), सारणिक (determinant), समघात (form), नए प्रकार की संख्याएँ, जैसे संख्यायुग्म, मैट्रिक्स।

इतिहास - ६२८ ई. के लगभग भारतीय गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त द्वारा लिखे 'बीजगणित' नामक ग्रंथ के आधार पर विषय का नाम बीजगणित पड़ा। इसमें बीजों, अर्थात् मूलभूत अवयवों, से परिकलन (calculation) किया जाता है। बाद में १२वीं शताब्दी में भास्कर ने भी बीजगणित पर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की। ८२५ ई. के आसपास मुहम्मद इब्नमूसा अल ख्वारिज़्मी ने बगदाद में अपने एक ग्रंथ का नाम अलजब्र व अल मुकाबला रखा। अलजब्र अरबी का शब्द है तथा मुकाबला फारसी का और दोनों का अर्थ समीकरण या उससे संबंधित है। इस महत्वपूर्ण ग्रंथ के नाम पर ही यूरोप में इस विषय का नाम ऐलजेबरा पड़ा। चीनी भाषा में इसके लिए ट्मैन-यूँ (अर्थात् दैवी अवयव), जापानी में किगेनसी हो (अर्थात् अज्ञातबोधी), इटाली में आर्स मेग्ना (अर्थात् महान कला) प्रयुक्त हुआ। इनके अतिरिक्त भी अन्य नाम हैं, जो विषय की पुरातनता के द्योतक हैं।

यदि समस्यासाधन हेतु वैज्ञानिक ढंग से की गई अटकलबाजी को मान्यता देना स्वीकार हो, तो २,००० वर्ष ई. पू. और उससे भी पहले बीजगणित के प्रादुर्भाव का संकेत मिलता है। यदि शब्दगत समीकरण व्याख्या को और धनमूल वाले सरल समीकरणों के ज्यामितीय आरेखों पर अवलंबित हल को मान्यता दी जाए, तो कहना होगा कि ३०० ई. पू. में यूक्लिड और ऐलेक्ज़ेंड्रिया स्कूल को बीजगणित का ज्ञान था। १६वीं शताब्दी में मुद्रण कला के विकास और रुडोल्फ, राबर्ट रेकार्ड, रेफ़िल नोंवेली तथा क्रेवियस और विद्वानों के प्रयासों से इस विषय ने व्यापकीकृत अंकगणित का रूप धारण कर लिया और १७वीं शताब्दी में प्रतीक पद्धति के परिपूर्ण हो जाने पर बीजगणित का विकास बहुत जोरों से हुआ। संक्षेप में बीजगणित के विकास में उसकी विषय सीमा इन स्तरों से विस्तृत होती गई : (१) लगभग १,८०० ई. पू. से २७५ ई. तक के काल में संख्या संबंधी पहेलियों का हल, बिना किसी प्रतीक-पद्धति की सहायता के, किया जाना; (२) दिए हुए क्षेत्रफल का वर्ग ज्यामितीय विधि से खींचना; (३) स्थूल प्रतीक पद्धति का विकास; (४) समीकरणों का अधिक तर्कयुक्त विवेचन ८००-१२०० ई. तक; (५) १६वीं शताब्दी में द्विघात और त्रिघात समीकरणों के साधन हेतु सिद्धांत का प्रतिपादन; (६) सुस्पष्ट और सुविधामय प्रतीक पद्धति का विकास तथा (७) १८०० ई. से अमूर्त बीजगणित का विकास।

संख्याएँ - वस्तुओं के गिनने में जो संख्याएँ प्रयुक्त होती हैं प्राकृतिक संख्याएँ (natural numbers) कहलाती हैं। अन्य संख्याओं को कृत्रिम संख्याएँ (artificial numbers) कहते हैं। कृत्रिम संख्याओं का अध्ययन अंकगणित में ही आरंभ हो जाता है, किंतु वहाँ केवल भिन्नों का ज्ञान पर्याप्त होता है। बीजगणित में ऋण संख्याओं, अपरिमेय, बीजातीत, मिश्र आदि संख्याओं का विवेचन आवयक हो जाता है।
बीजीय व्यंजक - 2a का अर्थ है a+a, अर्थात् a का दुगुना। व्यापक रूप से, यदि m कोई धन पूर्ण संख्या है, तो ma का अर्थ है a का m गुना। ma को m और a का गुणनफल भी कहते हैं।
a2 का अर्थ है a´a; a3 का अर्थ है a´a´a* व्यापक रूप से, यदि m कोई धन पूर्ण संख्या है तो am का अर्थ है
a´a´.....m बार।
am में m को घात (exponent) और a को आधार (base) कहते हैं। आगे चलकर m a और am के अर्थ विस्तृत कर उन स्थितियों में भी बताए जाते हैं जब m ऋण, भिन्न, अपरिमेय आदि कोई भी संख्या हो। सामान्य संख्याओं के प्रतीक एक या अधिक अक्षरों और किसी संख्या के गुणनफल को पद (term) कहते हैं, जैसे 3a2 b, -4a, x (अर्थात् 1x)। कई एक पदों के योगफल को बीजीय व्यंजक (algebraic expression) कहते हैं। पूर्वोक्त तीन पदोंवाला व्यंजक 3a2 b-4a+x है। यहाँ 4a के पहले अ चिह्न लगाना व्यर्थ था। अकेले पद को एकपद व्यंजक (monomial), दो पदोंवाले व्यंजक को द्विपद (binomial), तीन पदवाले को त्रिपद (trinomial) कहते हैं। एक से अधिक पदवाले व्यंजक को बहुपद (polynomial) कहते हैं। दो या अधिक पदों के गुणनफल से एक पद ही प्राप्त होता है। गुणा किया जानेवाला प्रत्येक पद गुणनफलवाले पद का गुणनखंड (factor) कहलाता है।
वैसे तो पद के किसी एक गुणनखंड का गुणांक (coefficient) ोष गुणनखंडों का गुणनफल है, जैसे 3a3 b2 में a३ का गुणांक 3b2 कहा जा सकता है, किंतु प्रथा आरंभवाले गुणनखंडों के गुणनफल को ोष खंडों के गुणनफल का गुणांक मानने की है। इस प्रकार b2 का गुणांक 3a3 है, a3 b2 का गुणांक ३ है। यदि गुणांक संख्यामात्र हो, तो उसे संख्यात्मक गुणांक कहते हैं। कोष्ठकों में बंद कर व्यंजक को एक पद की भाँति प्रयुक्त किया जा सकता है। (देखें, फलन और गुणनखंड)।
प्रारंभिक संक्रियाएँ - बहुपदों पर सामान्य संक्रियाओं, योग, व्यवकलन, गुणन तथा विभाजन-के अतिरिक्त गुणनखंडन, घातक्रिया (involution), वर्गमूल निर्धारण, दो या अधिक बहुपदों के लघुतम समापवर्त्य तथा महत्तम समापवर्तक ज्ञात करने की विधियाँ प्रारंभिक बीजगणित की पुस्तकों में अच्छी तरह समझाई रहती हैं (देखें बहुपद)। अनुपात और गुणनखंड व्यापक अर्थ में सभी प्रकार की संख्याओं के लिए प्रयुक्त होते हैं।
समीकरण - समता मुख्यत: तीन प्रकार की होती हैं : (१) 3+2=5 संख्याओं का संबंध है। (२) x+2x=3x ऐसा संबंध है जो न् के सभी मानों के लिए सत्य है; इसे सर्वंसमिका (identity) कहते हैं। (३) x+3=2 ऐसी समता है जो x के केवल एक ही मान (वस्तुत: -१) के लिए सत्य है; इसे समीकरण (equation) कहते हैं। प्राय: सर्वसमिका में उसका समीकरण से विभेद स्पष्ट करने के लिए, चिह्न उ के स्थान में तुल्यचिह्न स् का प्रयोग किया जाता है। एकघात और द्विघात समीकरणों का हल डायफेंटस ने लगभग २५० ई. में दिया था (देखें डायेफैंटीय समीकरण)। भारत में आर्यभट्ट ने ४७६ ई. में द्विघात समीकरण का हल मौलिक रूप से दिया।
प्रारंभिक श्रेढियाँ - मध्यकालीन युग में समांतर (arithmetic), गुणोत्तर, आदि श्रेढियों के अध्ययन की ओर काफी रुचि थी। इसी कारण इन श्रेढियों का संकलन (योगफल ज्ञात करना) प्रारंभिक बीजगणित का रोचक विषय है। उदाहरणार्थ दो सूत्र लीजिए :
1+2+3+....m पदों तकò = m (m+1)
12+22+32+....m पदों तक = m (m+1) (2m+1)
गुणोत्तर श्रेढी का अध्ययन हमें अनंत श्रेणियों के अध्ययन पर ले जाता है। तब सीमा आदि महत्वपूर्ण संकल्पनाएँ आवयक हो जाती हैं और अवकलन तथा समाकलन बोधगम्य हो जाते हैं।
बीजगणित का महत्व - अंकगणित की अपेक्षा प्रतीकों का प्रयोग कर, कम श्रम से अत्यंत व्यापक फल प्राप्त करना बीजगणित की उपलब्धि है। इसीलिए बीजगणित को भाषा की आाुलिपि (short hand) कहते हैं। फ्रांसीसी गणितज्ञ बर्टैड (सन् १८२२-१९००) के अनुसार बीजगणित में संक्रियाओं और परिकल्पनात्मक क्रिया कलाप का अध्ययन, जिन संख्याओं पर वे प्रयोज्य होती हैं उनसे स्वतंत्र रहकर किया जाता है। यही इस विज्ञान की वोिषता है। विज्ञान की साधना में बीजगणित का अध्ययन आवयक है। सत्रों के रूप में तो बीजगणित की अनिवार्यता तुरंत प्रकट हो जाती है।
व्यापकीकरण और अमूर्त बीजगणित - बीजगणित व्यापकीकृत अंकगणित है और व्यापकीकरण की क्रिया बीजगणित के उत्तरोत्तर विकास में जारी रहती है। प्रारंभिक बीजगणित में ही ab, am, am. an, (am)n आदि के अर्थों को व्यापक कर a, b, m, n के सभी मानों के लिए निचित अर्थवाला बना दिया जाता है। यह सब ु(-१) राशि की कल्पना के कारण ही संभव हुआ। दुर्भाग्य से इस राशि को काल्पनिक मान लिया गया और इसके अंग्रेजी अनुवाद (imaginary) का पहला अक्षर त् इसका प्रतीक बना। जब १७ वीं और १८वीं ाताब्दी में समस्या समाधान हेतु त् को इतना अधिक उपयोगी पाया गया, तो इसकी प्रकृति की ओर ध्यान गया। इसे संख्या न माने जाने पर, अमूर्त रूप से इसे संख्यायुग्मों पर कुछ स्वेच्छ संक्रियाओं का प्रतीक माना गया और मूर्त रूप से इसकी ज्यामितीय व्याख्या 'समतल में समकोण तक घुमाओ' दी गई। इन व्याख्याओं से प्रेरणा हुई कि क्यों न i जैसे अन्य प्रतीक खोजे जाएँ। इसी प्रयास में सन् १८४३ में हैमिल्टन ने त्रिविमी घूर्णन के संदर्भ में क्वाटर्नियंस i और j का आविष्कार किया और बताया कि ij=-ji* यह अत्यंत महत्वपूर्ण खोज थी, क्येंकि अब तक के बीजगणित में सदा ही ab=ba था। अब गणितज्ञों ने नाना प्रकार कीं 'अतिसंमिश्र संख्याओं' और संक्रिया प्रतीकों को खोज कर डाली। अंतत: यह प्रन उठता ही था कि क्यों न साधारण संख्याओं के स्थान में किन्हीं प्रतीकों को लेकर और उनके संयोजन के नियम निर्धारित कर, वोिष प्रकार के बीजगणित की रचना की जाए।
इस प्रकार सदाि और मैट्रिक्स (या व्यूह) बीजगणित की रचना हुई। बीजगणित की मूलभूत संक्रियाओं के व्यापकीकरण से नाना प्रकार के बीजीय तंत्र (algebraic systems) मिलते हैं। इन तंत्रों में अवयवों के संयोजन (combination) संबंधी अलग अलग नियम होते हैं, जिनसे अन्य अवयव बनते हैं। चूँकि इन तंत्रों के अध्ययन में इस बात की वोिष महत्ता नहीं होती कि अवयव वास्तव में क्या हैं, बल्कि उनमें नियमों की प्राथमिकता होती है। इसलिए इन तंत्रों को अमूर्त बीजगणित (abstract algebra) की संज्ञा दी गई है।
अमूर्त तंत्रों के कुछ उदाहरण देने के लिए किसी संक्रियाँ । के प्रति निम्न संकल्पनाएँ आवयक हैं - १. अवगुंठन (Closure) : यदि किसी समुच्चय के कोई दो अवयव (elements) a और b हों, तो a*b भी उसी समुच्चय का अवयव है। २. क्रमविनिमेयता (Commutativity) : a*b=b*a* ३. साहचर्य नियम (Associativity) : यदि a, b, c, समुच्चय के अवयव हों, तो (a*b) *c=a* (b*c)। ४. सर्वसमिका (identity) का अस्तित्व : समुच्चय में ऐसा अवयव e हो कि a*e=e*a=a.* ५. प्रतिलोम (inverse) का अस्तित्व : समुच्चय में किसी भी अवयव a के संगत ऐसा अवयव a-१ हो कि a*a-1=a-1*a=e.* ६. पहली संक्रिया और दूसरी संक्रिया के प्रति वितरण नियम :
a (b*c)=(a b) * (a c) और 6¢(b*c) a=(b a) * (c a)


किसी समुच्चय को संक्रिया । के प्रति ग्रुप (या संघ) तब कहते है जब उसमें गुणधर्म १, ३, ४, ५ हों। यदि गुणधर्म २ भी हो तो उसे क्रम विनिमेयी, अथवा आबेली ग्रुप कहते हैं (देखें संघ) दो संक्रियाओं । और के प्रति समुच्चय को रिंग तब कहा जाता है जब पहली के प्रति पाँचों गुणधर्म १ से ५ तक हों, दूसरी के प्रति १, ३. और सम्मिलितत: दोनों के प्रति ६, ६फ़ हों। ऐसी रिंग की फील्ड कहते हैं, जिसमें दूसरी संक्रिया के प्रति गुणधर्म २ तथा ४ हों और पहली संक्रिया के सर्वसमक (अर्थात् a।a-१) को छोड़ अन्य हरेक अवयव का प्रतिलोम दूसरी संक्रिया के प्रति हो। उदाहरणतया, जोड़ और गुणन संक्रियाओं के प्रति (१) शून्य समेत सभी पूर्णसंख्याओं का सम्मुच्चय रिंग है (२) सभी परिमेय संख्याओं का, अथवा वास्तविक संख्याओं का, अथवा संमिश्र संख्याओं का सम्मुच्चय फील्ड है।
गणित की अन्य ााखाओं में विाष्ट समस्याओं के हल करने के प्रयास में कई नए बीजीय तंत्रों का प्रादुर्भाव हुआ। अवकल समीकरणों के वर्गीकरण प्रयास में ली ग्रुप का आविष्कार हुआ। इसी प्रकार स्थिति विलेषण (topology) की कुछ समस्याओं ने होमोलोजिकल बीजगणित को जन्म दिया। १८५० ई. के लगभग बूल ने सांकेतिक बीजगणित का विकास किया जिसका अब महत्वपूर्ण प्रयोग टेलीफोन परिपथ और इलेक्ट्रोनिक परिकलन यंत्र के अभिकल्पन में हुआ है।
१८०० ई. से पहले गणित का सरोकार मुख्यत: दो सामान्य समझ बूझ की संकल्पनाओं, संख्या और आकृति से था। १९वीं शताब्दी के आरंभ में दो नए विचारों ने गणित के क्षेत्र को एकदम विस्तृत कर दिया : पहला यह कि गणित का व्यवहार केवल संख्याओं और आकृतियों के लिए ही नहीं, वरन् किन्हीं भी वस्तुओं के लिए किया जा सकता है। दूसरे विचार के अनुसार अमूर्त्तीकरण की प्रक्रिया को और आगे बढ़ाकर, गणित को केवल तर्कयुक्त विधान माना जाने लगा, जिसका किसी वस्तुवोिष से कोई सरोकार न था। पहला विचार वैज्ञानिकों को उपयोगी लगा और दूसरा शुद्ध गणितज्ञ को, जिसके लिए गणित केवल सुंदर प्रतिरूपों का अध्ययन मात्र रह गया। इन दो दृष्टिकोणों में कोई वास्तविक विरोधाभास नहीं, क्योंकि प्राय: सुंदर प्रतिरूप भौतिक प्रकृति में ठीक बैठते हैं और वैज्ञानिक द्वारा प्रकृति में पाए गए गणितीय प्रतिरूप प्राय: सुंदर होते हैं।
बीजीय ज्यामिति - गणित की व शाखा है जिसमें बीजीय समीकरणों की सहायता से आरेखों और चित्रों के गुणधर्मों का विवेचन किया जाता है।
स.ग्रं. - ज्योर्ज क्रस्टल : ऐलजेबरा (ब्लैक, १८८९); डी.ई. स्मिथ : हिस्ट्री ऑव मैथेमैटिक्स, बोस्टन (१९२५); एम.बोके : हायर ऐलजेबरा (मैकमिलन, १९०७)। (हरिश्चंद्र गुप्त)