बिहारी दोहासिद्ध कवि, छंदरचना विचार से, और शृंगार रस सिद्ध रस रचना विचार से, ठहरते हैं। इन्होंने दोहा छंद रचना में अप्रतिम सफलता प्राप्त की है और केवल इसी छंद में रचना की है। कुछ सोरठे भी लिखे हैं सोरठा वस्तुत: दोहे का उलटा हुआ छंद ही है। भावविचार से इन दोनों छंदों का पृथक् प्रयोग किया जाता है। मुक्तक रचना के लिए विशेषतया संक्षिप्तता के साथ भावगांभीर्य रखने के हेतु यह छंद सर्वथा समीचीन है।
इनकी प्रसिद्ध मुक्तक रचना सतसई (सप्तशती) के नाम से लोकप्रिय हैं, जिसमें ७०० से ऊपर दोहे हैं। कतिपय दोहे संदिग्ध भी माने जाते हैं। यों सभी दोहे सुंदर और सराहनीय हैं तथापि तनिक विचारपूर्वक बारीकी से देखने पर लगभग २०० दोहे अति उत्कृष्ट ठहरते हैं। सतसई को तीन मुख्य भागों में विभक्त कर सकते हैं-नीति विषयक, भक्ति और अध्यात्म भाव परक, तथा शृगांरपपरक। इनमें से शृंगारात्मक भाग अधिक है। कलाचमत्कार सर्वत्र चातुर्य के साथ प्राप्त होता है।
शृंगारात्मक भाग में रूपांग सौंदर्य, सौंदर्योपकरण, नायक-नायिकाभेद तथा हाव, भाव, विलास का कथन किया गया है। नायक-नायिकानिरूपपण भी मुख्त: तीन रूपों में मिलता है-प्रथम रूप में नायक कृष्ण और नायिका राधा है। इनका चित्रण करते हुए धार्मिक और दार्शनिक विचार को ध्यान में रखा गया है। इसलिए इसमें गूढ़ार्थ व्यंजना प्रधान है, और आध्यात्मिक रहस्य तथा धर्ममर्म निहित है; द्वितीय रूप में राधा और कृष्ण का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया किंतु उनके आभास की प्रदीप्ति दी गई है और कल्पनादर्श रूप रौचिर्य रचकर आदर्श चित्र विचित्र व्यंजना के साथ प्रस्तुत किए गए हैं। इससे इसमें लौकिक वासना का विलास नहीं मिलता। तृतीय रूप में लोकसंभव नायक नायिका का स्पष्ट चित्र है। इसमें भी कल्पना कला कौशल और कवि परंपरागत आदर्शों का पुट पूर्ण रूप में प्राप्त होता है। नितांत लौकिक रूप बहुत ही न्यून और बहुत ही कम है।
'सतसई' के मुक्तक दोहों को क्रमबद्ध करने के प्रयास किए गए हैं २५ प्रकार के क्रम कहे जाते हैं जिनमें से १४ प्रकार के क्रम देखे गए हैं शेष ११ प्रकार के क्रम जिन टीकाओं में हैं, वे प्राप्त नहीं। किंतु कोई निश्चित क्रम नहीं दिया जा सका। वस्तुत: बात यह जान पड़ती है कि ये दोहे समय समय पर मुक्तक रूप में ही रचे गए, फिर चुन चुनकर एकत्रित कर संकलित कर दिए गए। केवल मंगलाचरणात्मक दोहों के विषय में भी इसी से विचार वैचित््रय है। यदि 'मेरी भव बाधा हरौ' इस दोहे को प्रथम मंगलाचरणात्मक अर्थात् केवल राधोपासक होने का विचार स्पष्ट होता है और यदि 'मोर मुकुट कटि काछिनि'-इस दोहे को लें, तो केवल एक विशेष बानकवाली कृष्णमूर्ति ही बिहारी की अभीष्टोपास्य मूर्ति मुख्य ठहरती हैं - बिहारी वस्तुत: कृष्णोपासक थे, यह स्पष्ट है।
सतसई के देखने से स्पष्ट होता है कि बिहारी के लिए काव्य में रस और अलंकार चातुर्य चमत्कार तथा कथन कौशल दोनों ही अनिवार्यावश्यक हैं। उनके दोहों को दो वर्गों में इस प्रकार भी रख सकते हैं, एक वर्ग में वे दोहे आएँगें जिनमें रस रौचिर्य का प्राबल्य है और रसात्मकता का ही विशेष ध्यान रखा गया है। अलंकार चमत्कार इनमें भी है किंतु विशेष प्रधान नहीं, वरन् रस परिपोषकता और भावोत्कर्षकता के लिए ही सहायक रूप में यह है।
दूसरे वर्ग में वे दोहे हैं जिनमें रसात्मकता को विशेषता नहीं दी गई वरन्. अलंकार चमत्कार और वचनचातुरी अथवा कथन-कलाकौशल को ही प्रधानता दी गई है। किसी विशेष अलंकार को उक्तिवैचित््रय के साथ सफलता से निबाहा गया है। इस प्रकार देखते हुए भी यह मानना पड़ता है कि अलंकार चमत्कार को कहीं नितांत भुलाया भी नहीं गया। रस को उत्कर्ष देते हुए भी अलंकार कौशल का अपकर्ष भी नहीं होने दिया गया। इस प्रकार कहना चाहिए कि बिहारी रसालंकारसिद्ध कवि थे; रससिद्ध ही नहीं।
नीति विषयक दोहों में वस्तुत: सरसता रखना कठिन होता है, उनमें उक्तिऔचित्य और वचनवक्रता के साथ चारु चातुर्य चमत्कार ही प्रभावोत्पादक और ध्यानाकर्षण में सहायक होता है। यह बात नीत्यात्मक दोहों में स्पष्ट रूप से मिलती है। फिर भी बिहारी ने इनमें सरसता का सराहनीय प्रयास किया है।
ऐसी ही बात दार्शनिक सिद्धांतों और धार्मिक भाव मर्मों के भी प्रस्तुत करने में आती है क्योंकि उनमें अपनी विरसता स्वभावत: रहती है। फिर भी बिहारी ने उन्हें सरसता के साथ प्रस्तुत करने में सफलता पाई है।
भक्ति के हार्दिक भाव बहुत ही कम दोहों में दिखाई पड़ते हैं, समयावस्था विशेष में बिहारी के भावुक हृदय में भक्तिभावना का उदय हुआ और उसकी अभिव्यक्ति भी हुई। बिहारी में दैन्य भाव का प्राधान्य नहीं, वे प्रभु प्रार्थना करते हैं, किंतु अति हीन होकर नहीं। प्रभु की इच्छा को ही मुख्य मानकर विनय करते हैं।
मूलभाव बिहारी ने अपने पूर्ववर्ती सिद्ध कविवरों की मुक्तक रचनाओं, जैसे आर्यासप्तशती, गाथा सप्तशती, अमरुकशतक आदि से लिए हैं- कहीं उन भावों को काट छाँटकर सुंदर रूप दिया है, कहीं कुछ उन्नत किया है और कहीं ज्यों का त्यों ही सा रखा है। सौंदर्य यह है कि दीर्घ भावों को संक्षिप्त रूप में रम्यता के साथ अपनी छाप छोड़ते हुए रखने का सफल प्रयास किया गया है।
'सतसई' पर अनेक कवियों और लेखकों ने टीकाएँ लिखीं। कुल ५४ टीकाएँ मुख्य रूप से प्राप्त हुई हैं। रत्नाकर जी की टीका एक प्रकार से अंतिम टीका है, यह सर्वांग सुंदर है। सतसई के अनुवाद भी संस्कृत, उर्दू (फारसी) आदि में हुए हैं और कतिपय कवियों ने सतसई के दोहों को स्पष्ट करते हुए कुंडलिया आदि छंदों के द्वारा विशिष्टीकृत किया है। अन्य पूर्वापरवर्ती कवियों के साथ भावसाम्य भी प्रकट किया गया है। कुछ टीकाएँ फारसी और संस्कृत में लिखी गई हैं। टीकाकारों ने सतसई में दोहों के क्रम भी अपने अपने विचार से रखे हैं। साथ ही दोहों की संख्या भी न्यूनाधिक दी है। यह नितांत निश्चित नहीं कि कुल कितने दोहे रचे गए थे। संभव है, जो सतसई में आए वे चुनकर आए कुल दोहे ७०० से कहीं अधिक रचे गए होंगे। सारे जीवन में बिहारी ने इतने ही दोहे रचे हों, यह सर्वथा मान्य नहीं ठहरता।
'सतसई' में ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। ब्रजभाषा ही उस समय उत्तर भारत की एक सर्वमान्य तथा सर्व-कवि-सम्मानित ग्राह्य काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी। इसका प्रचार और प्रसार इतना हो चुका था कि इसमें अनेकरूपता का आ जाना सहज संभव था। बिहारी ने इसे एकरूपता के साथ रखने का स्तुत्य सफल प्रयास किया और इसे निश्चित साहित्यिक रूप में रख दिया। इससे ब्रजभाषा मँजकर निखर उठी।
'सतसई' पर कतिपय आलोचकों ने अपनी आलोचनाएँ लिखी हैं। रीति काव्य से ही इसकी आलोचना चलती आ रही है। प्रथम कवियों ने सतसई की मार्मिक विशेषता को सांकेतिक रूप से सूचित करते हुए दोहे और छंद लिखे। उर्दू के शायरों ने भी इसी प्रकार किया। यथा :
सतसइया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखत मैं छोटे लगैं, घाव करैं गंभीर।।
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बिहारी की बलागत और ब्रजभाषा की शीरीनी,
हमें तारीफ़ करने के लिए मजबूर करती है।।
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इस प्रकार की कितनी ही उक्तियाँ प्रचलित हैं। विस्तृत रूप में सतसई पर आलोचनात्मक पुस्तकें भी इधर कई लिखी गई हैं। साथ ही आधुनिक काल में इसकी कई टीकाएँ भी प्रकाशित हुई हैं। इनकी तुलना विशेश रूप से कविवर देव से की गई और एक ओर देव को, दूसरी ओर बिहारी को बढ़कर सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया। दो पुस्तकें, 'देव और बिहारी' पं. कृष्णविहारी मिश्र लिखित तथा 'बिहारी और देव' लाला भगवानदीन लिखित उल्लेखनीय हैं। रत्नाकर जी के द्वारा संपादित 'बिहारी रत्नाकर' नामक टीका और 'कविवर बिहारी' नामक आलोचनात्मक विवेचन विशेष रूप में अवलोकनीय और प्रामाणिक हैं। (रामांकर शुक्ल 'रसाल'ु.)