बालश्रम और बालश्रमिक का अस्तित्व संसार में प्राचीन काल से ही रहा है। जो माता पिता अपने बाल बच्चों का पालन पोषण नहीं कर पाते, उन्हें बच्चों को किसी धनी परिवार में नौकर बना देना पड़ता है। देहात में बहुत से गरीब बच्चे पशु चराने का काम प्राचीन काल से करते आए हैं। उन दिनों जब एक गिरोह दूसरे गिरोह पर आक्रमण करता था, तब जीतनेवाला गिरोह पराजित गिरोह की स्त्रियों और बच्चों को लूट लिया करता था। फिर ये स्त्रियाँ सेविकाएँ और बच्चे गुलाम बना लिए जाते थे। यूनान देश में यह गुलाम प्रथा प्रचलित थी। मुसलमान धर्म के साथ साथ गुलामी की प्रथा भी बढ़ी। गुलामों से सभी प्रकार के काम कराए जाते थे। किसी प्रकार का अपराध हो जाने पर, मालिक द्वारा उन्हें मृत्यु दंड तक दे दिया जाता था। इसे कोई भी सभ्य व्यक्ति बुरा नहीं समझता था।

सभ्यता के विकास के साथ गुलाम बच्चों का भी जीवन सुधरता गया। उदार मनोवृत्ति के लोग अपने घर के श्रमिक बालकों के प्रति भला व्यवहार करने लगे। कभी कभी वे गुलाम बालक को अपनी संपत्ति का भी स्वामी बना देते थे, या अपनी बेटी की शादी उससे कर देते थे। साधारणत:, देहात के लोग बालश्रमिकों पर अत्याचार नहीं करते थे। यदि कोई पिता अपने पुत्र को किसी कारीगर के यहाँ काम सीखने के लिए रख देता, तो ये कारीगर प्राय: ध्यान से उन्हें कारीगरी की बातें सिखाते थे। अत: बालश्रमिकों के जीवन के सुधार के विषय पर शिक्षित जनता का ध्यान नहीं गया, परंतु जब आधुनिक सभ्यता के विकास में मशीन युग आया तथा मशीनों के द्वारा संचालित बड़े बड़े कारखाने चलने लगे, तो बालश्रमिकों पर होनेवाले अत्याचारों की ओर शिक्षित समाज का विशेष ध्यान गया।

मशीन युग में बालश्रम - मशीन युग हृदयहीन है। मशीन का मालिक थोड़े समय में अधिक सामान तैयार कराना चाहता है। वह चाहता है कि उसकी मशीन खाली न रहे और जिस प्रकार तेजी के साथ मशीन काम करती है उसी प्रकार मनुष्य भी बिना रुकावट के काम करता रहे। कारखाना मनुष्य को भी मशीन बना देता है। यहाँ मानवता को स्थान नहीं रहता। उम्र का कोई विचार नहीं रखा जाता। यदि कोई बच्चा कारखाने का कोई भी कार्य कर सकता है, तो उसे वह काम दे दिया जाता है। कारखाने के बहुत से कार्यों में बुद्धि की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, अतएव ऐसे काम बच्चों से कराए जाते हैं। केवल उनको इतनी शिक्षा दे दी जाती है कि वे उसकी देखभाल कर सकें। कुछ सहृदय मालिक इन बच्चों को भी प्रशिक्षण दे देते हैं, जिससे वे सावधानीवाले कार्य भी कर सकें। परंतु इस प्रकार के मालिक कम ही होते हैं। इसलिए कारखाने के युग में बच्चों के साथ सहृदयता का व्यवहार हो, इसकी आवश्यकता का अनुभव समाज सुधारकों ने किया।

बालश्रम कानून - बालश्रमिकों के जीवन के सुधार की माँग पहले पहल इंग्लैंड में हुई। इंग्लैंड ही पहला यूरोपीय देश है जिसमें कल कारखानों का विकास हुआ और जहाँ बालश्रमिकों का अधिक से अधिक उपयोग होता रहा। बालश्रम संबंधी कानून बनने के पूर्व आठ से बारह वर्ष तक के बच्चों से भी आठ दस घंटे तक काम कराया जाता था। बालश्रम संबंधी पहला कानून इंग्लैंड में सन् १८०२ में बना। इसका उद्देश्य सूती मिलों में बालकों से अति श्रम कराने में रुकावट डालना था। किंतु कानून बनने से ही किसी वर्ग पर अत्याचार होना नहीं बंद हो जाता। इसके लिए पर्याप्त जनशिक्षा तथा प्रबल जनमत की आवश्यता होती है। यह जनमत बीस वर्षों में तैयार हुआ। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने सन् १८१९ में एक कानून पास किया, जिसके अनुसार सूती मिलों में कार्य करने वाले बालकों की उम्र कम से कम नौ वर्ष निर्धारित की गई। किंतु नियम का पालन कराने के लिए यथोचित व्यवस्था न होने के कारण, वह ठीक से कारखानों पर लागू न हो सका। अतएव सन् १८३३ में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने फिर बालश्रम शोषण को रोकने के लिए एक फैक्ट्री ऐक्ट पास किया। इस फैक्ट्री ऐक्ट के अनुसार बालश्रमिक को अनेक प्रकार की सुविधाएँ दी गईं और कानून का पालन कराने के लिए निरीक्षण की व्यवस्था की गई। धीरे धीरे श्रमजीवी बच्चों के जीवन में अधिकाधिक सुधार होता गया। जिस प्रकार का कार्य बालश्रमिक का जीवन सुधारने के लिए इंग्लैंड में हुआ, उसी प्रकार का कार्य यूरोप के अन्य कल कारखानेवाले देशों में भी हुआ।

अंतरराष्ट्रीय बालश्रम - १९वीं शताब्दी के मध्यकाल तक यूरोप के प्राय: सभी देश कल कारखानों से संपन्न हो गए। अतएव बालश्रमिक की रक्षा का प्रश्न संपूर्ण यूरोप के लिए महत्वपूर्ण बन गया। सन् १८९० में अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन जर्मन सरकार के आमंत्रण पर बर्लिन में हुआ। इसमें यूरोप की चौदह सरकारों ने अपने प्रतिनिधि भेजे। इस सम्मेलन में बालश्रम संबंधी अनेक बातों पर विचार विमर्श हुआ। किंतु विभिन्न देशों के प्रतिनिधि एक मत न हो सके। सन् १९०० में श्रम कानून बनवाने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय संघ निर्मित हुआ। इसका मुख्य केंद्र स्विट्सरलैंड के बासले नगर में स्थापित हुआ तथा यूरोप के १६ देशों में इसकी शाखाएँ फैलीं। इस संस्था ने लगभग २० वर्ष तक बालश्रम संबंधी कानून बनने की आवश्यकता का प्रचार सम्मेलनों, लेखों और पुस्तिकाओं द्वारा किया। प्रथम विश्वयुद्ध का अंत होने पर १९१९ ई. की संधि में संस्था यह व्यवस्था करवाने में सफल हुई कि बालकों का अनुचित शोषण न हो। इसके कुछ ही समय बाद अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना हुई, जो राष्ट्रसंघ के अंतर्गत २० वर्ष तक काम करता रहा।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने १९१९ ई. में बालश्रमिक की उम्र कम से कम १४ वर्ष हो, इस आशय का कानून बनाने पर जोर दिया। बाद में १९३७ ई. में यूरोपीय बालकों के लिए १५ साल, जापान के बालकों के लिए १४ साल तथा भारतीय बालकों के लिए १३ साल का नियम बनाया गया। इस संस्था की भिन्न भिन्न सभाओं में कल कारखानों के अतिरिक्त दूसरे संस्थानों में कार्य करनेवाले बालकों की उम्र १४ वर्ष रखी गई, जो आगे चलकर १५ वर्ष कर दी गई। इसी अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने बालकों को खतरनाक तथा अस्वास्थ्यकर कामों से, तथा रात में काम करने से रोकने के लिए नियम बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया और इसमें सफलता भी प्राप्त की। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन सभी कल कारखानों में काम करनेवाले लोगों की सुविधा के लिए यूरोप की विभिन्न सरकारों द्वारा नियम बनवाता रहता है। सन् १९३९ तक यूरोप की १५ सरकारों ने कारखानों में काम करनेवालों की उम्र कम से कम १४ वर्ष कर दी। परंतु प्रथम विश्वयुद्ध के कारण कुछ समय तक बालश्रम संबंधी नियमों का पालन न हो सका। विश्वयुद्ध के बाद सभी क्षेत्रों में बालश्रमिक के जीवन में सुधार हुआ।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने ऐसे अनेक नियम विभिन्न देशों की सरकारों से बनवाए जो बच्चों का खतरनाक, अस्वास्थ्यकर अथवा अनैतिक कार्यों में उपयोग करने से रोकते हैं। जो लड़के पढ़ने की क्षमता रखते थे, उनको कारखानों में कार्य करने से रोकने के लिए भी नियम बनवाए गए। कितने ही देशों की सरकारों ने १८ वर्ष से कम उम्र के बालकों का रात में काम करना गैरकानूनी घोषित कर दिया। इन कानूनों की देखभाल के लिए निरीक्षक नियुक्त किए। निरीक्षण का कार्य सरल करने के लिए कारखानों के मालिकों को आज्ञा दी जाती है कि वे २६ वर्ष तथा १८ वर्ष के सभी बालकों की पंजिका रख और इसमें उनकी जन्मतिथि स्पष्टत: दिखाई जाए यह भी दिखाया जाए कि वे किस प्रकार के काम में लगे हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने कृषि में काम करनेवाले बालकों के रक्षार्थ भी अनेक प्रकार के नियम बनवाने की चेष्टा की। इन व्यवसायों में १४ वर्ष से कम बालकों को काम करने से रोका गया है। अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन ने न केवल बालश्रम शोषण को ही अनेक प्रकार से रोका वरन् उसने कल कारखानों में उच्च स्तर के कार्य कने के लिए बालकों की प्रौद्योगिक शिक्षा का भी प्रबंध कराया। इसलिए इस संस्था का कार्य नकारात्मक ही न होकर विधेयात्मक भी है। एक सामान्य योग्यता के बालक को यदि नित्यप्रति अच्छे और जटिल कार्य करने की शिक्षा मिलती जाए, तो वह सामान्य श्रमिक की श्रेणी से उठकर कुशल कारीगर या मिस्त्री बन सकता है, परंतु इसके लिए देश की सरकारों को नियम बनाना होता है कि कारखानों में कार्य करनेवाले होनहार बालकों को उचित व्यावसायिक तथा प्राविधिक शिक्षा दी जाए और उनसे केवल कुली की तरह काम न लिया जाए।

सोवियत रूस का प्रयोग - बालश्रमिक का जीवनस्तर ऊँचा उठाने के लिए रूस ने नया प्रयोग किया। रूस की शिक्षाप्रणाली ने पाठशाला जानेवाले प्रत्येक विद्यार्थीं के लिए किसी न किसी प्रकार के श्रम में भाग लेना अनिवार्य कर दिया, चाहे बालक धनी हो या गरीब घर का। उसके पाठ्यक्रम में श्रम का उतना की महत्व दिया गया जितना बौद्धिक विकास और लौकिक सेवा को। जिस प्रकार के कार्य करने की आदत बच्चों में प्रारंभ से ही पड़ जाती है, वहीं कार्य उन के लिए रोचक बन जाता है और वे उस जीवन भर लगन के साथ करते हैं। रूस का सारा राज्यविधान श्रमजीविकों के रक्षार्थ ही बना है। रूस विभिन्न प्रकार के वर्गों का अस्तित्व ही मिटा देता है। अत: बालश्रमिक का वहाँ पर सम्मान का स्थान है। प्रत्येक बालक को अपने योग्यतानुसार कार्य दिया जाता है। बालकों की शिक्षा और उन्हें काम देने का भार सरकार ने अपने ऊपर ले लिया है। अतएव वहाँ बालश्रमिक पर उतने अत्याचार नहीं होते जितने दूसरे कल कारखानों वाले देशों में हुआ करते हैं।

सभ्यता का विकास समाज से सभी प्रकार के शोषणों को समाप्त करने की दिशा में होता रहा है। समाज के कल्याणकर्ता ही सोचते हैं कि एक समय धनी और गरीब का, श्रमिक और मालिक का, बुद्धिजीवी और श्रमजीवी का सभी प्रकार का भेदभाव मिट जाएगा। यह भेदभाव उचित बालशिक्षा के द्वारा मिटाया जा सकता है। अत:, अब संसार की प्रगतिशील शिक्षाप्रणालियों में प्रारंभ से ही सभी वर्गों के बच्चों से श्रम कराया जाता है। महात्मा गांधी द्वारा निर्मित भारत की प्राथमिक शिक्षाप्रणाली के आलोचकों ने इसपर केवल यही आपत्ति निकाली कि इसके द्वारा बालश्रमिकों का शोषण होता है। परंतु यदि इस प्रणाली के संबंध में भली भाँति विचार किया जाए तो पता चलेगा कि इसका उद्देश्य सभी प्रकार के श्रम को समाज में सम्मानित बनाना तथा बालश्रम का शोषण न होने देकर उसे आनंददायक रूप प्रदान करना है। श्रम के द्वारा शिक्षा, यही प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य है। श्रम का रूप देश काल के अनुसार बदलता रहेगा, किंतु श्रम और शिक्षा का भेद जितना ही मिटेगा बालश्रम का उतना ही कम शोषण होगा। (ला.रा.शु.)

भारत में बालश्रमिक - अन्य देशों की तरह भारत में भी बालकों से श्रम कराने का रिवाज किसी न किसी रूप में लंबे समय से चला आ रहा है। प्राचीन काल में वे अपने संरक्षकों के साथ खेतों और उनके निजी व्यवसायों में सहायक हुआ करते थे। भापशक्ति का आविष्कार होने से जब नगरों और कोयला क्षेत्रों में फैक्टरियाँ खड़ी हुईं, तो उनमें बालक भी काम करने लगे।

आधुनिक औद्योगिकरण के फलस्वरूप तथा अधिक मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति के कारण अनेक देशों की तरह भारत में भी बाल श्रमिकों की संख्या तेजी से बढ़ी है। सन् १९५२ में श्रम ब्यूरो की जाँच के अनुसार यहाँ के कारखानों में बाल मजदूरों की संख्या ६१५९ थी, जिसमें आसाम, बिहार, मद्रास और पश्चिम बंगाल में उनकी संख्या अन्य प्रदेशों से अधिक थी। ये अधिकतर रसायन, रसायन पदार्थ, खाद्य, अधातु, खनिज पदार्थ तथा तंबाकू उद्योगों में कार्य करते थे।

भारत में बाल मजदूरों की रक्षा के लिए सन् १८८१ में विधान बना था किंतु वह उन्हीं कारखानों पर लागू होता था जिनमें कर्मचारियों की संख्या १०० या उससे अधिक थी। इसके अतिरिक्त सन् १९३३ का 'बाल (श्रम अनुबंध) अधिनियम' तथा सन् १९३८ का 'बाल श्रमिक रोजगार अधिनियम' भी हैं जिनसे बाल मजदूरों के ऊपर अधिक बोझ को रोकने तथा उनकी सुरक्षा की व्यवस्था की गई है।

फैक्टरी अधिनियम के अंतर्गत बालक की नौकरी के लिए न्यूनतम अवस्था १४ वर्ष, खान अधिनियम के अंतर्गत १५ वर्ष और उद्यान श्रमिक अधिनियम के अंतर्गत १२ वर्ष हैं। १८ वर्ष से कम उम्र के बालकों को फैक्टरियों, खानों अथवा चाय आदि के बागों में तब तक नौकरी नहीं मिल सकती जब तक उनके पास कार्य संबंधी शारीरिक दक्षता का डाक्टरी प्रमाणपत्र न हो। 'बाल नौकरी अधिनियम' (एंप्लॉयमेंट ऑव चिल्ड्रेन ऐक्ट) के अनुसार, कोई भी बालक, जिसको उम्र १५ वर्ष से कम हैं, उन काम धंधों में नहीं लगाया जा सकता जिनका संबंध रेल द्वारा डाक, माल या यात्री भेजने से हो, अथवा जिनका संबंध बंदरगाहों में माल लादने उतारने के काम से हो। बीड़ी बनाने, गलीचा बुनने, सीमेंट, कपड़ा और दियासलाई आदि के कारखानें में १४ वर्ष से कम उम्र के बालकों को काम पर नहीं लगाया जा सकता। राज्यों द्वारा भी कानून लागू किए गए हैं जिनके अंतर्गत १२ से १४ वर्ष की उम्र के बालकों को नौकर रखना वर्जित है।

फैक्टरी तथा खान अधिनियमों द्वारा बालकों को श्प्रति घंटे प्रतिदिन काम करने की छूट मिली है। 'उद्यान श्रमिक अधिनियमों' के अंतर्गत ४० घंटे प्रति सप्ताह काम करने की व्यवस्था है। रात में बालकों से काम लेना मना है।

फैक्टरियों और चाय आदि के बागों में बालकों को १२ महीने की नौकरी में प्रति १५ दिन के बाद एक दिन की सवेतन छुट्टी का अधिकार हो जाता है, जबकि वयस्क प्रति २० दिन की नौकरी के बाद एक दिन की सवेतन छुट्टी प्राप्त करने का अधिकारी होता है। १९३३ के बाल अधिनियम के अंतर्गत लिखित या मौखिक, स्पष्ट या अंतर्भुक्त ऐसा कोई भी करार रद्द माना जाएगा, जिसके द्वारा १५ वर्ष की उम्र से कम बालक के श्रम को किसी लाभ या धनराशि के बदले में बंधक रखा जाता है। केवल ऐसे करार जिससे बालक को हानि न पहुँचे तथा उसकी सेवा के योग्य उसे उचित मजदूरी मिल जाए और एक सप्ताह की पूर्वसूचना पर उसे समाप्त किया जा सके तो उसे गैरकानूनी नहीं माना जाएगा। (पुरुषोत्तम वाजपेयी)