बालकल्याण के अंतर्गत बालोपकारी उन सभी कार्यों का समावेश होता है जो भ्रूणकाल से लेकर प्राक्शिक्षावय तक के बालकों के सर्वांगपूर्ण विकास तथा वृद्धि में सहायक होते हैं और शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में उनके व्यक्तित्व के इष्टतम विकास के सभी संभव साधन उपलब्ध कराकर, उनके जीवन में उत्साह, आनंद और आशा का संचार करते हैं। इसमें बालक के माता पिता, शिक्षक, चिकित्सक, मनोविज्ञानी, समाजसुधारक, विचारक आदि, समाज के सभी वर्गों के सक्रिय सहयोग की आवश्यकता है।
बालक देश की अमूल्य निधि हैं। उनकी प्रतिभा का उपयुक्त समय पर देशहित में सदुपयोग करना तभी संभव है जब उचित लालन पालन और भरण पोषण से नवजात शिशु को पूर्ण समर्थ बनाया जाए। निर्धन, अशिक्षित और साधनहीन माता पिता बालकल्याण का भार वहन नहीं कर सकते। इस कारण सभी बालकों के व्यापक हित के लिए समाज तथा सरकार का निरंतर क्रियाशील रहना आवश्यक है।
अंतरराष्ट्रीय बालकल्याण संघ द्वारा जिनेवा में की गई ''बालकों के अधिकार'' संबंधी घोषणा इस प्रकार है :
'सभी राष्ट्रों के पुरुष तथा स्त्रियाँ, यह जानते हुए कि मानव अपने सर्वोत्तम देश के लिए बालक का चिर ऋणी है, यह घोषित करते हैं और सब प्रकार से अपना दायित्व पूर्ण करने का कर्तव्य स्वीकार करते हैं कि :
१. जातीय, राष्ट्रीय तथा धार्मिक मान्यताओं से परे बालक का संरक्षण होना चाहिए।
२. परिवार के अस्तित्व के लिए बालक की देखरेख आवश्यक है।
३. भौतिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास के आवश्यक साधन बालक को प्राप्त होने चाहिए।
४. भूखे बालक के भोजन, रोगी की उपचर्या, शारीरिक तथा मानसिक विवशता युक्त (handicapped) की सहायता, दुस्समंजित (maladjusted) के पुन: शिक्षण तथा अनाथ और अनाश्रित के लिए आश्रय तथा भरण पोषण की व्यवस्था होनी चाहिए।
५. संकट काल में बालक को सर्वप्रथम सहायता मिलनी चाहिए।
६. समाजकल्याण तथा समाज-सुरक्षा-योजना के सभी लाभ बालक को उपलब्ध होने चाहिए। उसे ऐसी सुशिक्षा मिलनी चाहिए जिससे वह उपुयक्त समय पर जीविकोपार्जन के लिए समर्थ हो सके। उसे सभी प्रकार के शोषणों से सुरक्षित कर देना चाहिए।
७. बालक का लालन पालन इस धारण से हो कि उसकी प्रतिभा जनता के सेवार्थ प्रयुक्त होगी।
भारत को भी बालकों के उपर्युक्त अधिकार पूर्णत: मान्य है और भारतीय संविधान में शिशुओं और किशोरों के शोषण तथा अनैतिक और आर्थिक परित्याग से संरक्षण की व्यवस्था है। इन अधिकारों के लिए बालकों की न्यूनतम माँगों का स्पष्टीकरण इस प्रकार करना ठीक होगा :
१. आनुवंशिकता (heredity) - माता तथा पिता दोनों के पूर्वजों में वंशागत शारीरिक तथा मानसिक असामान्यता (abnormality) का अभाव तथा उनमें श्रेष्ठ गुणों की प्रधानता हो।
२. जन्मपूर्व - स्वस्थ माता हो, जिसे अनुकूलतम आहार मिलता रहा हो और जिसमें श्रम, विश्राम तथा मानसिक शांति का समीचीन संतुलन हो।
३. जन्मकाल - दुर्घटनारहित सामान्य (normal) प्रसव हो, जिसमें अत्यधिक संज्ञाहारी उपचार (sedation) तथा शीघ्र, अथवा विलंबित प्रसव के बुद्धिहीन प्रयासों का अभाव हो।
४. पोषण - स्तनपान और पर्याप्त मात्रा में कैल्सियम, विटामिन तथा उपयुक्त प्रोटीनयुक्त संतुलित और स्वास्थ्यप्रद आहार हो, जिसमें आवश्यकतानुसार सी तथा डी विटामिनों का आधिक्य हो।
५. अंत:स्रावी हारमोन - सभी अंत:स्रावी ग्रंथियों का सामान्य व्यापार हो।
६. पारिवारिक जीवन - दायित्वपूर्ण तथा विवेकशील माता पिता का प्रचुर मात्रा में वात्सल्य प्रेम, संरक्षण द्वारा अभयदान और उत्साहवर्धक समर्थन निरंतर प्राप्त हो। बालक के मन में अपने प्रति परिवार का स्नेहपात्र, संतुष्ट, उपयोगी और मान्य सदस्य होने की तीव्र भावना हो। सद्भाव और ममतापूर्ण वातावरण हो।
७. चरित्र तथा नैतिक प्रशिक्षण - बालक के अनुकरण योग्य सत्यता, ममता, विश्वासपात्रता, दायित्व तथ उदारतापूर्ण परस्पर व्यवहार का परिवार में चलन हो।
८. शिक्षण - बालक की भावी आवश्यकताओं की पूर्तिकारक तथा उसकी अभिरुचि और क्षमता के अनुकूल शिक्षा की सुविधा हो।
बालकल्याण का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य बालकों का स्वास्थ्य संवर्धन तथा स्वास्थ्य संरक्षण है। रोग का अभाव मात्र ही पूर्ण स्वास्थ्य का लक्षण नहीं है। चिकित्सालयों में बालरोगों के निदान की तथा चिकित्सा संबंधी सुविधाएँ बढ़ाई जा रही हैं। यह कार्य उचित अवश्य है, किंतु बाल-स्वास्थ्य-संवर्धन एवं संरक्षण के अभाव में केवल चिकित्सा द्वारा ही समस्या दूर नहीं की जा सकती। निरोधसाध्य रोगों की रोकथाम रोगोपचार से अधिक श्रेयस्कर है। केवल रोगी बालक की ही नहीं, किंतु नीरोग बालकों की भी उचित देखरेख द्वारा उनके सामान्य स्वास्थ्य में स्वल्प विकार उत्पन्न होते ही भावी रोग की संभावना का विचार कर, रोगकारक स्थिति में तत्काल सुधार कर, रोगरोधन की व्यवस्था आवश्यक है। ऐसा न करने से निरोधसाध्य रोग बढ़कर व्यवसाथ्य, कष्टसाध्य और कभी कभी असाध्य हो जाता है।
बालक के लिए अपार कष्ट सहना मातृत्व का अपूर्व गौरव है। बालक के लालन पालन तथा भरण पोषण में माता को जो त्याग और तपस्या करनी पड़ती है, उसका दुष्प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर अवश्य पड़ता है और अंत में बालक की भी स्वास्थ्यहानि होती है। इस कारण स्वास्थ्य की दृष्टि से मातृकल्याण और बालकल्याण एक ही समस्या के दो अन्योन्याश्रित रूप हैं। मातृस्वास्थ्य के लिए जो संगठन आवश्यक है, प्राय: वही बालस्वास्थ्य का कार्य करता है। केवल रोग चिकित्सा के क्षेत्र में बड़े बड़े चिकित्सालयों में बालरोग तथा स्त्रीरोग के लिए अलग अलग विशेषज्ञों की आवश्यकता पड़ती है।
बालकल्याण का कार्य मुख्यत: नगरों में ही होता है, पर इसे अब ग्रामों में भी बढ़ाया जा रहा है। ग्रामों के हजारों प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों कई हजार मातृत्व तथ४ा बालकल्याण केंद्र स्थापित किए गए हैं, जिनमें प्रशिक्षित स्वास्थ्यचर (Health Visitor), धातृ अथवा प्रसवसेविका (Midwives), लोक-स्वास्थ्य-उपचारिका (Public Health Nurses), समाजसेवक आदि की सहायता से प्रसवपूर्व, प्रसवकालिक तथा प्रसवोत्तर अवस्था में गर्भिणी, गर्भ नवजात शिशु वर्धनशील बालक तथा जच्चा की विशेष देखरेख और आवश्यक चिकित्सा की व्यवस्था की जाती है। गर्भिणी को रहन सहन, आहार, परिश्रम, व्यायाम, विश्राम, निद्रा और स्वच्छता विषयक जानकारी कराई जाती है। प्रसव की चिंता, भय, विडंबना आदि से उत्पन्न मानसिक अशांति को यथासंभव दूर कर, गर्भिणी को आश्वस्त किया जाता है। दुर्बलता, रक्तक्षीणता, रक्तविषाक्तता तथा अन्य विकारों को दूर करने के उपाय किए जाते हैं। खनिज विटामिन और मूल्यवान प्रोटीयुक्त, पोषक आहार का प्रबंध किया जाता है। निर्धन स्त्रियों को दूध तथा अन्य आवश्यक सामग्री बाँटी जाती है। इस प्रकार गर्भिणी के स्वास्थ्यसुधार से गर्भस्थित बालक के उपुयक्त भरण पोषण की संभावना दृढ़ की जाती है। गर्भपात, अपरिणत प्रसव (premature delivery) तथा प्रसवकालिक दुर्घटनाओं की रोकथाम कर, जच्चा तथा नवजात के लिए स्वास्थ्योचित सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। परिवारनियोजन भी परोक्ष रूप से इस कार्य में सहायक है।
चिकित्सकों, चिकित्सालयों और स्वास्थ्याधिकारियों से बालकल्याण केंद्र का घनिष्ट संपर्क स्थापित किया जाता है, जिससे आवश्यकता पड़ने पर रोग का उपचार हो सके और संक्रामक रोगों से बालक की रक्षा की जा सके। अशिक्षित दाइयों को शिक्षा दी जाती है और उनके द्वारा किया जानेवाला प्रसवकर्म यथासंभव दोषरहित कराया जाता है।
वृद्धिगत बालक की समय समय स्वास्थ्यपरीक्षा की जाती है। देह की वृद्धि, आहार, पुष्टि, शिक्षण, स्वभाव, निद्रा, शौच, स्नान, वस्त्रधारण, खेलकूद, आमोदप्रमोद, बुद्धिविकास, स्वच्छता, आदि की स्वास्थ्यचरों द्वारा व्यवस्था की जाती है और माता पिताओं को उचित परामर्श देकर बालक की वृद्धि तथा विकास संतोषजनक रीति से कराया जाता है। औद्योगिक क्षेत्रों में श्रमिक माताओं की संतानों की प्रशिक्षित उपचारिका द्वारा देख रेख के लिए शिशु पोषणशालाएँ (creche) स्थापित की जाती हैं। उपचारक पाठशालाओं (nursery schools) का प्रबंध किया जाता है, जहाँ छोटे छोटे बालकों को मनोरंजन सहित शील और सदाचारयुक्त शिक्षण दिया जाता है। यदि उम्र के अनुसार बालक की आहर संबंधी स्वास्थ्यानुकूल प्रवृत्ति बढ़ती जाती है, शौचादि के संबंध में स्वच्छता की ओर रुझान होने लगता है, स्वास्थ्योचित कार्य वह स्वभावत: करने लगता है तथा हसँता खेलता, प्रसन्नचित्त और संतुष्ट रहता है, तो समझना चाहिए कि बालक का ऐसा जीवन बीमा हो गया जो ऊँची दर से बीमा किस्त देने पर भी संभव नहीं।
अनाथ और निराश्रित बालकों के लिए अनाथालय का प्रबंध किया जाता है, किंतु ममतापूर्ण कौटुंबिक वातावरण के अभाव में वहाँ बालकों का लालन पालन संतोषजनक रीति से नहीं हो सकता। उन्हें पोष्य पुत्रों की तरह पालने के लिए परिवारों में देने का प्रयास करना चाहिए। अंध, बधिर, मूक, अपांग, विकलांग, विक्षिप्त, जड़मूर्ख, और रोगी बालकों की समस्या अत्यंत कठिन है। उनके लिए उपचार, पुन:शिक्षण अथवा पुनर्वास का प्रबंध करना आवश्यक है। उनको निस्सहाय नहीं छोड़ा जा सकता। समाजसेवकों को सरकार की सहायता से कुमार्गी और दुराचारी बालकों का उद्धार करने का प्रयास करना चाहिए। संततिनिरोध द्वारा इस प्रकार के बालकों को उत्पन्न करने का कोई समाजस्वीकृत ढंग अपनाना वांछनीय प्रतीत होता है।
बालकल्याण के क्षेत्र में अनेक प्रतिष्ठित संस्थाएँ कार्य कर रही हैं। भारतीय रेडक्रॉस सोसायटी, भारतीय बालकल्याण परिषद् (मई, १९५२ से), कस्तूरबा गांधी स्मारक निधि, केंद्रीय समाजकल्याण बोर्ड (अगस्त, १९५३ से) और प्रदेशों में उसकी अनेक शाखाएँ संघटित रूप में इस कार्य में संलग्न हैं। अंतरराष्ट्रीय बालकल्याण संघ और संयुक्त राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय आपातिक निधि तथा विश्वस्वास्थ्य संघ से भी यथेष्ट सहायता मिलती है, जिसके फलस्वरूप बालकों की अस्वस्थता तथा मृत्युदर में आशाप्रद सुधार हो रहा है। भारत में सन् १९२० में प्रति सहस्र जीवित जात बालकों में से एक वर्ष की उम्र प्राप्त करने के पूर्व १९५ की मृत्यु हुई थी। यह बाल-मृत्यु-दर सन् १९३५ में १६४, सन् १९४५ में १५२ तथा सन् १९५५ में ११० तक घट गई थी। यह सुधार संतोषजनक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उन्नत देशों की अपेक्षा यह अनुपात अत्यधिक है।
बालक देश की वास्तविक दशा का साकार रूप हैं। उनकी वर्तमान दुरवस्था देश के लिए कलंक रूप है। भावी जनशक्ति का संचारकेंद्र होने के कारण बालकों के इष्टतम कल्याण के लिए भरमक प्रयत्न करने में ही राष्ट्र का परम कल्याण है। प्रत्येक वर्ष जनमत जाग्रत करने के लिए भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री नेहरू की जन्मतिथि (१४ नवंबर) को बालदिवस मनाया जाता है, जिससे इस कार्य में प्रगति होती है। सामाजिक न्याय तथा मानवता के आग्रह के अनुसार प्रत्येक बालक अपने कल्याण के लिए संरक्षण एवं स्वास्थ्य रूपी पैतृक धरोहर का अधिकारी है और सभी से वात्सल्यपूर्ण सद्व्यवहार की मौन याचना करता है। असमर्थ बालक को पूर्णत: समर्थ कर अपने परंपरागत दायित्व का भार उतारना प्रत्येक का कर्तव्य ही नहीं वरन् जातिप्रजायन (race propagation) से संबंद्ध जीवन का लक्ष्य है। बालक के लालन पालन, भरण पोषण, शिक्षण, आदि के लिए असमर्थ या अयोग्य दंपतियों द्वारा संतानोत्पत्ति करना, केवल विवेकहीन और दायित्वरहित कुकर्म ही नहीं है, वरन् जैविक दृष्टि से यह मूलत: मंद विषाक्तन द्वारा बालहत्या का अनैतिक प्रयास है।
सं. ग्रं. - पब्लिकेशंस ऑव् यूनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रेंस इमरजेंसी फंड,
'' '' '' वर्ड हेल्थ आर्गेनाइज़ेशन,
'' ''श्श् चाइल्ड वेलफेयर एक्सपर्ट कमेटी।
(भवानी शंकर याज्ञिक)