बाबर नाम, जहिरुद्दनि मुहम्मद; उपनाम, बाबर। इसका जन्म शुक्रवार १४ फरवरी, सन् १४८३ ई. को मध्य एशिया स्थित फरगना राज्य में हुआ। यह प्रसिद्ध विजेता तैमूर का वंशज था। अपने पिता उमर शेख मिर्जा के अकस्मात् देहावसान के उपरांत १२ वर्ष की अल्पावस्था में ही वह सिंहासनारूढ़ हुआ और उसके जीवन के अगले ३६ वर्ष कठिनाइयों से ही संघर्ष करते बीते। परंतु विषम से विषम परिस्थिति में भी उसने कभी न तो धैर्य का ही त्याग किया और न आत्मबल का। वह वीर योद्धा ही न था बल्कि तेजस्वी कवि भी था। प्रकृति के इस अनुपम पुजारी ने अपनी भावनाओं को अपनी आत्मकथा तुजुके बाबरी में बहुत ही हृदयस्पर्शी शब्दों में अभिव्यक्त किया है।

सत्तारूढ़ होने के पश्चात् लगभग १० वर्ष तक वह स्वदेश में ही अपने भाग्य की परीक्षा करता रहा। महत्वाकांक्षा उसमें कूट कूटकर भरी थी। तैमूर उसके जीवन का आदर्श था जिसको कार्यान्वित करने के उद्देश्य से उसने दो बार समरकंद पर अधिकार किया। परंतु प्रतिकूल वातावरण के कारण वहाँ उसका अस्तित्व स्थायी रूप ग्रहण न कर सका। अंत में अपने रौद्र शत्रु शैबानी खाँ उजबेक द्वारा पराजित होकर उसे अपने देश को त्यागना पड़ा और अपनी सुरक्षा के लिए विजेता से सौदा करना पड़ा। अत: उसने अपनी बहन ख्वानजादा बेगम का विवाह अपने शत्रु के साथ कर दिया। बाबर ने इस अपमानजनक घटना का अपनी आत्मकथा में संकेत नहीं किया है।

समरकंद से वहिर्गमन के पश्चात् उसके जीवन का द्वितीय अध्याय प्रारंभ हुआ। उसके आगामी २० वर्ष काबुल प्रदेश में व्यतीत हुए। इस अवधि में संचित अनुभव एवं अनुकूल परिस्थितियों ने उसके अस्तित्व को दृढ़ता प्रदान की। अब वह एक घुमक्कड़ योद्धा न रहा। वह एक राज्य का स्वामी बन गया था। ईरान के शाह के संदेश से प्रोत्साहित होकर उसने सन् १५१० में समरकंद अधिकृत करने की अपनी इच्छा को अंतिम बार पूरा किया। परंतु पूर्व ही के समान अबकी बार भी उसकी सफलता अस्थायी ही रही। यद्यपि स्वदेशविजय की लालसा उसे आजीवन व्याकुल करती रही, तथापि इसका वास्तविक रूप स्वप्न के स्तर से आगे न बढ़ सका। विवश होकर उसने काबुल के निकटवर्ती स्थानों पर ही अपनी सत्ता प्रसारित करने में अपना हित देखा। उसने इसी बीच कई बार भारत की सीमा पर भी प्रयाण किया परंतु काबुल के राज्यकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना है बाबर का अरगूनों को हटाकर कांधार पर (सन् १५२२ में) अधिकार करना। इसके फलस्वरूप यद्यपि मुगल-ईरान के द्वंद की जड़ तो पड़ी, परंतु मध्य एशिया में बाबर की धाक जम गई।

काबुल की समस्याओं में व्यस्त रहते हुए भी बाबर निकटवर्ती राज्यों की राजनीतिक परिस्थितियों के प्रति सतर्क रहता था। साम्राज्य प्रसार उसकी जन्मजात अभिलाषा थी। काबुल जैसे लघु राज्य से उसकी तुष्टि असंभव थी। अत: सन् १५१९ में उसने दो बार भारत की सीमा तक प्रयाण किया। इसी वर्ष उसने अपने प्रतिनिधि मुल्ला मुर्शिद को पंजाब प्रांत की माँग लेकर लोदी सुलतान इब्राहीम के पास भेजा। परंतु इसको रास्ते में ही रोक लिया गया। सन् १५२० ई. में उसने तीसरी बार भारत की ओर प्रयाण किया और भेरा होता हुआ वह सियालकोट तक पहुँच गया। यद्यपि इस अवसर पर उसका लक्ष्य लाहौर था परंतु अरगूनों के उत्पात की सूचना पाकर वह अपनी योजना अधूरी छोड़कर काबुल लौट गया।

शीघ्र ही भारत में लोदी साम्राज्य की नींव डगमगाने लगी। उद्दंड और दंभी अमीर सुलतान की नियंत्रात्मक कार्रवाइयों से ऊब उठे। कुछ ने तो देश के अंदर ही उपद्रव आरंभ कर दिया और अन्य ने अपना पक्ष दृढ़ करने के उद्देश्य से बाहर से सहायता प्राप्त करने की योजना बनाई। इनमें से दो के नाम उल्लेखनीय हैं, सुलतान इब्राहीम का चचा आलम खाँ और पंजाब का राज्याध्यक्ष दौलत खाँ। दोनों ने बाबर को आमंत्रित किया। बाबर तो ऐसे अवसर की बाट ही जोह रहा था। अत: १५२४ ई. में उसने चौथीं बार भारत पर आक्रमण किया। खैबर के दर्रे से निकलकर वह झेलम और चिनाब को पार करता हुआ लाहौर के सन्निकट आ पहुँचा। यहाँ जब वह शाही सेना को पराजित कर चुका तब दौलत खाँ ने आकर उससे भेंट की। आपस में मतभेद हो जाने के कारण बाबर ने दौलत खाँ और उसके पुत्र गाजी खाँ को बंदी बना लिया, अत: उनकी जागीरों को दिलावर खाँ को देकर वह काबुल लौट गया।

बाबर को अब भारत की परिस्थिति का पूरा ज्ञान हो गया था, अत: पूरी तैयारी करके अब वह विजयश्री प्राप्ति के ध्येय से अंतिम बार आया। इस अवसर पर उसे मेवाड़ नरेश राणा संग्राम सिंह की ओर से भी निमंत्रण मिला था। सन् १५२५ में पानीपत के मैदान में घमासान युद्ध हुआ। अपने तोपखाने एवं बंदूकधारी सैनिकों की सहायता से उसने इब्राहीम लोदी की विशाल सेना को नष्ट भ्रष्ट कर दिया। इस अपूर्व विजय ने उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि की। अब वह एक विशाल राज्य का स्वामी बन गया। फिर भी उसे अभी अनेक विरोधियों का सामना करना था।

संग्राम सिंह की यह धारणा कि इब्राहीम लोदी को परास्त करके बाबर पुन: काबुल वापस चला जाएगा भ्रामक सिद्ध हुई। अत: अब राणा अत्यंत विक्षुब्ध हो उठा और मैदान में आ डटा। राजपूतों की वीरता और युद्ध-कौशल-गाथाओं में बाबर के सैनिकों को हतोत्साह कर दिया था मगर वह अपने संकल्प में अविचल रहा। सैनिकों को उत्तेजित करने के लिए उसने धर्म की दुहाई दी और स्वयं मदिरापान त्याग की शपथ ली। फरवरी, १५२७ ई. में कन्वाहा के मैदान में उसने अपनी सेना के व्यूह की रचना उसी प्रकार की जैसी पानीपत के युद्ध के समय की थी। अनेक राजपूत वीर मारे गए और संग्राम घायल होकर मैदान से चला गया। बाबर की विजय हुई। राजपूतों की प्रतिष्ठा की गहन क्षति हुई। ग्रीष्म ऋतु के आगमन के कारण विजयी मुगल सम्राट् मेवात अधिकृत करने के पश्चात् आगरा लौट आया।

सुअवसर पाते ही बाबर ने उन अफगान सरदारों से संघर्ष किय जो गंगा के किनारे कन्नौज के निकट उपद्रव की योजना बना रहे थे। सन् १५२८ में यह शत्रुदल भाग निकला। बंगाल नरेश की सहायता प्राप्त करके इन शत्रुओं ने पुन: सिर उठाया। सन् १५२९ में बाबर ने गंगा और घाघरा के संगम पर इनका मुकाबला किया एवं बंगाल अफगान संयुक्त सेना को पराजित किया।

अथक परिश्रम के फलस्वरूप मुगल सम्राट् का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। जब उसके ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँ को इसकी सूचना प्राप्त हुई तब वह बदखशाँ से चलकर तीव्र गति से आगरा पहुँचा। सम्राट् का स्वास्थ्य सुधरने लगा था और चिंता की कोई बात न रह गई थी। यह देखकर हुमायूं ने संभल की ओर प्रस्थान किया परंतु रास्ते में ही वह रोगग्रस्त हो गया। उसकी दशा संशययुक्त हो गई और उसको दिल्ली आगरा लाया गया। इस अवसर पर उसके पिता ने अद्भुत बलिदान देकर अपने जीवन की बाजी लगा दी। परंतु यदि किंवदंती पूर्णरूपेण भ्रमात्मक है कि हुमायूँ के स्वस्थ होते ही बाबर के जीवन का अंत हो गया और पुत्र के रोग को पिता ने ग्रहण कर लिया। उसका स्वास्थ्य तो पहले से ही गिर रहा था अत: २६ दिसंबर, १५३० को उसका देहावसान हो गया। भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने और राजनीति को एक नया मोड़ देने का उसको श्रेय प्राप्त है। १६वीं शताब्दी का वह अनुपम विजेता कहलाता है। उसका स्मारक काबुल में है।

बाबर ने नौ विवाह किए जिनसे उसके १८ संतानें उत्पन्न हुई। हुमायूँ की माँ माहम बेगम ही उसके अधिक प्रेम की पात्री थी।श्श् (बनारसी प्रसाद सक्सेना)