बाढ़ तथा बाढ़ नियंत्रण किसी नदी की सामान्य जल अवधि के बाहर जब पानी बहने लगता है तो कहते हैं नदी में बाढ़ आई। इस कथन का आशय स्पष्ट है कि सामान्य मात्रा से अधिक जल जब नदी या नाले में बहता है तब उससे नदी के तटों पर स्थित तथा आसपास की नीची भूमि जलमग्न हो जाती है, जिससे धन तथा जीवन दोनों की हानि होती है।

ज्यों ज्यों मनुष्य अपनी विस्तारक चेष्टाओं के अंतर्गत नदियों के सामान्य बहावक्षेत्र में हस्तक्षेप करता है, त्यों त्यों उसको बाढ़ निवारण हेतु यथानुकूल आयोजन करना आवश्यक हो जाता है। अत: इस विकासयुग में जब मानव की जनसंख्या दिन प्रतिदिन बढ़ रही है, बाढ़ तथा बाढ़ नियंत्रण का विषय प्राय: सभी देशों में मानव बुद्धि तथा सतर्कता को एक चुनौती देता दीखता है।

भारत नदियों का देश है। नदियों से जहाँ अनेक लाभ हैं वहाँ इनमें जब बाढ़ आ जाती है तब भयंकर विनाश भी होता है, और कई बार प्रलयकारी दृश्य उपस्थित हो जाते हैं। भारत में बाढ़ों द्वारा जो क्षति प्रति वर्ष होती है, उसका सन् १९५३ से १९६३ के आँकड़ों से निकाला गया अनुमानत: मूल्यांकन भिन्न राज्यों में इस प्रकार है :

राज्य

वार्षिक औसत हानि

(हजार रुपया)

१. आंध्र प्रदेश

४,७७७

२. असम

४६,२५२

३. बिहार

१,१९,४१८

४. महाराष्ट्र तथा गुजरात

८,९६४

५. जम्मू कश्मीर

७१७

६. केरल

९३६

७. मध्य प्रदेश

२५१

८. मद्रास

१,१५९

९. मैसूर

४३८

१०. उड़ीसा

४९,१०९

११. पंजाब

१,१२,७७९

१२. राजस्थान

६,१३५

१३. उत्तर प्रदेश

१,६२,६१०

१४. पश्चिमी बंगाल

७३,१०२

१५. देहली

२,७९७

१६. हिमाचल प्रदेश

३,३७९

१७. मनीपुर

३१९

१८. त्रिपुरा

९१५

बाढ़ निवारण की समस्या बड़ी ही जटिल है। यथार्थ में पूर्ण बाढ़ निवारण तो संभव नहीं, केवल बाढ़ों का नियंत्रण ही हो सकता है। बाढ़वाले क्षेत्रों में विविध प्रकार की समस्याएँ सामने आती हैं। कहीं तो नदियाँ अपने तटों को लाँघकर तटीय क्षेत्रों को जलमग्न कर देती हैं, जिससे संपत्ति की क्षति ही नहीं होती, वरन् उससे भी अधिक चिंताजनक बात, समाज के सामान्य जीवन में उथल पुथल, हो जाती है तथा कृषिक्षेत्रों में अधिक पानी भर जाने के कारण उत्पादन कम हो जाता है।

कहीं ऐसा होता है कि नदी में पानी बढ़ जाने के कारण निकटवर्ती क्षेत्रों में दूर-दूर तक पानी की निकासी रुक जाती है और वे क्षेत्र तब तक जलमग्न रहते हैं, जब तक नदी का जलस्तर नीचा नहीं हो जाता। यदि साथ ही वर्षा भी भारी हुई, तो उन क्षेत्रों में पानी के रुकने के कारण बड़ी हानी हो जाती है। कई स्थानों पर बाढ़ के समय नदियाँ अपने किनारों का कटाव करती हैं, जिसके कारण अच्छी उपजाऊ भूमि बेकार हो जाती है, अथवा कुछ आबादी के क्षेत्र भी कटाव के कारण नष्ट हो जाते हैं।

समुद्रतटीय क्षेत्रों में बाढ़ का प्रकोप बहुधा समद्र के ज्वारभाटे के वेग से, अथवा तूफान आदि से, होता है। कुछ क्षेत्रों में नदियों की धारा में रेत जम जाने से, अथवा अन्य कारणों से, जलमार्ग संकुचित हो जाने पर बाढ़ का प्रकोप बढ़ जाता है और समीपस्थ क्षेत्रों में उसके कारण बड़ी क्षति होती है।

बाढ़ों की सतस्या के समाधान में बाढ़ से संबंधित आँकड़ों का अध्ययन तो अनिवार्य है ही, साथ ही आवश्यकता इस बात की भी है कि बाढ़ से संबंधित निर्माण का कार्य टीक से किया जाए, अथवा उसकी देखभाल उचित रूप से हो। थोड़ी ढीलढाल से भी काम बिगड़ सकता है, जिसके परिणाम जीवनघातक ही नहीं वरन आर्थिक दृष्टि से भी बहुत ही असह्य हो सकते हैं। अत: यह आवश्यक है कि बाढ़ संबंधी योजनाएँ बनाने का तथा उनसे संबंधित कार्यों का संपादन बड़ी सतर्कता और सावधानी से हो।

शताब्दियों से होती आई विनाशकारी लीलाओं का निर्मूलन थोड़े ही समय में संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त बाढ़ नियंत्रण के लिए दिए गए सुझाव भी सदैव पूर्ण रूप से सार्थक सिद्ध नहीं हो पाते। प्रकृति साधारणतया ऐसी असंख्य परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देती है जिनके विषय में पहले से कुछ कहा नहीं जा सकता। अतएव बाढ़ नियंत्रण योजनाआं से जो कुछ भी हम प्राप्त कर सकते हैं, वह है केवल हानियों और क्षतियों में कमी। बाढ़प्रदत्त समस्याओं का सर्वथा निर्मूलन नहीं हो सकता।

चार क्षेत्र - भारत की बाढ़ संबंधी समस्याओं के अध्ययन हेतु देश को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है :

(१) उत्तर-पश्चिम की नदियों का क्षेत्र, (२) गंगा नदी का क्षेत्र, (३) ब्रह्मपुत्र नदी का क्षेत्र और (४) दक्षिणी पठार का क्षेत्र।

इन क्षेत्रों की प्राकृतिक बनावट एक दूसरे से भिन्न है। उत्तर पश्चिम क्षेत्र की नदियाँ हिमालय से, अथवा अपने अंतरंग क्षेत्र से, निकलकर अरब सागर की ओर बहती हैं। इन क्षेत्रों में वर्षा अधिक नहीं होती, फिर भी यदा कदा बहुत से क्षेत्र बाढ़ से ग्रस्त हो जाते हैं। इसका एक विशेष कारण यह है कि इन क्षेत्रों में कम वर्षा होने के कारण नदियों में जल निकासी का मार्ग संकुचित हो जाता है तथा भूतल में ढाल भी कम होती है। अतएव एकाएक पान पड़ने पर कभी कभी भारी बाढ़ आ जाती है।

गंगा नदी का क्षेत्र बहुत विस्तृत है और बहुत सी सहायक नदियाँ इसके साथ मिलकर बहुत बड़े कृषि योग्य क्षेत्र को जलप्लावित करती हैं। कुछ नदियाँ हिमालय से निकलती हैं। गंगा नदी के क्षेत्र में बाढ़ों का प्रकोप विशेषकर हिमालय से लगी तराई और उससे लगे दक्षिण के उपजाऊ मैदानों में बहुधा होता रहता है।

तीसरा क्षेत्र ब्रह्मपुत्र नदी का है। इस क्षेत्र में प्राय: हर वर्ष नदी के तटों को पार करके पानी बहुत फैल जाता है। यहाँ की कृषि का ढंग तथा साधारण जीवनयापन इन परिस्थितियों के अनुसार ही ढला है। दक्षिणी क्षेत्र में नदियाँ विशेषकर वर्षा के जल से ही बाढ़ग्रस्त होती हैं। इस क्षेत्र में यदा कदा बाढ़ आती रहती है और 'डेल्टा' में पानी का फैलाव बहुधा होता ही रहता है। यहाँ की कृषिप्रणाली भी इसके ऊपर ही आधारित है।

आँकड़ों का संकलन - बाढ़ नियंत्रण योजनाएँ आर्थिक तथा इंजीनियरी दृष्टि से तभी सफल हो सकती हैं जब बाढ़पीड़ित क्षेत्रों की नदियों की जलविज्ञान तथा स्थलाकृति विज्ञान संबंधी जाँच (hydrology and topography) का गहन अध्ययन किया जाए। इस विषय में सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है कि नदी के विशेष प्रवेश्य स्थानों पर बाढ़ के बहाव का सही अनुमान लगाया जाए। इसके अतिरिक्त स्थल से संबंधित ऐसे आँकड़ों का भी एकत्र करना आवश्यक है जिनका उपयोग विस्तृत क्षेत्रों में बाढ़ के बहाव का अनुमान लगाने में किया जा सके।

भारत के अधिकतर क्षेत्रों के ऐसे आँकड़े प्राप्य नहीं हैं। इस ओर कुछ प्रगति हुई है, लेकिन इन आँकड़ों को इकट्ठा करने में बरसों लगेंगे, तभी आशंकित बाढ़ों के विषय में निश्चित रूप से उनकी मात्रा और समयांतर का संकेत मिल सकेगा। ऐसे उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी केंद्रीय व्यवस्था पर ही उत्तरदायित्व होना चाहिए, जो इन आँकड़ों को आधुनिक प्रणाली से संकलित कर सके। संकलन के बाद इन आँकड़ों का एकीकरण तथा विश्लेषण भी समुचित रूप से होना आवश्यक है।

जलविज्ञान संबंधी अध्ययन में भिन्न भिन्न प्रदेशों और समीपवर्ती देशों की सहायता अथवा सहयोग की आवश्यकता होती है, विशेषकर उन क्षेत्रों की जिनमें होकर हमारी नदियाँ बहती हैं। इसी कारण अपने देश में राज्यों के सहयोग से नदीनिस्सरण आंकड़ों को इकट्ठा करने का कार्य बड़ा महत्वपूर्ण समझा गया है। केवल बाढ़ नियंत्रण की दृष्टि से ही नहीं, वरन् समस्त प्राप्त जल साधनों के पूर्णरूपेण उपयोग के विचार से भी यह कार्य अनिवार्य है।

उदाहरणार्थ, भूटान के समीपवर्ती कतिपय क्षेत्रों में हिमालय की कुछ नदियों के लिए निस्सरणद्योतक यंत्र तथा बालू निरीक्षण केंद्र बना दिए गए हैं। इस वायुजलमापक यंत्रकेंद्र के संस्थापन का कार्य भूटान सरकार के सहयोग से हुआ है। वहाँ पर बेतार के तार के केंद्र हैं, जिनसे असम और पश्चिमी बंगाल में बाढ़ नियंत्रण अधिकारियों को सूचना दे दी जाती है। इस प्रकार की सूचना का प्रबंध देश के अन्य बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में भी किया जा रहा है। ऐसी सूचनाओं द्वारा बाढ़नियंत्रण, अथवा बाढ़-निवारण, तो नहीं हो सकेगा, किंतु बाढ़ों द्वारा होनेवाली क्षति में कमी अवश्य की जा सकेगी।

इस संबंध में मैदानों, खेतों, जंगलों और बेकार भूमि की भिन्न-भिन्न सामाजिक, आर्थिक स्थितियों और विकास कार्यों पर विचार करना भी आवश्यक है। जैसे-जैसे भूमि का विकास होता जाता है, वैसे वैसे क्षेत्रों की शकल बदल जाती है। जो क्षेत्र आज बाढ़ों के रोकने में सहायक होते हैं वे ही कुछ समय बाद बाढ़ के बढ़ाव में योग देते हैं।

इसलिए यह स्पष्ट है कि प्रगतिशील देश में बाढ़ों का अनुमान एक भिन्न दृष्टिकोण से ही लगाया जा सकता है। हमें अपनी खोजबीन द्वारा यह जानना होगा कि आगामी बरसों में क्षेत्रों के विकसित हो जाने के पश्चात् वर्षा से गिरे पानी के बहाव में किस मात्रा में बढ़ोतरी होगी। इसको दृष्टि में रखते हुए ही हम बाढ़ नियंत्रण के हेतु किए जानेवाले कार्यों की उचित योजना बना सकते हैं।

क्षेत्रीय आयोग और नियंत्रण बोर्ड - राजकीय और प्रशासकीय सीमाएँ भी यदाकदा नदी संबंधी योजनाओं में बाधा उपस्थित करती हैं। ब्रह्मपुत्र, गंगा, उत्तर-पश्चिमी नदी, तथा मध्य भारत में क्षेत्रीय, आयोग बनाए गए हैं। ये क्षेत्रीय आयोग भिन्न भिन्न बाढ़ नियंत्रण बोर्डों से परामर्श करके बाढ़ संबंधी सारी समस्याओं का समाधान करते हैं।

बहुधा ऐसा होता है कि बाढ़ संबंधी समस्याएँ बाढ़ के समय, या उसके तत्काल बाद, ही उग्र रूपसे सामने आती हैं। जब बाढ़ की बला टल जाती है तब अन्य बड़ी योजनाओं के अंतर्गत बाढ़ की समस्याएँ भी समा जाती हैं और उनकी यथोचित ध्यान नहीं दिया जाता। अतएव जहाँ बाढ़ों द्वारा जान और माल की क्षति प्रति वर्ष होती रहती है वहाँ की समस्याओं का समाधान क्षेत्रीय आयोग तथा बाढ़ नियंत्रण बोर्ड़ों की देखरेख में ही होना चाहिए।

भूमिसंरक्षण - बहुधा यह कहा जाता है कि भूमिसंरक्षण यदि उचित रूप से किया जाए, तो बाढ़ों की मात्रा और प्रवेग में कमी हो सकती है। ऐसा कहना साधारण बाढ़ों के सबंध में उपयुक्त हो सकता है, किंतु जहाँ बड़ी बाढ़ें आ जाती हैं वहाँ छोटी मोटी भूमिसंरक्षण योजनाएँ काम नहीं कर सकतीं। फिर भी भूमिसंरक्षण एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य है और हमारे देश में यह किया जाना आवश्यक है। इस दिशा में ऐसे नियम बनने चाहिए जिनसे भूमिसंरक्षण योजनाओं का सहयोग बाढ़ निवारण योजनाओं को यथानुकूल मिल सके।

यद्यपि बाढ़ संबंधी योजनाएँ बहुधा अनुभवी अधिकारियों के समक्ष रखी जाती हैं और काफी सोचने विचारने के बाद उनका निर्माण किया जाता है, फिर भी नदी घाटियों में बहुत सी ऐसी अज्ञात बातें सामने आती हैं, जिनका समाधान गणित और अनुभव से नहीं हो पाता। अतएव यह आवश्यक होता है कि बाढ़ संबंधी समस्याएँ नदी घाटियों के छोटे या बड़े माडल बनाकर, अध्ययन हेतु गवेषण केंद्रों के सुपुर्द की जाएँ।

पश्चिमी देशों में तथा हमारे देश में भी मॉडल के अध्ययन करने का चलन है। ऐसा करने से कभी कभी लाखों रुपए की बचत हो जाती है। साथ ही योजना संबंधी कार्य भी सुचारु रूप से संपन्न हो जाते हैं। हमारे देश में ऐसे गवेषणाकेंद्र प्राय: सभी प्रांतों में है। एक केंद्रीय गवेषणाकेंद्र पूना के समीप खड़कवासला में है। इस केंद्र पर ब्रह्मपुत्र नदी का बड़ा मॉडल बनाया गया था। उसपर अध्ययन किए जाने के पश्चात ही उस घाटी में अनेक शहरों के बचाव के लिए बाढ़ से संबंधित कार्य किए गए हैं।

जनता का सहयोग - अन्य सार्वजनिक कार्यों की अपेक्षा बाढ़ संबंधी योजनाओं में जनता के सहयोग की आवश्यकता अधिक होती है। यदि थोड़ा थोड़ा करके भी प्रत्येक व्यक्ति बाढ़ निवारण हेतु अपने खेत, खलिहान, गाँव तथा कस्बों में काम करे तो इस काम की मात्रा बहुत हो जाती है; किंतु ऐसा होता नहीं है।

इसके विपरीत बहुत सी ऐसी परिस्थितियाँ होती हैं, जहाँ सार्वजनिक कार्य बाढ़ों को बढ़ावा देते हैं। ऐसी स्थितियों में बाढ़ निवारण योजनाओं का समन्वय अन्य योजनाओं के साथ इस रूप से होना चाहिए कि उनकी पूर्ति बाढ़ों में वृद्धि न करे और यदि वृद्धि हो भी तो उससे मुक्ति का मार्ग साथ साथ ही निकल सके। बाढ़ संबंधित योजनाएँ सिंचाई, यातायात, रेलवे तथा जलप्रदाय आदि जितने भी कार्य हैं, उन सबसे कहीं न कहीं संबंधित होती हैं।

यह सब होते हुए भी हमें इस बात से सतर्क रहना है कि नियंत्रण तथा निवारण के कार्य में प्रकृति के साथ हमारा सदा द्वंद्व रहेगा। प्रकृति से मोर्चा लेना साधारण काम नहीं है। अतएव यह स्पष्ट है कि बाढ़ निवारण तथा नियंत्रण के हेतु व्यय करने में हमें संकोच नहीं करना चाहिए। वैसे तो जल का उचित मात्रा में संवरण तथा उसका सदुपयोग हमारे देश के विकास के लिए अति आवश्यक है। ऐसे संवरण द्वारा भूमिसंरक्षण भी हो जाता है।

बाढ़ संबंधी योजनाओं के अंतर्गत सिंचाई तथा पनबिजली योजनाएँ भी आती हैं। इसी कारण बाढ़ निवारण तथा नियंत्रण योजनाएँ बहुधा बहुमुखी होती है और उनमें धन भी बड़ी मात्रा में व्यय होता है। इसके अतिरिक्त इन योजनाओं के संपन्न होने में समय भी लगता है और जल्दबाजी करने में तो कभी कभी लाभ के बजाय हानि हो जाती है।

बाढ़ तथा बाढ़ नियंत्रण का विषय कृषि के विकास, जलसाधनों के उपयोग, यातायात, स्वास्थ्य तथा बहुत से अन्य सामाजिक विषयों से उलझा रहता है। उदाहरणार्थ, बाढ़ निकल जाने के बाद बहुधा बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में बहुत-सी बीमारियाँ फैलने लगती हैं। प्रशासन के ऊपर उस समय भारी उत्तरदायित्व यह आ पड़ता है कि बीमारियों की रोकथाम यथासमय हो जाए।

इसके अतिरिक्त बाढ़ों द्वारा बहुधा सड़क, रेल, तार आदि, यातायात के साधनों में भी रुकावट पड़ जाती है। उनके पुन: संचालन का कार्य भी प्रशासन को करना पड़ता है। कृषि योग्य भूमि के जलमग्न रहने से कृषि की तो हानि होती ही है, प्रशासन को भी इस दिशा में बड़ा काम करना पड़ता है, जिससे कृषकों की कठिनाइयाँ कम हो सकें।

बाढ़ निवारण हेतु बहुत से क्षेत्रों में अतिरिक्त नालों का तथा कहीं कहीं बाँधों का प्रबंध भी किया जाता है, किंतु इन दोनों साधनों के कारण प्रकृति की स्थायी रूपरेखा में परिवर्तन होता है और इसके परिणामों को दूर करने के लिए समुचित साधन जुटाने पड़ते हैं। अमरीका जैसे देश में भी बाढ़ तथा बाढ़ नियंत्रण की समस्या का स्थायी हल अभी तक नहीं निकल पाया है।

यह समस्या सदा से जटिल रही है और जटिल रहेगी। संभवतया मनुष्य को बाढ़ों के साथ साथ रहना सीखना पड़ेगा, जैसा युग युगांतरों से मानव करता आया है। वास्तव में तो संसार में बहुत सी उर्वर भूमि बाढ़ों की ही देन है। बाढ़ों से भूमि की उर्वरता का संरक्षण भी होता है। अत:, बाढ़ तथा बाढ़ नियंत्रण की समस्या का समाधान इस दृष्टि से करना होता है कि लाभ और हानि दोनों को मिलाकर लाभ शेष रह जाए। इसके अतिरिक्त और कोई उपचार मानव के लिए कल्याणकारी सिद्ध नहीं हो सकता। (बालेश्वर नाथ)