बाज़बहादुर शेरशाह सूर द्वारा नियुक्त मालवा के सूबेदार शुजाअत खाँ अथवा सजावल खाँ का ज्येष्ठ पुत्र। उसका असली नाम बयाज़ीद था। सन् १५५५ ई. में अपने पिता की मृत्यु होने पर वह 'बाज़बहादुर' नाम से मालवा की राजगद्दी पर बैठा और मालवा प्रदेश के सभी भागों पर अधिकार कर तथा स्वयं को मालवा का सुल्तान घोषित कर उसने अपने नाम से खुतबा भी पढ़वाया। तब गढ़ा प्रदेश को भी जीतकर अपन राज्य में मिलाने के उद्देश्य से उसने गढ़ा पर चढ़ाई की, परंतु वहाँ की रानी दुर्गावती से उसे परास्त होना पड़ा। इस प्रकार पराजित होकर जब बाज़बहादुर मालवा लौटा तो उसने अपना सारा ध्यान मदिरापान और गायन वादन में ही लगा दिया। तब मालवा में गायन बादन कलाओं का बहुत प्रचार था और उनकी विशेष उन्नति हो रही थी। बाज़बहादुर स्वयं भी इन कलाओं में पूर्ण पारंगत था। अत: अनेकानेक गायक नर्तकियों को एकत्र कर उन्हें वह उनकी शिक्षा देने लगा। इसी समय रूपमती के प्रति बाजबहादुर का अत्यंत प्रेम हो गया। रूपमती स्वयं भी बहुत ही सुंदर और गायन वादन कला में पूर्णतया प्रवीण थी। एक दूसरे के प्रेम में लीन दोनों हिंदी प्रेमकाव्य की रचना करते और उन्हें गाते थे। उनके कई गीत तथा दोनों के सौंदर्य और प्रेम की अनेक कहानियाँ अब तक मालवा निवासियों में प्रचलित हैं।
उधर दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ़ अकबर ने मालवा को जीतने के लिए सन् १५६१ई. में अहमद खाँ कोका के सेनापतित्त्व में मुग़्ला सेना भेजी। बाज़बहादुर तब सारंगपुर में ही था और मुगल सेना के बहुत पास पहुँच जाने पर ही उसे मुग़्ला चढ़ाई का पता लगा। बाज़बहादुर ने डटकर मुग़्ला सेना का सामना किया। मार्च २९, १५६१ ई. को लड़ाई हुई, जिसमें मुगल सेना विजयी हुई। बाज़बहादुर खानदेश भाग गया और मालवा पर मुग़्लाों का अधिकार हो गया। अहमद खाँ रूपमती को अपनाने को तत्पर हुआ, परंतु जब रूपमती को यह बात मालूम हुई तब प्रेम के कारण रूपमती ने विष खाकर बाज़बहादुर के नाम पर जान दे दी।
बाज़बहादुर अब खानदेश और मालवा के बीच घूमने लगा। उधर अकबर ने पीर मुहम्मद खाँ शेरवानी को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया। बाज़बहादुर ने मालवा पर आक्रमण किया परंतु एक बार वह विफल रहा। तब उसने खानदेश के सुलतान मीरान मुबारक शाह की सहायता प्राप्त कर बुरहानपुर लूटकर वापस लौटते हुए पीर मुहम्मद पर आक्रमण किया। नर्मदा के दक्षिणी तट पर हुए इस युद्ध में पराजित होकर पीर मुहम्मद को भागना पड़ा। राह में घोड़े पर नर्मदा नदी पार करते समय पीर मुहम्मद गिरकर नदी में डूब गया। अब अन्य सारे मुगल सेनानायक अपनी अपनी सेनाओं के साथ वापस आगरा लौट गए और सन् १५६२ ई. में मालवा पर पुन: बाज़बहादुर का अधिकार हो गया।
परंतु कुछ ही समय बाद अकबर ने अब्दुल्ला खाँ उजबक के नेतृत्व में मुग़्ला सेना मालवा भेजी। तब बाज़बहादुर स्वयं ही मालवा छोड़कर दक्षिण की ओर भाग गया। पहाड़ी घाटियों में यत्रतत्र भटकते रहने के बाद वह कुछ समय तक बगलाना के जमींदार भेरजी के पास रहा। वहाँ से वह चंगेज खाँ और शेर खाँ गुजराती की शरण में गुजरात गया। उसने कुछ समय दक्षिण में निज़ाम-उल्-मुल्क के पास भी बिताया। तदनंतर वह मेवाड़ के राणा उदयसिंह की शरण में चला गया।
अकबर चाहता था कि बाज़बहादुर उनके दरबार में चला आए, अत: उसे अपने पास लिवा लानें के लिए अकबर ने हसन खाँ खजानची को दो बार बाज़बहादुर के पास भेजा और अंत में सन् १५७० ई. में बाज़बहादुर अकबर के शाही दरबार में जा पहुँचा। प्रारंभ में उसे एक हज़ारी जात व सवार का मनसब मिला, जो आगे बढ़ते बढ़ते दो हज़ारी जात और सवार का हो गया था। बाज़बहादुर की गणना अकबर के मनसबदारों तथा गायकों दोनों में ही होती थी। बाज़बहादुर की मृत्यु का ठीक सन्-संवत् ज्ञात नहीं, परंतु सन् १५९२ ई. से पहिले अवश्य ही उसकी मृत्यु हो गई थी। बाज़बहादुर और रूपमती के मकबरे के अवशेष सारंगपुर के तालाब के बीच में आज भी विद्यमान है।
मांडू में बाजबहादुर ने रेवाकुंड और रूपमती का महल बनवाए थे तथा पुराने राजप्रासाद को सुधारकर बढ़ाया और सुशोभित किया था, जो तब से बाज़बहादुर का महल कहलाता है।
सं.ग्रं. - ख्वाजा निजामुद्दीन अहमद कृत तबकात इ-अकबरी, भाग २-३; बदायूनी कृत मुंतखब-उत्-तवारीख, भाग २; अबुल फज़ल कृत अकबरनामा; अबुल फज़ल कृत आईन-इ-अकबरी, अंग्रेजी अनुवाद, संशोधित संस्करण, भाग १; तारीख-इ-फरिश्ता; मासिर-उल्-उमरा; याज़दानी कृत मांडू। (रघुबीर सिंह)