बलविज्ञान पिंडों की गति, गत्युत्पादक बलों और विरामावस्थावाले पिंड पर लगे हुए बलों के संतुलन का विवरण देता है। इसका अंग्रेजी समानार्थी शब्द मिकैनिक्स (Mechanics) मशीन शब्द से संबद्ध है, जिसका अर्थ यंत्र है। इसलिए कुछ लेखक बलविज्ञान को यांत्रिकी भी कह देते हैं, किंतु समान्यतया यांत्रिकी को अनुप्रयुक्त बलविज्ञान कहा जाता है और इसमें प्रत्यास्थता, द्रवयांत्रिकी, वायुगतिविज्ञान, क्षेपणविज्ञान, यंत्रकला, पदार्थ सामर्थ्य आदि का समावेश होता है।
सैद्धांतिक बलविज्ञान के दो संबद्ध अंग है : गतिविज्ञान और स्थितिविज्ञान। गतिविज्ञान का अँग्रेजी पर्यायवाची 'डाइनैमिक्स' है। ग्रीक भाषा में डाइनैमिक्स का अर्थ शक्ति है; इस कारण गतिविज्ञान में पिंडों की उस गति का विवेचन होता है जो उन पर लगे हुए बलों के कारण होती है, और इस रूप में इसे बलगतिविज्ञान (Kinetics) कहते हैं। गति के परिमाण और विवरणवाले विषय को शुद्ध गतिविज्ञान (Kinematics) कहते हैं। स्थितिविज्ञान में विरामावस्थावाले पिंडों पर लगे हुए संतुलित बलों का विवेचन होता है। यह विवेचन अब गतिविज्ञान के नियमों के आधार पर किया जाता है, यद्यपि ऐसा करना अनिवार्य नहीं है।
गतिविज्ञान के दो आधार हो सकते हैं: (१) प्रयोगात्मक तथा (२) स्वयंसिद्ध (axiomatic)। यूक्लिडीय रेखागणित में स्वयंतथ्यों की भाँति गतिविज्ञान में 'गति के नियम' हैं (देखें, गति के नियम)। ऐसा माना जाता है कि ये नियम प्रयोग द्वारा सिद्ध किए जा सकते हैं। वैसे तो किसी भी सैद्धांतिक 'नियम' के यथार्थ सत्यापन में क्रियात्मक बाधाओं के कारण कठिनाइयाँ होती हैं, किंतु गतिविज्ञान के नियमों का सत्यापन तो 'चक्रक युक्तिवाद' के समान है, क्योंकि यदि उदाहरणत: इस नियम का कि 'किसी बल के न लगे रहने पर पिंड ऋजु रेखा में समान वेग से चलता रहता है' सत्यापन किया जाए, तो ऐसे पिंड का निर्धारण करना ही जिसपर कोई बल न लगा हो, प्राय: असंभव है। ऐटवुड यंत्र में चिकनी घिरनी पर से जाती हुई भारहीन डोर के सिरों पर दो समान भार के पिंड बँधे रहते हैं। यदि एक पिंड को डोर की दिशा में चला दिया जाता है, तो दूसरा पिंड समान वेग से डोर की दिशा में चलता दिखाई देता है। वास्तव में वेग का थोड़ा मंदन अवश्य होता है। यदि मंदन का कारण घर्षण मान भी लें, तो भी यह प्रयोग नियम का सत्यापन नहीं करता, क्योंकि पिंड नितांत रूप से बलमुक्त नहीं है; दो बल तो उसपर लगे ही है और गति के नियमों का उपयोग कर के ही इन बलों को 'संतुलित' माना जाता है।
सत्यापन की कठिनाई से बचने के लिए गति के नियमों को स्वयंसिद्ध माना जाता है, जिन्हें न तो सिद्ध करना आवश्यक है, न ऐसा करना संभव ही है। इन सब नियमों के आधार पर जो परिणाम मिलते हैं, उनकी हम वास्तविक पिंडों की गति से तुलना कर सकते हैं। यदि इस प्रकार सत्यापन नहीं होता, तो सभी नियम इकट्ठा त्याज्य होंगे, नियमों की अलग अलग परीक्षा नहीं की जा सकती। इस कसौटी पर न्यूटन के नियम बड़े अंश तक सत्य है। इनकी महत्त यह भी है कि विश्व में पिंडों की गति का वर्णन (न कि व्याख्या) ये अत्यंत ही सरल रूप में करते हैं। इनसे पूर्व कोपरनिकस ने सृष्टी के सापेक्ष ग्रहों की गति का वर्णन टॉलिमी के पृथ्वी सापेक्ष वर्णन तुलना में निश्चित रूप से अधिक सरल कर दिया था।
शुद्ध गतिविज्ञान
चाल - मोटर कार, रेलगाड़ी
आदि की चाल की संकल्पना से हम दैनिक जीवन में परिचित हैं।
समय के सापेक्ष दूरी बदलने की दर को चाल कहते हैं। जब कहा
जाता है कि गाड़ी की चाल ३० मील प्रति घंटा है, तब इसका अर्थ
यह है कि गाड़ी इस तेजी से चल रही है कि यदि इसी प्रकार
चलती रही तो वह १ घंटे में ३० मील, १ मिनट में श्मील और
१ सेकंड में ४४ फुट की दूरी तय करेगी। यदि चाल अचर नहीं है,
तो हम केवल यह कह सकते कि गाड़ी १ घंटे में स्थूल रूप से
३० मील और १ सेकंड में संनिकट ४४ फुट चलेगी। इस प्रकार जितना
ही लघु समय का अंतराल (घंटे) होगा उतना ही संनिकट मान
इस अंतराल में तय की हुई गति (द मील) का मिलेगा। इस
प्रकार यदि किसी क्षण चाल च मील प्रति घंटा है, तो सूत्र
दउच स, अर्थात् चउद/स
उतना ही संनिकटत: सत्य होगा जितना छोटा स है। अवकल गणित की भाषा में
चउता द/ता स (१)
अर्थात् चाल च तय की हुई दूरी द का स के सापेक्ष अवकलज है।
दूरी समय लेखाचित्र - प्राय: सभी मोटरगाड़ियों और रेलगाडियों में एक उपकरणिका ऐसी लगी रहती है। जिसमें चली हुई दूरी कि भी क्षण पढ़ी जा सकती है। यदि दूरी के साथ समय भी लिया जाए, तो लेखाचित्रीय निरूपण के सिद्धांतों के अनुसार ही ऐसे बिंदु अंकित कर सकते हैं जो स और द के संगत मानो प्रकट करते हैं। यदि ऐसे बहुत से बिंदु अंकित किए जाएँ और उन्हें एक सतत वक्र से मिला दिया जाए, तो यह वक्र पूरे प्रेक्षणकाल लिए स और द का संबंध निरूपित करता है। ऐसे वक्र को समय-दूरी, अर्थात् स-व, लेखाचित्र कहते हैं।
चित्र १.
यदि वक्र पर ब कोई बिंदु है, और बल स अक्ष पर लंब है, तो दूरी अ ल से निरूपित समय पर गाड़ी ल ब से निरूपित समय पर गाड़ी ल ब से निरूपित दूरी पर होगी। इसी प्रकार वक्र पर एक अन्य बिंदु म से स अक्ष पर म ख है तो समय ल ख में गाड़ी की औसत चाल
अर्थात् चाल रेखा बम की प्रवणता से मापी जाती है।
यदि चाल अचर है, तो वक्र के प्रत्येक खंड की प्रवणता अचर होगी इसलिए वक्र ऋजुरेखीय होगा। यदि चाल चर है, तो म बिंदु के जितने अधिक समीप होगा उतना ही अधिक संनिकट चाल का मान प्रवणता से मिलेगा। सीमावस्था में बम बिंदु ब पर वक्र का स्पर्शी होगा। इस प्रकार चाल की माप स-द लेखाचित्र की प्रवणता से प्राप्त होती है। यदि स के फलन रूप में द के ज्ञात न होने के कारण सूत्र (१) का उपयोग न किया जा सकता हो, तो लेखाचित्रों विधियों से चाल का अनुमान लगाया जा सकता है।
सूत्र (१) का अर्थ है कि दउ
च तास
अर्थात् दूरी द चाल च का स के सापेक्ष समाकलन कर, दूरी द प्राप्त की जा सकती है।
यदि च (स का) ऐसा फलन न हो जिसका समाकलन ज्ञात फलनों के पदों में संभव हो, तो लेखाचित्रीय विधि से संनिकट समाकलन किया जा सकता है (देखें समाकलन)। वस्तुत: स-द लेखाचित्र में वक्र के 'नीचे' का क्षेत्रफल, समुचित माप संबंध के अनुसार, दूरी द का द्योतक है।
त्वरण - जब चाल बदलती है तब समय के सापेक्ष उसकी वृद्धि की दर को त्वरण कहते हैं। उदाहरणत:, यदि ५ सेकंड के कालांतर में गाड़ी की चाल ३० फुट प्रति सेकंड से बढ़कर ४० फुट प्रति सेकंड हो जाती है, तो इस काल में चाल में वृद्धि १० फुट प्रति सेकंड है और औसत चालवृद्धि की दर, अर्थात् त्वरण १०श्र्५, अर्थात् २ फुट प्रति सेकंड है। यदि कालांतर स में चाल में वृद्धि च होती है, तो औसत त्वरणउच/स। ज्यों ज्यों स लघु होता जाता है, यह भिन्न त्वरण का उत्तरोत्तर संनिकटतर मान देता है। अवकलन गणित की भाषा में
त्वरण तउता च/ता सउता२ द/ता स२।
और चउ त ता स।
इस प्रकार च-स के लेखाचित्र में समुचित माप संबंध के अनुसार किसी बिंदु पर त्वरण उस बिंदु पर स्पर्शी की प्रवणता से निरूपित होता है और किसी कालांतर में चाल में वृद्धि उस लेखाचित्र के नीचेवाले क्षेत्रफल से।
वेग - चाल और त्वरण की विवेचना में हमने गाड़ी के पथ पर ध्यान नहीं दिया है। समय स में जो दूरी द गाड़ी ने तय की वह पथ के किसी स्थिर बिंदु से नापी गई दूरी है। यदि पथ कोई वक्र बंद है, तो जब गाड़ी प्रस्थान स्थिति के समीप आ जाएगी तब उसकी दूरी वही मानी जाएगी जो उसने तय की है। इस प्रकार चाल और त्वरण की परिभाषाओं में पथ के निर्दिष्ट होने के कारण दिशा पर ध्यान नहीं दिया गया। किंतु यदि पथ अंकित न हो, जैसे समुद्र पर जहाज का पथ, तो निर्देशांक ज्यामिति की भाँति किसी क्षण पर जहाज की स्थिति बताने के लिए दो निर्देशाक्ष चुनने होंगे। मान लीजिए ये किसी स्थिर बिंदु अ से उत्तर और पूर्व दिशा में खींची गई रेखाएँ अ उ और अप हैं। यदि पथ वक्र मथ है, ब इस पर कोई बिंदु है, ब ल अक्ष अ प पर लंब है और ब की स्थिति (य, र) है जहाँ यउअल और रउलब (देखें चित्र २.)
चित्र २.
तो पूर्व दिशा में बिंदु का वेग व१उय की वृद्धि की दर और उत्तर दिशा में
बिंदु का वेग व२उर के वृद्धि की दर।
(१) के अनुसार व१उ
, व२उ
. . . . . . . . . . . . . (२)
ब पर (जहाज की) गति की वास्तविक दिशा स्पर्शी बठ के अनुदिश है और ब पर जहाज की चाल को दिशा बठ में जहाज का वेग कहते हें। वस्तुत: वेग चाल के प्रकार की एक राशि है, किंतु इसमें दिशा भी बताई जाती है। समीकरण (२) में व१ को पूरव दिशा का वेग और व२ को उत्तर दिशा का वेग कहा जाता है।
वेगों का संघटन और विघटन - बिंदु ब पर जहाज का वेग दो वेगों व१ और व२ के संयोजन से बना है और यदि व१ तथा व२ ज्ञात हैं, तो वास्तविक वेग की दिशा तथा माप दोनों निर्धारित हो जाती हैं। अभीष्ट संबंध ज्ञात करने के लिए मान लें कि जहाज ब से आगे उसी चर वेग से चलता है जो उसका ब पर था, तो जहाज का पथ ऋजुरेखीय होगा और समय स में वह बिंदु ठ पर पहुँचेगा, जहाँ
ब ठउस व
पूर्व दिशा में वेग व१ से समय स में जहाज दूरी बटउसव१ तय करता है; इसी प्रकार उत्तर दिशा में दूरी ट ठउस व२। इसलिए
उ
कोज्या ण;
उ
ज्या ण,
अर्थात् व१उव कोज्या ण, व२उव ज्या ण . . . . . . . . . . . . . (३)
चित्र ३.
समांतर चतुर्भुज नियम - व१ तथा व२ वेग व के वियोजित अंश कहलाते हैं; व१ पूरब दिशा का और व२ उत्तर दिशा का। वेग व को वेगों व१ और व२ का परिणामी कहते हैं। समुचित माप संबंध पर व१ और व२ को आयत की भुजाओं से निरूपित करने पर परिणामी वेग व आयत के विकर्ण से निरूपित होता है (देखें चित्र ३.) यदि वेग व१, और व२ लंब दिशाओं में न हों, तो उनका परिणामी दिशा तथा परिमाण में उस समांतर चतुर्भुंज के विकर्ण से निरूपित होता है जिसकी भुजाएँ दिए हुए वेगों को निरूपित करती हैं। यह वेगों का समांतर चतुर्भुज नियम है। यदि दो वेगों व१ तथा व२ के बीच कोण ण है और उनके परिणामी व तथा व१ के बीच कोण ञ है तो त्रिकोणमिति से स्पष्ट है (देखें चित्र ४.) कि
वउु(व१२अव२२अ२व१.व२ कोज्या ण)
ज्या ञउव ज्या ण/ (व१अव२ कोज्या ण)
इन सूत्रों से परिणामी वेग व की माप तथा दिशा दोनों ज्ञात हो जाती हैं। व१, व२ वेग व के घटक कहलाते हैं। वेग व घटकों व१, व२ और कोणों ण तथा ञ में निम्नलिखित संबंध हैं :
इस समीकरणों से राशियों व, व१, व२, ण तथा ञ में से तीन के ज्ञात होने पर शेष दो निर्धारित किए जा सकते हैं।
त्वरणों के संयोजन के लिए भी इसी प्रकार का समांतर चतुर्भुज नियम है । ऊपर के सूत्रों में व को त्वरण और व१ तथा व२ को घटक त्वरण मानना होगा।
चित्र ४.
समतल पर गतिमान बिंदु का वेग दो निर्दिष्ट दिशाओं के घटकों में निर्धारित हो जाता है, किंतु त्रिविमितीय आकाश में गतिमान पिंड (जैसे वायुयान) का वेग तीन दिशाओं में उसके घटक दिए रहने पर निर्धारित होता है। दिशा और माप में परिणामी, उस समांतर फलकी के विकर्ण से निरूपित होता है जिसकी भुजाएँ दिए हुए घटकों को माप तथा दिशा में निरूपित करती हैं। विकर्ण तथा भुजाएँ विचाराधीन बिंदु से होकर जानी चाहिए। यह समांतर चतुर्भुज नियम का त्रिविमितीयकरण है और सदिश नियम के नाम से प्रसिद्ध है।
गतिविज्ञान का मुख्य रूप से ध्येय परस्पर क्रिया से प्रभावित दो या अधिक पिंडों की अधिक गति का शोध करना है। यह परस्पर क्रिया उनके संघट्ट के कारण, जैसे दो बिलियर्ड की गेंदों के, अथवा उनके परस्पर आकर्षण के कारण, जैसे सूर्य और पृथ्वी के बीच, हो सकती हैं। हरेक पिंड दूसरे पिंड पर बल लगाता है। एक पिंड पर बल आरोपित मानने से दूसरे पिंड की उपेक्षा की जा सकती है। इस प्रकर बल की संकल्पना अत्यंत सुविधाजनक है, क्योंकि हमें सदा ही पिंडों की सापेक्ष गति जाननी होती है। उदाहरणत:, यदि पृथ्वी पर फेंके हुए पिंड की गति ज्ञात करना अभीष्ट है, तो पृथ्वी और पिंड की परस्पर क्रिया के स्थान में पृथ्वी के आकर्षणबल की संकल्पना के फलस्वरूप पिंड पर ऊर्ध्वाधर अधोमुखी त्वरण ग मानकर गति ज्ञात की जा सकती है। किंतु बल की संकल्पना अनिवार्य नहीं, इसके बिना भी गतिशोध किया जा सकता है।
न्यूटन के गतिनियमों बलों और उनके प्रभावों के बीच गृहीत संबंध हैं, जिनमें कोई असामंजस्य नहीं है और इनका विशेष गुण यह है कि य आकाशीय पिंडों की गति की व्याख्या करते हैं (देखें गति के नियम)।
न्यूटन का प्रथम नियम - प्रथम नियम इस प्रश्न का उत्तर देता है कि बिना बल लगे पिंड की क्या गति होगी। नियम यह है कि बाहर से लगे हुए किसी बल द्वारा प्रेरित होने पर ही कोई पिंड विरामावस्था को, या सीधी रेखा में अचर वेग से चलने की अवस्था को, छोड़ता है; अन्यथा वह या तो विरामावस्था में पड़ा रहता है, या सीधी रेखा में अचर वेग से चलता रहता है। इस नियम को जड़ता नियम भी कहते हैं। इसे सर्वप्रथम गैलिलियो ने न्यूटन की प्रिंसिपिया नामक पुस्तक प्रकाशित होने से ५० वर्ष पूर्व, १६३८ में, प्रस्तुत किया। विरामावस्था से अर्थ यह है कि अवकाश में तीन स्थिर अक्षों - अ य, अ र, अ ल - के सापेक्ष स्थित पिंड के निर्देशकों य, र, ल, में कालांतर में कोई भी नहीं बदलता। लेकिन स्थिर अक्ष क्या है, यह न बता सकने की कठिनाई न्यूटनीय मीमांसा में अवश्य है। सैद्धांतिक दृष्टिकोण से किंन्हीं स्थिर अक्षों की कल्पना कर गतिविज्ञान का प्रतिपादन किया जा सकता है और क्रियात्मक रूप से यदि स्थिर तारों के सापेक्ष अस्थिर अक्ष मान लिए जाए, तो वास्तविक गतियों के निर्धारण में कोई अनुपेक्षणीय त्रुटि नहीं आती।
प्राय: देखा जाता है कि मोटर गाड़ी आदि को तृजु रेखा में अचर वेग से चलाने के लिए भी बल लगाना पड़ता है। यह बात प्रथम गति नियम की विरोधी है, पर इसका कारण यह है कि पिंड जिस माध्यम (समतल, वायु आदि) में चलता है उसके द्वारा अवश्य ही कुछ न कुछ बल घर्षण के रूप में लगा रहता है और इस प्रतिरोधी बल के निराकरण के लिए ही बाह्य बल की आवश्यकता पड़ती है।
न्यूटन का द्वितीय नियम - दूसरा नियम यह बताता है कि बल लगाने पर पिंड का वेग किस प्रकार बदलता है। नियम यह है कि गतिपरिवर्तन आरोपित बल के समानुपात में और उसी दिशा में होता है जिसमें आरोपित बल लगा है। गतिपरिवर्तन का अर्थ हमारी भाषा में त्वरण से है। गतिपरिवर्तन के स्थान में आगे चलकर 'संवेग वृद्धि की दर' कहकर नियम को स्पष्ट कर दिया गया है। संवेग पिंड के द्रव्यमान और वेग के गुणनफल को कहते हैं। इस नियम के आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि
बउद्र. त . . . . . . . . . . . . . (४)
जहाँ बउबल, द्रउपिंड का द्रवयमान और तउपिंड का त्वरण है। इस नियम के साथ एक आधारभूत नियम, बलों का स्वातंत््रय, जोड़ने पर यह निष्कर्ष मिलता है कि यदि पिंड पर कई एक बल लगे हों, तो प्रत्येक अपनी दिशा में, अपनी माप के समानुपात में, पिंड में त्वरण उत्पन्न करेगा। इन सब त्वरणों का परिणामी त्वरण वही होगा जो बलों का परिणामी बल पिंड में उत्पन्न करता। दूसरे शब्दों में, बलों का परिणामी बल भी सदिश नियम से प्राप्त किया जा सकता है। पिंड के द्रव्यमान का उसकी जड़ता की माप भी मानते हैं।
न्यूटन का तृतीय नियम - जैसा पहले बताया जा चुका है, बल दो पिंडों की परस्पर क्रिया का एक पहलू है। यदि पिंड ख की क्रिया के कारण पिंड क पर कोई बल व लगता है, तो इसी क्रिया के करण पिंड ख पर भी यही बल लगेगा। न्यूटन का तृतीय नियम यह है कि प्रत्यक क्रिया के लिए ठीक उसी के बराबर और प्रतिकूल दिशा में प्रतिक्रिया विद्यमान रहती है। इन तीन नियमों के साथ गुरुत्व नियम (यह है कि दूर स्थित दो पिंडों के बीच एक आकर्षण बल रहता है) मिला देने पर न्यूटनीय गतिविज्ञान का निर्माण होता है।
माप एकक - समीकरण (४) से बल मापने का एकक मिलता है। यदि द्र और त एकक माप के हैं, तो पिंड पर लगा बल भी एकक माप का होगा। फु.पा.से. पद्धति में द्रव्यमान का एकक १ पाउंड, त्वरण का १ फुट प्रति सेकंड है और बल का एकक १ पाउंडल है; अर्थात् १ पाउंडल वह बल है जो १ पाउंड द्रव्यमानवाले पिंड में १ फुट प्रति सेकंड का त्वरण उत्पन्न करता है। सें.ग्रा.से. पद्धति में १ डाइन बल का एकक है, अर्थात् १ डाइन वह बल है जो १ ग्राम द्रव्यमानवाले पिंड में १ सेंटीमीटर प्रति सेकंड प्रति सेंकड का त्वरण उत्पन्न करता है। डाइन और पाउंडल बल के परम एकक हैं, क्योंकि ये समय और स्थान के अनुसार नहीं बदलते। प्रत्युत वह बल जो १ पाउंड द्रव्यमानवाले पिंड में गुरुत्वीय त्वरण ग (जो लगभग ३२.२ फुट प्रति सेकंड प्रति सेकंड है) उत्पन्न करता है, १ पाउंड भार कहलाता है। इस प्रकार
१ पाउंड भारउग पाउंडल
से.ग्रा.से. पद्धति में गुरुत्वीय त्वरण का मन लगभग ९८१ सेंटीमीटर प्रति सेकंड है। इसलिए
१ ग्राम भारउलगभग ९८१ डाइन।
वैज्ञानिक कार्य में परम एकक पाउंडल और डाइन का उपयोग किया जाता है, किंतु इंजीनियरी आदि में पाउंड भार आदि का उपयोग होता है। ध्यान रखना चाहिए कि पाउंड भार ऊँचाई के अनुसार कम होता जाता है।
आवेग और संवेग - द्वितीय नियम से यह संबंध मिलता है कि
श्अर्थात्
ब ता सउद्र
व,
जहाँ द्र द्रव्यमान के किसी पिंड पर लगा हुआ बल ब है और पिंड का वेग व है। यदि बल के समय स१ तक लगने के कारण संवेग (द्र व)० से बदलकर (द्र व)१ हो जाता है, तो
ब ता सउ(द्र
व)१-(द्र व)० . . .
. . . . . . . . . . (५)
इस संबंध में बाएँ पक्षवाले समाकल को बल का, समय स१ तक का, आवेग कहते हैं। इस प्रकार बल का आवेग संवेग वृद्धि से मापा जाता है। यदि बल अचर है, अथवा समय स० लघु है, तो समाकल का मानउब स०। तदनुसार ऐसे बल को आवेगी बल कहते हैं जो माप में बड़ा हो और थोड़े समय के लिए लगा हो, जिससे गुणनफल ब स० परिमित माप का हो।
यदि किसी बल ब के (अक्षों के अनुदिश) विघटित अंश ब१, ब२, तथा ब३ हैं और यह द्रव्यमान द्र वाले पिंड पर, जिसके वेग व के विघटित अंश व१, व२, तथा व३ हैं, लगा है तो यह सिद्ध किया जा सकता है कि विघटित अंश ब१ का आवेग य अक्ष के अनुदिश संवेग द्रव१ के परिवर्तन के बराबर है। इस प्रकार वेग की भाँति संवेग, सदिश-नियम के अनुसार, संयोजित और विघटित किया जा सकता है। समीकरण (५) जैसा समीकरण एक दूसरे पिंड के लिए
ब१
ता सउ(द्र१ व१)१-(द्र१
व१)०
है। इसे समीकरण (५) में जोड़ने पर दो पिंडों पर लगे संपूर्ण बल बअब१ के आवेग से उत्पन्न संवेग परिवर्तन की मात्रा मिलती है। यदि ब और ब१ दो पिंडों की परस्पर क्रियाएँ हैं, तो न्यूटन के तृतीय नियम से बअब१उ०; इसलिए संवेगपरिवर्तन शून्य है। यह संघट्ट का एक नियम है। दूसरा नियम कि संघट्ट से पूर्व एक पिंड का दूसरे के सापेक्ष संघट्ट की दिशा में वेग, संघट्ट के बाद वाले सापेक्ष वेग से विपरीत दिशा में और एक निश्चित अनुपात में, होता है, प्रयोग से प्राप्त किया गया है।
यह भी सिद्ध किया जा सकता है कि किसी भी दिशा में द्रव्य संहति के संपूर्ण संवेग पर इसके संघटक द्रव्यमानों की परस्पर क्रियाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह रेखीय संवेग की अविनाशिता का नियम है। द्रव्यमान के संपूर्ण संवेग में किसी दिशा में परिवर्तन उसपर लगे हुए बलों के आवेग के बराबर होता है। यह रेखीय संवेग का नियम है।
इस बात के आधार पर कि किसी पिंड के कणों की परस्पर क्रियाओं का (बीजीय) योग शून्य है, यह सिद्ध किया जा सकता है कि किसी पिंड (अथवा पिंडसमूह) के द्रव्यमान केंद्र की गति के लिए समीकरण उस कण की गति के समीकरण जैसे होते हैं, जो उस केंद्र पर स्थित है, पिंड के बराबर द्रव्यमान का है और जिसपर वे ही बल लगे हैं, जो पिंड पर बाहर से लगे हैं।
कार्य और ऊर्जा - चूँकि य अक्ष के अनुदिश त्वरण
इसलिए य अक्ष के अनुदिश गति समीकरण का निम्न रूप मिलता है:
ब१उम त१उम
व१
अर्थात् तायउ
म व१
ताव१
. . . . . . . . . . . . . (६)
जहाँ ० तथा । क्रमानुसार विस्थापन के आरंभ तथा अंत के द्योतक हैं और यह मान लिया गया कि द्रव्यमान म अचर है। राशि १/२ म व२ को पिंड की गतिज ऊर्जा कहते हैं। र और ल अक्षों के अनुदिशवाले समीकरण जोड़ने पर हम देखेंगे कि
(ब१
तायअब२ तार अ ब३ ताल)
. . . . . . . . . . . . . (७)
यदि हम केवल य अक्ष के ही अनुदिश गति तक सीमित रहें और ब१ को अचर मानें, तो समीकरण (६) यह बताता है कि विस्थापन में गतिज ऊर्जा की वृद्धि ब१ (य।-य०), अर्थात् बल द्वारा किए गए कार्य, के बराबर होती है। जब बल सदा विस्थापन की दिशा में नहीं लगा रहता है, तो जैसा नीचे समझाया गया है, समीकरण (७) के बाएँ पक्ष का समाकलन बल द्वारा किए गए कार्य का द्योतक है और बल द्वारा किया कार्य गतिज ऊर्जा की वृद्धि के बराबर है।
चित्र ५.
मान लें क, ख पिंड की दो समीप की स्थितियाँ हैं, जो कख के लघु होने के कारण हम पिंड पर लगे बल ब को अचर मान सकते हैं। यदि बल की दिशा क ख (अर्थात् क पर के स्पर्शी) से कोण ण बनाती है, तो बल ब का विघटित अंश क ख के अनुदिश ब कोज्या ण है और यह दूरी कख तक विस्थापित होने पर कख, ब कोज्या ण के बराबर कार्य करेगा। दूसरा विघटित अंश कख से लंब दिशा में होने के कारण कुछ भी कार्य नहीं करेगा। साथ ही यदि अक्षों के अनुदिश कख के विघटित अंश ताय, तार, ताल, हैं और व के ब१, ब२, ब३ हैं, तो अवकल ज्यामिति से
कख. ब कोज्या णउब१ तायअब२ तारअब३ ताल।
इस राशि के समाकलन से अभीष्ट कार्य की मात्रा मिल जाती है।
संवेगा घूर्ण - निर्दिष्ट अक्ष के परित: किसी पिंड का संवेगा घूर्ण (moment of momentum) उसके संवेग और उस न्यूनतम दूरी का गुणनफल है जो अक्ष और पिंड की परिणामी गति की रेखा के बीच है (यह न्यूनतम दूरी अक्ष और गतिरेखा दोनों पर लंब है)। यदि गतिरेखा अक्ष से लंब दिशा में है, तो यह दूरी गतिरेखा की उस बिंदु से लंबवत् दूरी है जिसमें अक्ष गतिरेखा से जानेवाले और अक्ष पर लंब समतल को काटता है। अन्य शब्दों में, किसी पिंड का एक बिंदु के परित: संवेगाघूर्ण पिंड के संवेग और गतिरेखा पर उस बिंदु से खींचे गए लंब का गुणनफल है। यह सिद्ध किया जा सकता है कि किसी अक्ष के परित: द्रव्यमान के संवेगाघूर्ण पर उसके संघटक द्रव्यमानों की परस्पर क्रियाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता (संवेगाघूर्ण अविनाशिता नियम) और संवेगाघूर्ण में परिवर्तन पिंड पर लगे हुए बलों के उस अक्ष के परित: सम्मिलित आघूर्ण के बराबर है (संवेगाघूर्ण नियम)।
दृढ़ पिंड के लिए गतिसमीकरण - ऐसे पिंड को दृढ़ कहते हैं जिसके घटक कणों के बीच की दूरी सदा अपरिवर्तित रहती है। अवकाश में बलों से प्रेरित पिंड की गति के ६ समीकरण होते हैं - तीन निर्देशाक्षों की दिशाओं में संवेग-नियम से और तीन इन अक्षों के परित: आघूर्ण लेने पर संवेगाघूर्ण नियम से प्राप्त होते हैं। इनके हल से पिंड की हर क्षण पर गति ज्ञात हो जाती है।
बलकेंद्र के परित: पथ
पृथ्वी के सापेक्ष आकाशीय पिंडों की गति की व्याख्या करने के हेतु न्यूटन ने अपनी गतिविज्ञान पद्धति का विकास किया। उसकी व्याख्या का आधार गुरुत्वाकर्षण की कल्पना है। दो पिंडों के बीच आकर्षण एक दूसरे पर विपरीत दिशाओं में क्रिया करता है, इसलिए उनका द्रव्यमान-केंद्र (centre of mass) परस्पर आकर्षण के होते हुए भी, अन्य किसी बल की अनुपस्थिति में, ऋजु रेखा में अचर वेग से चलेगा। यह द्रव्यमान-केंद्र दोनों पिंडों को मिलानेवाली ऋजु रेखा पर स्थित रहता है। इसलिए द्रव्यमान-केंद्र के सापेक्ष गतिशोध में दूसरे पिंड पर ध्यान न देकर केवल केंद्र की ओर आकर्षणबल को मान लेना काफी है। द्रव्यमान-केंद्र को आकर्षण केंद्र मानने में सुविधा रहती है। पिंड पर केवल आकर्षण बल लगने के कारण आकर्षण केंद्र के परित: उसके संवेग का आघूर्ण और उसकी गतिज ऊर्जा तथा आकर्षण द्वारा किए गए कार्य का योग, दोनों सदा अचर रहते हैं। आकर्षण बल दूरी के वर्ग के प्रतिलोमानुपात में होने पर पिंड के पथ का दीर्घवृत्त, परवलय अथवा अतिपरवलय होना इस बात पर निर्भर है कि किसी बिंदु पर पिंड का वेग ु(२ क/त्र) से कम है, या इसके बराबर है, या इससे अधिक है। यहाँ त्र पिंड की आकर्षण केंद्र से दूरी है और क आकर्षण बल की माप क/त्र२ का स्थिरांक है। इन पथों की एक नाभि आकर्षण केंद्र पर स्थित रहती है।
यद्यपि आकर्षण बल हर जोड़े कणों के बीच होता है किंतु आकर्षण सिद्धांत के ये महत्वपूर्ण परिणाम हैं कि दो ऐसे ठोस या रिक्त गोलों में जिनमें से प्रत्येक का घनत्व केंद्र से निश्चित दूरी पर एकसा है, आकर्षण वही होता है जो द्रव्यमानों में उनके बराबर और केंद्रों पर स्थित कणों में, जब आकर्षण नियम दूरी-वर्ग के प्रतिलोमानुपात का है। सूर्य का द्रव्यमान पृथ्वी या अन्य ग्रहों की अपेक्षा इतना अधिक है कि किसी भी ग्रह की गतिशोध में सूर्य और ग्रह के द्रव्यमान-केंद्र को सूर्य में ही स्थित मानने से त्रुटि उपेक्षणीय होती है। यदि ग्रहों के परस्पर आकर्षण बलों को भी गणना में सम्मिलित किया जाए, तो ग्रहों की गति और अधिक यथार्थता से ज्ञात हो जाती है।
स्थितिविज्ञान में उन बलों का विवेचन होता है जिनके लगे रहने पर भी पिंड विरामावस्था में रहता है। विरामावस्था के पिंड का किसी भी दिशा में परिणामी त्वरण शून्य है। चूँकि द्रव्यमान द्र में प्रत्येक त्वरण त, न्यूटन के द्वितीय नियम के अनुसार, बल द्रत के कारण है, इन बलों का परिणामी बल शून्य है। अतएव स्थितिविज्ञान में संतुलित बलों का विवेचन होता है। यह भी स्पष्ट है कि त्वरणों की भाँति बलों में भी सदिश नियम, विशिष्टत: समांतर चतुर्भुज नियम, लागू है।
१९. बल बहुभुज - बल बहुभुज नियम यह है कि यदि किसी कण पर लगे बल दिशा और माप में क्रमानुसार किसी (बंद) बहुभुज की भुजाओं से निरूपित हो सकें, तो बल संतुलित होंगे। मान ले कण अ पर लगे बल दिशा और माप में अब१, अब२, ..... से निरूपित होते हैं। समांतर चतुर्भुज नियम से माप तथा दिशा में बलों अब१ और अब२ का परिणामी अप१ से निरूपित होगा, जहाँ अ१ ब१ प१ ब२ एक समांतर चतुर्भुज है, अर्थात् सदिश संकेतन में, अब१अअब२उअप१ इस प्रकार पहले बल को निरूपित करने के लिए अब१ और दूसरे बल के निरूपण हेतु ब१ प१ खींचने से बिंदु प१ मिल जाता है। अब यदि तीसरा बल अब३ कण पर लगा है, तो तीनों बलों का
चित्र ६.
परिणामी अप१ और अ ब३ का परिणामी होगा। पूर्वोक्ति अनुसार यह परिणामी अ प२ है, जहाँ प१ प२ (अब३ के बराबर और समांतर) तीसरे बल का निरूपण करती हुई खींची गई है। यह प्रक्रम कितने ही बलों के लिए दोहराया जा सकता है। हमें प३, प४, .... आदि बिंदु मिलते हैं और क्रमिक परिणामी अप१, अप२, आदि से निरूपित होते हैं। संतुलन के लिए सब बलों का परिणामी शून्य होगा। इसलिए इस प्रकार अंत में प्राप्त बिंदु अ से संपाती होना चाहिए, अर्थात् यदि किसी संतुलित अवस्था में कण पर लगे बलों का निरूपण अ ब१, ब१ प१, प१ प२, द्वारा करें तो ये एक बंद बहुभुज की भुजाएँ होंगी। यही बल बहुभुज नियम है। आवश्यक नहीं कि बहुभुज एक समतल में स्थित हो, और बल किसी भी क्रम में लिए जा सकते हैं।
स्पष्ट है कि दो बल तभी संतुलित होंगे जब वे बराबर और एक ही ऋजुरेखा में, किंतु विपरीत दिशाओं में लगे हों।
बल त्रिभुज - तीन बलों के लिए बल बहुभुज नियम का यह रूप हो जाता है: यदि किसी कण पर लगे तीन बल एक त्रिभुज की भुजाओं से दिशा तथा माप में निरूपित होते हैं, तो बल संतुलित हैं। यदि कण पर लगे तीन बल त्रिभुज अ ब१ प१ की भुजाओं से निरूपित हैं, तो बल अ ब१, अ ब२ तथा अ ब३ संतुलित होंगे, जहाँ अ ब२, ब१ प१ के समांतर तथा बराबर है और अ रेखा प१ ब३ का मध्यबिंदु है। बल त्रिभुज नियम से ये बल संतुलित हैं। साथ ही क़् अब१ प१ से (देखें चित्र ७.)
चित्र ७.
अब१ : ब१प१ : प१ अउज्या अप१ब१ : ज्या ब१अप१ : ज्या अब१प१उज्या प१ अ ब२ : ज्या अ प१ ब२ : ज्या अ प१ ब२
अर्थात्
इस प्रकार प्रत्येक बल शेष दो बलों के बीच के कोण की ज्या का समानुपाती है। यह परिणाम लामी (Lamy) के प्रमेय के नाम से विख्यात है।
बल-संचरणशीलता - यदि एक दृढ़ पिंड के किसी बिंदु पर कोई बल लगा है, तो हम उस बल की क्रियारेखा में किसी भी अन्य बिंदु पर उस बल को लगा हुआ मान सकते हैं, यह बल संचरणशीलता का नियम है। इसके तुल्य दूसरा नियम यह है कि एक ही क्रियारेखावाले ऐसे दो बल जो माप में समान, किंतु दिशा में विपरीत हों, एक दूसरे को निष्क्रिया अर्थात् संतुलित कर देते हैं। इन नियमों में एक को स्वयंसिद्ध मान दूसरे को सिद्ध किया जा सकता है। बल संचरणशीलता के कारण बल की क्रियारेखा और उसकी माप तथा दिशा का जानना काफी है, क्रियाबिंदु को जानने की आवश्यकता नहीं है। इस कारण किसी दृढ़ पिंड के संतुलन पर विचार करने के लिए बलों के क्रियाबिंदु का महत्व नहीं रहता और केवल बलों कें संतुलन की परीक्षा करना पर्याप्त है।
समांतर बल - दो समांतर बलों का परिणामी बल ज्ञात करने के लिए सदिश नियम अनुपयोगी है। बलसंचरणशीलता और समांतार-चतुर्भुज नियमों के द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि दो एकदिश (अर्थात् एक ही दिशा में लगे) समांतर बलों ब१ और ब२ का परिणामी बल उनके एकदिश और समांतर ब१अब२ भाप का बल है, जिसकी क्रियारेखा इन बलों की (समांतर) क्रियारेखाओं के बीच किसी भी तिर्यंक रेखा को ब२ : ब१ के अनुपात में विभाजित करती है (चित्र ८ में कद : दखउब२ : ब१)। यदि बल असमान तथा एकदिश नहीं है अर्थात विपरीत हैं (मान लें, उनमें ब२ बड़ा है), तो परिणामी बल उनके समांतर और बड़े के एकदिश ब२-ब१ माप का बल है, जिसकी क्रियारेखा दिए हुए बलों की (समांतर) क्रियारेखाओं के बीच किसी भी तिर्यकरेखा को बाह्यत: ब२ : व१ के अनुपात में काटती है
चित्र ८.
चित्र ९.
(चित्र ९ में कद : खदउब२ : ब१)। यदि बल समांतर, और माप समान हैं किंतु विपरीत दिशा में, तो बलों का परिणामी कोई बल नहीं होता; वे मिलकर एक बलयुग्म (couple) बनाते हैं, जिसका आघूर्ण उन बलों की क्रियारेखाओं के बीच की दूरी को बल की माप से गुणा करने पर प्राप्त होता है। चित्र १०रू में बलयुग्म का आघूर्णउबव्द। संवेग के आघूर्ण जैसी परिभाषा बल के आघूर्ण की भी है। बिंदु य के प्रति बल ब का आघूर्णउबव्पल (देखें चित्र ११), जहाँ प ल बिंदु प से बल की क्रियारेखा पर खींचा गया लंब है। चित्र ११. में बल प के परित: वामावर्त दिशा में घुमाने की चेष्टा करता है, इसलिए उसका आघूर्ण धनात्मक है। इसी पकार चित्र १० वाले बलयुग्म का आघूर्ण ऋणात्मक है। यह सिद्ध किया जा सकता है कि समतलीय बलों का उनके समतल
चित्र १०.
चित्र ११.
में स्थित किसी बिंदु के परित: सम्मिलित आघूर्ण वही है जो अकेले उनके परिणामी का (बलयुग्म के बलों का उसके समतल में स्थित किसी भी बिंदु के परित: आघूर्ण सदा वही रहता है जो बलयुग्म का)।
गुरुत्वकेंद्र - किसी पिंड का भार वह बल है जिससे पृथ्वी उसे अपनी ओर आकर्षित करती है। यह भार उन सब बलों का परिणामी है जिन्हें पृथ्वी उस पिंड के प्रत्येक कण पर अलग अलग लगाती है। यदि पिंड बहुत बड़ा नहीं है, तो ये बल प्राय: समांतर हैं और उनका परिणामी बल पिंड के एक विशेष बिंदु से होकर जाता है, चाहे पिंड को किसी भी स्थिति में रखा जाए। इस बिंदु को पिंड का गुरुत्वकेंद्र कहते हैं। कारण यह है कि यदि दो समांतर बल ब१ और ब२ क्रमानुसार बिंदु क और ख पर लगे हैं (देखें चित्र ८), तो उनका परिमाणी बिंदु द से होकर जाएगा। बलों और क ख के बीच के कोण का बिंदु द की स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। क और ख पर लगे बलों का बलकेंद्र द है। अब द पर बल ब१अब२ और तीसरे किसी बिंदु ग पर एकदिश समांतर बल ब३ का बलकेंद्र एक निश्चित बिंदु घ होगा। इस प्रकार एक एक करके गणना करने पर सभी कणों के भारों का सम्मिलित बलकेंद्र ज्ञात हो जाएगा।
बिंदुओं यम, रग, लम
पर (मउ१, २,....., प) स्थिति भार द्रम के कणों
का गुरुत्व केंद्र श्है, जहाँ
(द्र१अद्र२अ.....अद्रप)उय१
द्र१अय२ द्र२अ...अयप
द्रप,
इत्यादि और यदि द्रम कणों
के द्रव्यमान हैं तो श्कणों का द्रव्यमान
केंद्र अथवा द्रव्यकेंद्र कहलाता है। चूँकि पिंड के विभिन्न कणों पर
गुरुत्वत्वरण लगभग समान ही है, द्रव्यमान केंद्र सामान्यतया वही
होता है जो गुरुत्वकेंद्र।
बलों का संतुलन - अवकाश में किसी दृढ़ पिंड की गति के छह समीकरणों के संगत पिंड के संतुलन के लिए भी छह समीकरण हैं, जो गति समीकरणों में त्वरणों को शून्य रखने पर प्राप्त होते हैं। यदि सभी बल एक समतल में हैं, तो केवल तीन समीकरण रह जाते हैं - बलों का किन्हीं दो दिशाओं में सम्मिलित विघटित अंशों का और बिंदु के परित: सम्मिलित आघूर्ण का अलग अलग शून्य होना। यदि पिंड पर केवल तीन बल लगे हैं, तो संतुलन के लिए इनकी क्रियारेखाओं का एक ही समतल में तथा एक बिंदुगामी होना और लामी के प्रमेय को संतुष्ट करना आवश्यक एवं पर्याप्त है।
गुरुत्वकेंद्र की संकल्पना से दृढ़ पिंडों के संतुलन की परीक्षा करने में विशेष सहायता मिलती है। उदाहरणत:, यह सिद्ध किया जा सकता है कि यदि एक समान घनत्व (अर्थात् समांग) त्रिभुजीय पटल के शीर्षों को तीन व्यक्ति अपने अपने कंधों पर रखे हों, तो तीनों पर बराबर दबाव पड़ेगा; यदि समांग डोर दो बिंदुओं से लटकी हो तो वह रज्जुवक्र का रूप धारण करेगी; यदि डोर का घनत्व इस प्रकार है कि उसके वे टुकड़े बराबर भार के हैं जिनका किसी क्षैतिज समतल पर प्रक्षेप एक ही लंबाई का है, तो डोर परवलय का रूप धारण करेगी। घर्षण नियमों के अनुसार (देखें घर्षण) यह सिद्ध किया जा सकता है कि यदि सीढ़ी रुक्ष फर्श पर चिक्कण दीवार से लगी सीमांत संतुलन में खड़ी है, तो कोई व्यक्ति उसपर आधी ऊँचाई से ऊपर बिना टेक लगाए नहीं चढ़ सकता। अंत में, चलते हुए व्यकित के चरणों पर घर्षण के क्रिया करने की दिशा जैसा कि गोल समांतर पेंसिलों पर रखे हुए पटरे पर चलकर देखा जा सकता है, पिछले पैर पर आगे की ओर और अगले पैर पर पीछे की ओर होती है।
गतिशोध में स्थितिविज्ञान - डि एलेंबर्ट ने १७४३ ई. में अपनी पुस्तक 'ट्रेट डि डाइनेमीक' में यह नियम बताया कि किसी गतिवान पिंड पर कार्यकारी बल निकाय उसपर लगे बाह्य बल निकाय के तुल्य है। यदि पिंड में द्रव्यमान द्र के किसी कण का त्वरण त है, तो त्वरण की दिशा में उसपर लगे एक कार्यकारी बल द्रत की कल्पना की जा सकती है। पिंड के सभी कणों पर ऐसे कार्यकारी बलों के विपरीत बल और बाह्य बल संतुलन में
चित्र १२.
रहते हैं। इस संतुलन की परीक्षा स्थितिविज्ञान के नियमों द्वारा की जा सकती है। उदाहरणत:, मान लें कि भारहीन डोर के एक सिरे पर द्रव्यमान द्र का पिंड बँधा है, दूसरा सिरा एक स्थिर बिंदु अ से बँधा है और डोर अचर कोणीय वेग से घुमाई जा रही है। यदि पिंड के केंद्र क की ओर त्वरण त है, तो उसपर कार्यकारी बल के विपरीत बल द्रत दिशा क प में है और तीन बल व, द्रत, द्रग, संतुलन में हैं, जहाँ व डोर का तनाव और द्रग पिंड का भार है। यदि र्ि क अ पउण, तो लामी प्रमेय से
वउद्र ग/ज्या (९०रूअण)उद्रत/ज्या (१८०रू-ण) अर्थात् वउद्र ग व्युको ण, तउग स्प ण।
यदि पिंड त्रिज्या त्र के वृत्त में च चक्कर प्रति सेकंड लगा रहा है, तो तउत्र (२द्र च)२ और णउस्प-१ (४द्र२ च२ त्र/ग)।
सं.ग्रं. - ए.ई.एच. लव : 'थियोरेटिकल मिकैनिक्स'; एच.लैब : 'स्टैटिक्स, डाइनैमिक्स ऐंड हायर मिकैनिक्स; तथा गोरखप्रसाद और हरिश्चंद्र गुप्त : 'गतिविज्ञान', 'स्थिति विज्ञान', पोथीशाला, इहालाबाद। (हरिश्चंद्र गुप्त)