बरेलवी, सैय्यद अहमद शहीद जन्म रायबरेली जिले में १२०१ हि. (१७८६ ई.) में हुआ। पढ़ने लिखने से उन्हें रुचि न थी। युवावस्था में पिता की मृत्यु के कारण वह लखनऊ और वहाँ से दिल्ली पहुँचे। वहाँ वह शाह वलीउल्लाह के पुत्र शाह अब्दुल अज़ीज़ तथा शाह अब्दुल क़ादिर के शिष्य हो गए। दो साल वहाँ रहकर लगभग २२ वर्ष की अवस्था में वह रायबरेली लौट आए किंतु दो वर्ष बाद मालवा पहुंचकर अमीर खाँ पिंडारी की सेना के सवारों में भरती हो गए और गोरिल्ला युद्ध की कला सीखी। १८१७ ई. में अमीर खाँ द्वारा अंग्रेजों से संधि करने तथा टौंक का नवाब बन जाने के कारण वह दिल्ली लौट आए। शाह अब्दुल अज़ीज़ ने अपने भतीजे शाह इस्माईल शहीद और अपने जामाता मौलवी अब्दुल हयी को इनका शिष्य बना दिया। वह हिंदुस्तान के सुन्नियों के उन धार्मिक एवं सामाजिक दोषों को दूर करने पर कटिबद्ध हुए जो उनके विचार से हिंदुओं एवं ईरानियों के कुप्रभाव के परिणामस्वरूप थे। विधवाओं के विवाह पर उन्होंने बड़ा जोर दिया। मुहर्रम, ताज़िया और सूफ़ी संतों की कब्रों के आदर-सम्मान से, उनकी राय में, इस्लाम तबाह हो रहा था। बहुत से सुन्नी मुसलमान जिनकी आर्थिक दशा अंग्रेजों के शासन काल में बिगड़ गई थी, धर्म सँभालने के उद्देश्य से इनके सहायक हो गए। १८२१ ई. में वह कलकत्ता होते हुए १८२२ ई. में मक्का पहुँचे। वहाँ उनका वहाबी नेताओं से भी संपर्क हुआ। सूफी मत का अब्दुल वह्हाब खंडन कर चुके थे, सैय्यद उसे किसी भी दशा में छोड़ नहीं सकते थे। अत: जिन सुधारों के लिए वह कमर कस चुके थे, उन्हें आगे बढ़ाने के अतिरिक्त वह वहाबियों से अधिक न सीख सके। किंतु वहाबियों के क़ेताल (हिंसा द्वारा शरीअत के शुद्धतम रूप का प्रचार) के समान जेहाद का झंडा हिंदुस्तान आकर ऊँचा किया। १८२४ ई. में वह हिंदुस्तान लौट आए। शाह अब्दुल अजीज़ भारतवर्ष को दारुल हर्ब अथवा वह स्थान घोषित कर चुके थे जिसमें मुसलमानों के लिए कोई शांति नहीं। इसकी व्याख्या सैयद ने अपने एक पत्र में इस प्रकार की है- 'हिंद तथा फिरंग के काफिरों ने हिंदुस्तान पर अधिकार जमा लिया है। अत: इसे उन लोगों के हाथ से छुड़ाना सभी मुसलमानों के लिए अनिवार्य है।' उनके शिष्य मौलाना इस्माईल शहीद ने अमीर खाँ के उत्तराधिकारी वजीरुद्दौला को फटकारते हुए लिखा-'यह न समझना चाहिए कि हमारे गुरु इतनी ही सेना से लाहौर से कलकत्ता तक विजय कर लेंगे अपितु उनकी सेना में नित्य प्रति वृद्धि होती रहेगी। उदाहरण के लिए नादिरशाह ने एक साधारण स्थिति से उन्नति करके किस प्रकार हिंदुस्तान पर अधिकार जमा लिया था।

जनवरी, १८२६ ई. में वह हिंदुस्तान से सिखों तथा फिरंगियों की सत्ता समाप्त करने के लिए हिंदुस्तानी मुसलमानों की एक सेना लेकर भारत की उत्तरी पश्चिमी सीमा की ओर चल खड़े हुए। दिसंबर, १८२६ ई. में नवशहरा पहुँचकर राजा रणजीत सिंह को चुनौती दी। जनवरी, १८२७ ई. को इस्लाम का शुद्धतम रूप स्थापित करने के लिए इमाम की उपाधि धारण कर ली। हिरात, बुखारा तथा आसपास के शासकों के कान खड़े हुए। क़बीलों में विधवा विवाह के प्रचार तथा उनके उत्साही हिंदुस्तानी मुसलमानों का विरोध होने लगा। पेशावर के यारमुहम्मद ने रणजीतसिंह से मिलकर मुजाहिंदों का मुकाबला किया। कबीलों तथा सैयद साहब के सहायकों में छोटी मोटी अनेक झड़पें हुई। ६ मई, १८२१ ई. को बालाकोट के युद्ध में शेर सिंह की सेना ने सैय्यद के जिहाद आंदोलन को बुरी तरह कुचल कर उनकी हत्या कर दी। उनके शव को जला डाला। शाह ईस्माईल भी इसी युद्ध में मारे गए और इस आंदोलन का एक रूप समाप्त हो गया।

सं. ग्रं. - (फारसी) सैयद अहमद शहीद के पत्र (ब्रिटिश म्यूजियम); मखज़ने अहमदी (ब्रि. म्यू.); फतावाए शाह अदुब्ल अज़ीज़; (उर्दू) सैयद अबुल हसन अली नदवी : सिराते मुस्तक़ीम; सैयद साहब की रचनाओं तथा अन्य ग्रंथों की सूची के लिए देखिए; गुलाम रसूल मेहर, सैयद अहमद शहीद।

(सैयद अतहर अब्बास रिज़वी)