बदीनारायण चौधरी उपाध्याय 'प्रेमधन' भारतेंदु मंडल के उज्वलतम नक्षत्र 'प्रेमधन' जी पं. गुरुचरणलाल उपाध्याय के पुत्र थे। गुरुचरणलाल उपाध्याय, कर्मनिष्ठ तथा विद्यानुरागी ब्राह्मण थे। संस्कृत भाषा के प्रचार प्रसार में आपने तन-मन-धन से योगदान किया। इस तपस्वी एवं विद्याप्रेमी ब्राह्मण के उपाध्याय जी ज्येष्ठ पुत्र थे। आप सरयूपारीण ब्राह्मण कुलोद्भूत भारद्वाज गोत्रीय खोरिया उपाध्याय थे। आपका जन्म भाद्र कृष्ण षष्ठी, संवत् १९१२ को दात्तापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनकी माता ने मीरजापुर में हिंदी अक्षरों का ज्ञान कराया। फ़ारसी की शिक्षा का आरंभ भी घर पर करा दिया गया। अंग्रेजी शिक्षा के लिए आप गोंडा (अवध) भेजे गए। यहाँ आपका संपर्क अयोध्यानरेश महाराज सर प्रतापनारायण सिंह (ददुआ साहेब), महाराज उदयनारायण सिंह, लाला त्रिलोकी नाथ प्रभृत ताल्लुकेदारों से हुआ। इस संसर्गज गुण से आपको मृगया, गजसंचालन, निशानेबाजी, घोड़ासवारी आदि ताल्लुकदारी शौकों में रुचि हुई। उच्च शिक्षा पाने के लिए संवत् १९२४ में फैजाबाद चले आए। पैत्रिक व्यवसाय और रियासत के प्रबंध के लिए मीरजापुर आ जाना पड़ा।

चौधरी गुरुचरणलाल विद्याव्यसनी थे। उन्होंने अंग्रेजी हिंदी और फारसी के साथ ही साथ संस्कृत की शिक्षा की व्यवस्था की तथा पं. रामानंद पाठक को अभिभावक शिक्षक नियुक्त किया। पाठक जी काव्यमर्मी एवं रसज्ञ थे। इनके साहचर्य से कविता में रुचि हुई। इन्हीं के उत्साह और प्रेरणा से पद्यरचना करने लगे। संपन्नता और यौवन के संधिकाल में आपका झुकाव संगीत की ओर हुआ और ताल, लय, राग, रागिनी का आपको परिज्ञान हो गया विशेषत: इसलिए कि वे रसिक व्यक्ति थे और रागरंग में अपने को लिप्त कर सके थे। संवत् १९२८ में कलकत्ते से अस्वस्थ होकर आए और लंबी बीमारी में फँस गए। इसी बीमारी के दौरान में आपकी पं. इंद्र नारायण सांगलू से मैत्री हुई। सांगलू जी शायरी करते थे और अपने मित्रों को शायरी करने के लिए प्रेरित भी करते। इस संगत से नज़्मों और गजलों की ओर रुचि हुई। उर्दू फारसी का आपको गहरा ज्ञान था ही। अस्तु, इन रचनाओं के लिए 'अब्र' (तखल्लुस) उपनाम रखकर गजल, नज्म, और शेरों की रचना करने लगे। सांगलू के माध्यम से आपकी भारतेंदु बाबू, हरिश्चंद्र से मैत्री का सूत्रपात हुआ। धीरे धीरे यह मैत्री इतनी प्रगाढ़ हुई कि भारतेंदु जी के रंग में प्रेमघन जी पूर्णतया पग गए, यहाँ तक कि रचनाशक्ति, जीवनपद्धति और वेशभूषा से भी भारतेंदु जीवन अपना लिया।

वि. सं. १९३० में प्रेमधन जी ने 'सद्धर्म सभा' तथा १९३१ वि. सं. 'रसिक समाज' की मीरजापुर में स्थापना की। संवत् १९३३ वि. में 'कवि-वचन-सुधा' प्रकाशित हुई जिसमें इनकी कृतियों का प्रकाशन होता। उसका स्मरण चौधरी जी की मीरजापुर की कोठी का धूलिधूसरित नृत्यकक्ष आज भी कराता है। अपने प्रकाशनों की सुविधा के लिए इसी कोठी में आनंदकादंबिनी मुद्रणालय खोला गया। संवत् १९३८ में 'आनंदकादंबिनी' नामक मासिक पत्रिका की प्रथम माला प्रकाशित हुई। संवत् १९४९ में नागरी नीरद नामक साप्ताहिक का संपादन और प्रकाशन आरंभ किया। प्रेमधन जी के साथ आचार्य रामचंद्र शुक्ल का पारिवारिक-सा संबंध था। शुक्ल जी शहर के रमईपट्टी मुहल्ले में रहते थे और लंडन मिशन स्कूल में ड्राइंग मास्टर थे। आनंद कादंबिनी प्रेस में छपाई भी देख लेते थे। चौधरी बंधुओं की सत्प्रेरणा और साहचर्य से अयोध्यानरेश ने युगप्रसिद्ध छंदशास्त्र और रसग्रंथ रसकुसुमाकर की रचना करवाई। रसकुसमाकर की व्याख्याशैली, संकलन, भाव, भाषा, चित्र चित्रण में आज तक इस बेजोड़ ग्रंथ को चुनौती देने में कोई रचना समर्थ नहीं हो सकी है यद्यपि यह ग्रंथ निजी व्यय पर निजी प्रसारण के लिए मुद्रित हुआ था। भारतेंदु जी की आयु ३४ वर्ष की थी। मित्र प्रेमधन जी ने इससे पूरी दूनी आयु पाई यानी ६८ वर्ष की अवस्था में फाल्गुन शुक्ल १४, संवत् १९७८ को आपकी इहलीला समाप्त हो गई।

प्रेमधन जी आधुनिक हिंदी के आविर्भाव काल में उत्पन्न हुए थे। उनके अनेक सममायिक थे जिन्होंने हिंदी को हिंदी का रूप देने में संपूर्ण योगदान किया। इनमें प्रमुख प्रतापनारायण मिश्र, पंडित अंबिकादत्त व्यास, पं. सुधाकर द्विवेदी, पं. गोविंद नारायण मिश्र, पं. बालकृष्ण भट्ट, ठाकुर जगमोहन सिंह, बाबू राधाकृष्णदास, पं. किशोरीलाल गोस्वामी तथा रामकृष्ण वर्मा प्रभृत साहित्यिक थे।

कृतित्व - प्रेमघन की रचनाओं का क्रमश: तीन खंडों में विभाजन किया जाता है : १. प्रबंध काव्य २. संगीत काव्य ३. स्फुट निबंध। वे कवि ही नहीं उच्च कोटि के गद्यलेखक और नाटककार भी थे। गद्य में निबंध, आलोचना, नाटक, प्रहसन, लिखकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का बड़ी पटुता से निर्वाह किया है। आपकी गद्य रचनाओं में हास परिहास का पुटपाक होता था। कथोपकथन शैली का आपके 'दिल्ली दरबर में मित्रमंडली के यार में देहलवी उर्दू का फारसी शब्दों से संयुक्त चुस्त मुहावरेदार भाषा का अच्छा नमूना है। गद्य में खड़ी बोली के शब्दों का प्रयोग (संसृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द) आलंकारिक योजना के साथ प्रयुक्त हुआ। प्रेमघन की गद्यशैली की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि खड़ी बोली गद्य के वे प्रथम आचार्य थे। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके विस्तृत निरूपण की चाल उन्होंने चलाई (रामचंद्र शुक्ल)।

उन्होंने कई नाटक लिखे हैं जिनमें 'भारत सौभाग्य' १८८८ में कांग्रेस महाधिवेशन के अवसर पर खेले जाने के लिए लिखा गया था।

प्रेमघन का काव्यक्षेत्र विस्तृत था। वे ब्रजभाषा को कविता की भाषा मानते थ। प्रेमघन ने जिस प्रकार खड़ी बोली का परिमार्जन किया उनके काव्य से स्पष्ट है। 'बेसुरी तान' शीर्षक लेख में आपने भारतेंदु की आलोचना करने में भी चूक न की। प्रेमघन कृतियों का संकलन उनके पौत्र दिनेशनारायण उपाध्याय ने किया है जिसका 'प्रेमघन सर्वस्व' नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन ने दो भागों में प्रकाशन किया है। प्रेमघन हिंदी साहित्य सम्मेलन के तृतीय कलकत्ता अधिवेशन के सभापति (सं. १९१२) मनोनीत हुए थे।

कृतियाँ - (१) भारत सौभाग्य (२) प्रयाग रामागमन, संगीत सुधासरोवर, भारत भाग्योदय काव्य।

गद्य पद्य के अलावा आपने लोकगीतात्मक कजली, होली, चैता आदि की रचना भी की है जो ठेठ भावप्रवण मीरजापुरी भाषा के अच्छे नमूने हैं और संभवत: आज तक बेजोड़ भी। कजली कादंबिनी में कजलियों का संग्रह है। प्रेमघन जी का स्मरण हिंदी साहित्य के प्रथम उत्थान का स्मरण है। (श्रीचंद्र पांडेय)