बंगाल के नवाब १७०७ में औरंगजेब के देहांत के बाद केंद्रीय मुगल सत्ता का क्रमश: ्ह्रास होने लगा। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि साम्राज्य के विभिन्न भागों में केंद्र से पृथक् हो जाने की प्रवृत्ति प्रकट होने लगी और बाद के मुगल बादशाह नाम के शासक रह गए। प्रांतीय सूबेदार वस्तुत: उनसे स्वतंत्र हो गए और मुगल बादशाहों के प्रति उनकी निष्ठा मात्र सैद्धांतिक रह गई। तभी से बंगाल के नवाब भी सभी व्यावहारिक कार्यों के लिए अपने को स्वतंत्र समझने लगे।

मुर्शिद कुली जफर खाँ, जिसे औरंगजेब ने १७०० में बंगाल का दीवान नियुक्त किया था, १७१३ में बंगाल का नायब सूबेदार और १७१७ में सूबेदार बन बैठा। वह बंगाल की राजधानी ढाका से मुर्शिदाबाद हटा ले गया। वह शक्तिशाली और योग्य प्रशासक था। उसने आदेशों का पालन सख्ती से कराया। जमींदारों से लगान वसूली के लिए उसने कड़ी कार्रवाई की और अंग्रेज व्यापारियों को भी चुंगी की वही रकम अदा करने के लिए मजबूर कर दिया जो भारतीय व्यापारी देते थे। उसके शासन के समय ''बंगाल की जनता ने राहत की साँस ली और उसे सुख समृद्धि का अवसर मिला।''

१७२७ में मुर्शिदाकुली के देहांत के बाद उसका दामाद शुजाउद्दीन मुहम्मद खाँ बंगाल का नवाब हुआ। उसके शासनकाल में बिहार का सूबा, जिसकी पूर्वी सीमा ईस्टर्न रेलवे लूप पर स्थित साहबगंज के निकटस्थ तेलियागढ़ी तक पहुँच चुकी थी, शाहंशाह मुहम्मद शाह द्वारा १७३३ में बंगाल के सूबा से जोड़ दिया गया और अलीवर्दी को बिहार का डिप्टी गवर्नर बनाकर भेजा गया। उसने यूरोपीय व्यापारियों पर अपना शासन कड़ाई से लागू किया। १८वीं शताब्दी के कुछ भारतीय लेखकों के अनुसार उसके शासनकाल में बंगाल में शांति और समृद्धि व्याप्त थी। १३ मार्च, १७३९ को उसके देहांत के बाद उसका लड़का सरफराज बंगाल का मसनददार बना। सरफराज में न तो वह योग्यता थी और न वह चरित्रबल ही था जिससे किसी राज्य का शासन कर पाना संभव होता है। उसे अपनी अयोग्यता की भारी कीमत चुकानी पड़ी। उसे गद्दी तो छोड़नी ही पड़ी अपने प्राणों से भी हाथ धोना पड़ा।

उसकी नालायकी का फायदा उठाकर और उसके भाई हाजी अहमद का प्रोत्साहन पाकर बिहार के डिप्टी गवर्नर अलीवर्दी ने एक बड़ी फौज के साथ बंगाल के लिए कूच कर दिया और १० अप्रैल, १७४० को राजमहल के निकटवर्ती गिरिया में हुई पहली ही लड़ाई में उसे हराकर बंगाल, बिहार और उड़ीसा की मसनद पर कब्जा कर लिया। शैशव में ही अनेक विपत्तियाँ झेल लेने के कारण अलीवर्दी का चरित्र इतना पक्का बन चुका था कि वह अपने वैयक्तिक जीवन में बुराइयों से मुक्त रहा और उसमें एक अच्छे शासक के गुण विकसित हो गए। गुलाम हुसेन नामक एक समसामयिक इतिहासकार ने उसके बारे में लिखा है कि 'वह एक बुद्धिमान, कुशाग्रबुद्धि और दिलेर सिपाही था। शायद ही कोई ऐसे गुण हों जो उसमें न रहे हों।' उसने प्रांत के यूरोपीय व्यापारियों पर प्रभावकारी नियंत्रण कायम रखने के लिए भरसक कुछ भी उठा न रखा। उसने उनके व्यापार को प्रोत्साहन दिया और उनके प्रति उसकी कोई दमनात्मक प्रवृत्ति भी नहीं थी, फिर भी कभी परिस्थितियों से बाध्य होकर उसे उनसे धन वसूल करना पड़ता था। उसे अपने अधिकांश शासनकाल में विश्रांति और शांति नहीं मिल सकी क्योंकि १७४२ से ही बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर मराठा आक्रमण का सिलसिला बराबर जारी रहा और उसके दो अफगान सेनापतियों ने भी उसके खिलाफ बगावत कर दी थी। अंत में उसने मई या जून, १७५१ में मराठों से संधि कर ली जिसके अनुसार उसने बंगाल से १२ लाख रुपया चौथ देना स्वीकार कर लिया और उड़ीसा के एक भाग का लगान वसूल करने का अधिकार भी उन्हें दे दिया। बंगाल की सीमा जालेवार के निकट स्वर्णरेखा नदी तक निर्धारित कर दी गई और मराठों से यह समझौता हो गया कि वे भविष्य में इसका उल्लंघन न करेंगे।

अलीवर्दी ९ (अथवा १०) अप्रैल, १७५६ को इस संसार से विदा हो गया और उसके प्रिय पौत्र तथा उत्तराधिकारी सिराजुद्दौला ने शासन का भार सँभाला। उसने शीघ्र ही शहमतजंग की पत्नी घसीटी बेगम और पूर्णिमा के गवर्नर शौकतजंग जैसे अपने प्रतिद्वंद्वी रिश्तेदारों की मक्कार हरकतों और साजिशों को नाकामयाब कर दिया। उसने घसीटी बेगम को शीघ्रता और शांति के साथ अपने राजमहल में बुला लिया और उसकी संपत्ति पर कब्जा कर लिया। शौकत जंग अक्टूबर, १७५६ में मनिहारी में हुई लड़ाई में सिराजुद्दौला द्वारा परास्त कर दिया गया और मारा गया।

किंतु इसी बीच अंग्रेजों के साथ उसके संबंध शत्रुतापूर्ण हो गए। इसके मूल में दोनों के स्वार्थों की टक्कर थी। सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों की कुछ हरकतों को प्रांत के शासक के रूप में अपनी प्रभुसत्ता के लिए हानिकारक समझा और इनके विरुद्ध प्रतिवाद किया। उसने अंग्रेजों पर तीन विशेष आरोप किए। (१) उन्होंने बिना उसकी अनुमति के कलकत्ता में किलेबंदी शुरू की है और उसको मजबूत बनाया है, (२) दस्तकों के अधिकार का दुरुपयोग किया है अर्थात् कंपनी के मुक्त व्यापार का उपयोग अपने निजी व्यापार के लिए किया है, और (३) नवाब के विरुद्ध आचरण करनेवाले उसके अधिकारियों को आश्रय दिया है। समसामयिक दस्तावेजों की सतर्क परीक्षा से यह सिद्ध हो गया है कि इन तीनों अभियोगों में से कोई भी अभियोग निराधार नहीं था।

दोनों में अनिवार्य संघर्ष शीघ्र ही शुरू हो गया। ४ जून, १७५६ को सिराजुद्दौला के सिपाहियों ने मुर्शिदाबाद के निकट कासिमबाजार स्थित अंग्रेजी फैक्टरी पर कब्जा कर लिया। इसके बाद २० जून को नवाब ने कलकत्ता पर भी अधिकार कर लिया। नवाब की फौजों ने जिस समय कलकत्ता पर घेरा डाल रखा था कुछ अंग्रेज सिपाही गिरफ्तार कर लिए गए और यह भी संभव है कि कुछ लोग हताहत भी हुए हों किंतु कालकोठरी (ब्लैक होल) के संबंध में प्रचलित होलबेल की उस कहानी पर, जिसके अनुसार बहुसंख्यक अंग्रेज मार डाले गए थे, आधुनिक लेखकों ने ठोस आधार पर संदेह व्यक्त किया है। जनवरी, १७५७ में मद्रास से ऐडमिरल वाटसन और कर्नल क्लाइव के नेतृत्व में पर्याप्त कुमक आ जाने के बाद अंग्रेजों ने पुन: कलकत्ता पर अधिकार कर लिया। ९ फरवरी, १७५५ को नवाब ने अंग्रेजों से एक संधि की जिसकी शर्तें कंपनी के लिए सम्मानजनक तो थीं ही, लाभदायक भी थीं।

कुछ ही महीनों में नवाब को क्रूर नियति का शिकार बनना पड़ा। मार्च, १७५७ में अंग्रेजों ने चंद्रनगर स्थित फ्रांसीसी फैक्टरी पर कब्जा कर लेने के बाद फ्रांसीसियों को, जो अंग्रेजों के खिलाफ नबाव के सहज मित्र थे, बंगाल से निकाल बाहर किया और प्रधान सेनापति मीर जाफर तथा दुर्लभराम जैसे नवाब के प्रमुख सैनिक और नागरिक प्रशासनाधिकारी, प्रांत के प्रमुख महाजन जगत सेठ तथा कुछ अन्य लोगों ने उसके विरुद्ध अंग्रेजों से मिलकर एक षड्यंत्र रचा जिसे २० जून को अंतिम रूप दे दिया गया। उन्होंने सिराजुद्दौला को हटाकर बंगाल की गद्दी पर मीर जाफर को बैठाने का निश्चय किया। क्लाइव ने शीघ्र ही नवाब के विरुद्ध अभियान शुरु कर दिया और २२ जून की मध्यरात्रि में भागीरथी के तट पर स्थित प्लासी की अमराई में अपनी फौजों के साथ आ धमका। उस समय सिराजुद्दौला भी वहीं डेरा डाले हुए था। इसी स्थान पर २३ जून को जो लड़ाई हुई उसका निर्णय पूरी तरह अंग्रेजों के पक्ष में चला गया क्योंकि इस लड़ाई में नवाब को उन्हीं लोगों ने बुरी तरह धोखा दे दिया जिनसे निष्ठा पाने का वह दावेदार था। जिस समय नवाब दोस्तों और सहायकों की खोज में बिहार की ओर भागा जा रहा था राजमहल के पास रास्ते में ही उसे एक मुसलमान फकीर ने पहचान लिया। फकीर की उससे पुरानी अदावत थी। उसने नवाब का पता उसके दुश्मनों को दे दिया। नबाव को मुर्शिदाबाद घसीट लाया गया जहाँ २ या ३ जुलाई, १७५५ को उसकी नृशंस हत्या कर दी गई।

मीर जाफर को शीघ्र ही बंगाल का मसनद दे दिया गया किंतु वह प्रशासन के लिए सर्वथा अयोग्य सिद्ध हुआ। उसने अंग्रेजों का विश्वास खो दिया। उन्होंने १७६० में उसे गद्दी से हटा दिया और उसके स्थान पर उसके दामाद मीर कासिम को बैठा दिया। मीर कासिम योग्य शासक था किंतु बंगाल के आंतरिक व्यापार के नियमन और अपने प्रभुत्व को प्रभावकर ढंग से क्रियान्वित करने के लिए उसने जो प्रयत्न किए उससे अंग्रेजों के साथ उसका संघर्ष छिड़ गया। उसे कई मुठभेड़ों में मात खानी पड़ी। अंत में १७६३ में उसने बिहार छोड़ दिया। इसके बाद उसने दिल्ली के सम्राट् शाह आलम द्वितीय तथा अवध के नवाब शुजाउद्दौला के सहयोग से अपनी खोई हुई शक्ति को पुन: प्राप्त करने का प्रयत्न किया किंतु उसका यह प्रयत्न भी विफल हो गया क्योंकि २३ अक्टूबर, १७६४ को बक्सर की लड़ाई में उसके मित्रों की सम्मिलित शक्ति पूरी तरह परास्त हो गई। बक्सर युद्ध भारतीय इतिहास का एक निर्णायक युद्ध है क्योंकि इसने प्लासी युद्ध के परिणामों की पूर्ति करके अंग्रेजों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा का वास्तविक प्रभु बना दिया। अगस्त, १७६५ में सम्राट् शाह आलम ने उन्हें जो दीवानी प्रदान की उससे उनकी इस वास्तविक स्थिति को कानूनी मान्यता भी प्राप्त हो गई। इस दीवानी से अंग्रेजों को लगान वसूली और नागरिक न्याय करने के अधिकार हासिल हो गए। मीर जाफर के लड़के और उत्तराधिकारी नजीमउद्दौला ने २० फरवरी, १७६५ को ही अंग्रेजों से एक ऐसा समझौता कर लिया था जिससे पूरी तरह से उसके हाथ कट चुके थे और गद्दी पर उसका किसी तरह का कोई अधिकार नहीं रह गया था। इसके बाद बंगाल के नवाब, प्रशासकीय अधिकार के समस्त लक्षणों से वंचित होकर अंग्रेजों के अधीन हो गए और वस्तुत: उनके बंदियों जैसा जीवन बिताने लगे। (कालीर्किकर दत्त)