फ्रीड्रिख क्रिश्चियन स्वार्टज़ (डेनिश हेली जर्मन मिशन) का जन्म २३ नवंबर, १७२६ को बर्लिन (जर्मनी) के निकट के ग्राम में हुआ था। इनकी धार्मक माता इन्हें बाल्यकाल में ही अनाथ छोड़कर चली गई परंतु वह चाहती थी कि फ्रेडेरक को प्रभु के काम के लिए तैयार किया जाए।

फ्रीड्रिख ने आरंभिक शिक्षा समाप्त करने के बाद हेली विश्वविद्यालय (जर्मन) में प्रवेश किया जहाँ डेनमार्क के राजा, फ्रेडेरिक चतुर्थ की आर्थिक सहायता से विद्यार्थियों को मिशनरी ट्रेनिंग दी जाती थी। विश्वविद्यालय में पढ़ते समय उनको तमिल भाषा की बाइबिल देखने का अवसर मिला जो प्रेस में छपने को आई थी। इसे देखकर उनके मन में एक विशेष भावना जागृत हुई जिससे मिशनरी दर्शन प्राप्त हुआ और उन्होंने निश्चय किया कि वे अपना जीवन इसी रूप में लगा देंगे।

वे सन् १७५० में मिशनरी होकर भारत आए और लगातार ४० साल तक बिना स्वदेश लौटे सेवा करते रहे। वे धार्मिक प्रवृत्ति के थे और उत्साह भी काफी था परंतु उनका आचरण अत्यंत सराहनीय और आकर्षक था। भारत में आकर उन्होंने थोड़े ही समय में तमिल सीख ली और सफलतापूर्वक प्रचार करने लगे।

उन्होंने भारतीय साहित्य एवं धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया एवं हिंदू और मुस्लिम साहित्य तथा धार्मिक विचारों का यथोचित ज्ञान प्राप्त किया। इसका परिणाम यह हुआ कि वे एक साधारण मिशनरी न रहे जिनका संपर्क केवल जनसाधारण से ही हो। फ्रीड्रिख मुसलमान शासक, राजाओं, उच्च शिक्षित ब्राह्मण तथा हर श्रेणी के अंग्रेजों के आदर और श्रद्धा के पात्र हो गए। वे पूरे दक्षिण भारत में घूम घूमकर हर जाति के लोगों में प्रचार करते और आराधनालय तथा स्कूल खोलते थे।

उन दिनों मद्रास आदि स्थानों में अंग्रेजों ने व्यापार आरंभ किया था और राज्य बढ़ाने में भी लगे थे। मद्रास उनका केंद्र था। दक्षिण में मुसलमानों का अधिकार था जिससे अंग्रेजों की कई बार ठन जाया करती थी। स्वार्टज का प्रभाव मुसलमान राजाओं पर बहुत गहरा था, अंग्रेजों ने उन्हें अपना राजदूत ठहराया जो कठिनाई के समय राजाओं से संधि और समझौता कराने में अगुवाई करते थे। एक बार हैदर अली ने बगावत कर दी और किसी शर्त पर संधि करने को तैयार न था। उसने कहा 'मैं अंग्रेजों पर भरोसा नहीं करता। फ्रीड्रिख स्वार्टज को मेरे पास लाओ। वह मुझे हर्गिज धोखा नहीं देगा।' इस प्रकार वह देशी राज्यों में विदेशी राजदूत और मैजिस्ट्रेट का सा काम करते थे।

१७६७ तक वे डेनिश हेली मिशन के मातहत काम करते रहे और वहीं से आर्थिक सहायता ग्रहण करते रहे। उसके बाद उनका मुख्य कार्यालय त्रांकोवार के बदले त्रिचनापल्ली में हो गया जो अंग्रेजी सैनिक अड्डा था। कुछ काल के बाद वे तंजोर चले गए। तंजोर अंग्रेजों के अधिकार में था। अब उनकी आर्थिक सहायता एस. पी. सी. के. मिशन से आने लगी। दूसरे लोग भी उनकी सहायता किया करते थे जिससे उन्होंने त्रिचनापल्ली का गिर्जाघर बनवाया। उनका असली काम तंजोर में हुआ जहाँ अनाथालय आरंभ किया गया जो हेली मिशन का मुख्य आधार था।

तंजोर के राजा से उनका बहुत घनिष्ठ संबंध था और वे राजा के बड़े विश्वासपात्र थे। राजा की मृत्यु के बाद उनके नाबालिग पुत्र सर्फोजी के रक्षक की जिम्मेवारी इन्हीं को सौंपी गई और इन्होंने पिता की तरह उसका लालन पालन कर उत्तम से उत्तम शिक्षा देकर जीवन के लिए तैयार किया। सर्फोजी के काका संपत्ति और राजकाज की देखरेख के लिए उत्तरदायी ठहराए गए जो लालच में पड़कर राज्य को खुद ही हड़पने की कोशिश करने लगे। अतएव फ्रीडिख स्वार्टज़ निरीक्षक ठहराए गए ताकि काका साहब किसी प्रकार की चालाकी न कर सकें। तंजोर में उन्होंने अपने धन से जो गिर्जाघर बनवाया वह आज तक ऐंग्लिकन लोगों द्वारा काम में लाया जाता है। जो कुछ सहायता उन्हें प्राप्त होती उसका बहुत थोड़ा अंश वे अपनी सादी रहन सहन एवं खानपान में लगाते और बाकी सब गिर्जें बनाने, स्कूल चलाने तथा मिशन के दूसरे कामों में लगा देते थे, यहाँ तक कि उन्होंने अपनी निजी संपत्ति, जिसके वे वारिस थे, अपनी मृत्यु के बाद मिशन को दे दी।

तंजोर के बाद वे तिन्नेव्हेली गए जो दक्षिण भारत के दक्षिणी हिस्से में है। वहाँ उन्होंने प्रचार किया। कोबार मिशन ने इन क्षेत्र की देखरेख करने से इनकार कर दिया। इन्होंने स्वयं अपने खर्च से एक स्कूल खोला और एक प्रचारक रख दिया जो प्रचार करता और विश्वासियों की सहायता करता था।

७ अगस्त, १७९८ को ४८ साल की अथक सेवा के बाद स्वार्टज़ की मृत्यु हुई।

इसके बाद सन् १८०७ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मद्रास के किला गिर्जाघर (सेंट मेरी के गिर्जाघर) में एक बहुमूल्य पत्थर पर स्मरण वाक्य लिखकर टाँग दिया :

'वे सबके प्रिय थे और सब उनके प्रिय थे। वे कभी किसी को तुच्छ नहीं समझते थे। यही कारण था कि वे जीवन में बड़े सफल रहे।' (मिल्टन चरण)