फ्रांसिस, असीसी के संत (सन् ११८२-१२२६ ई.) इटली के असीसी नामक नगर के एक धनी व्यापारी के पुत्र थे। असीसी के युवकों के नेता के रूप में, आमोद प्रमोद में अपनी युवावस्था बिताकर वह अपने पूर्व जीवन की निस्सारता समझ गए और अध्यात्म की ओर अभिमुख होकर ईसा का अनुकरण करने लगे। उन्होंने अपनी समस्त संपत्ति गरीबों को बाँट दी और अत्यंत निर्धनतापूर्वक इस पृथ्वी की वस्तुओं के प्रति परम अनासक्ति में साधना करने लगे। शीघ्र ही कुछ युवक उनके शिष्य बन गए। सन् १२०९ ई. में संत फ्रांसिस उनके साथ रोम गए जहाँ उनको पोप इन्नोसेंसियस (इनोसेंट) तृतीय से एक नया धर्मसंघ चलाने की अनुमति मिली (दे. फ्रांसिस्की धर्मसंघ)।
संत फ्रांसिस का प्रकृतिप्रेम इतना विख्यात है और उनकी इस विशेषता को इतना महत्व दिया जाता है कि बहुत से लोग उनके गंभीर रहस्यवाद तथा अत्यंत कठिन तपश्चर्या से अनभिज्ञ रह जाते हैं। इसका कारण यह हे कि आध्यात्मिक सिद्धि की पराकाष्ठा पर पहुँच कर संत फ्रांसिस ने ईश्वर की सृष्टि का आनंदविभोर कवि बना रहना चाहा है। अपने जीवन के अंत में वह अनेक बीमारियों के आक्रांत थे और अपने संघ का संचालन दूसरों के हाथ में देने के लिए विवश हो गए थे; फिर भी उन्होंने इस दशा में इस सुंदर पृथ्वी के सृष्टिकर्ता की प्रशंसा में अपने अमर सूर्यस्तव (Canticle of the sun) की रचना की थी। मध्यकालीन समाज पर उनके मनोभाव का अत्यधिक प्रभाव पड़ा और वह प्रभाव आजतक ईसाइयों तथा गैर ईसाइयों पर बना हुआ है।
सं.ग्रं. - जी.के. चेस्टर्टन : सेंट फ्रांसिस ऑव आसीसी, लंदन, १९२३। (रेवरेंड कामिल बुल्के)