फ़ैज़ी (शेख अबुल फ़ैज़) शेख मुबारकश् नागौरी के पुत्र एवं शेख अबुल फ़ज़ल के अग्रज। इनका जन्म आगरा में ९५४ हि. (१५४७ ई.) में हुआ। पूरी शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की। शेख मुबारक सुन्नी, शिया, महदवी सबसे सहानुभूति रखते थे। फ़ैज़ी तथा अबुल फ़ज़ल इसी दृष्टिकोण के कारण अकबर के राज्यकाल में सुलह कुल (धार्मिक सहिष्णुता) की नीति को स्पष्ट रूप दे सके। हुमायूँ के पुन: हिंदुस्तान का राज्य प्राप्त कर लेने पर ईरान के अनेक विद्वान भारत पहुँचे। वे शेख मुबारक के मदरसे, आगरा में भी आए। फैज़ी को उनके विचारों से अवगत होने का अवसर मिला। ९७४ हि. (१५६७ ई.) में फ़ैज़ी शाही दरबार के कवि बने किंतु अभी तक धार्मिक विषयों पर अकबर ने स्वतंत्र रूप से निर्णय लेना प्रारंभ नहीं किया था अत: दरबार के आलिमों के अत्याचार के कारण शेख मुबारक, फ़ैज़ी तथा अबुल फ़ज़ल को कुछ समय तक बड़े कष्ट भोगने पड़े। १५७४ ई. में अबुल फ़ज़ल भी दरबार में पहुँचे। उस समय से फ़ैज़ी की भी उन्नति होने लगी। १५७८ ई. में अकबर ने अपने पुत्र शाहज़ादा मुराद की शिक्षा का भार उनको दिया। १५७९ ई. में अकबर ने फ़तहपुर की जामा मस्जिद में जो खुतबा पढ़ा उसकी रचना फ़ैज़ी ने की थी। ११ फरवरी, १५८९ ई. को उन्हें मलिकुश्शु अरा (कविसम्राट्) की उपाधि प्रदान की गई। अगस्त, १५९१ ई. में उन्हें खानदेश के राजा अली खां एव अहमदनगर के बुरहानुलमुल्क के पास राजदूत बनाकर भेजा गया। १ वर्ष ८ माह १४ दिन के बाद वह दरबार में वापस पहुँचे। दक्षिण से जो पत्र उन्होंने अकबर के पास भेजे उन्हें उसके भानजे नूरुद्दीन मुहम्मद अब्दुल्लाह ने लतायफ़े फ़ैज़ी के नाम से संकलित कर दिया है। इन पत्रों से उस समय की सामाजिक एवं संस्कृतिक दशा का बड़ा अच्छा ज्ञान प्राप्त होता है तथा ईरान और तूरान के विद्वानों एवं अकबर द्वारा विद्वानों के प्रोत्साहन पर प्रकाश पड़ता है। १५९४ ई. में उसने निज़ामी गंजबी के खम्से (पाँच मसनवियों का संग्रह) के समान पाँच मसनवियों की रचना की योजना बनाई जिसमें निज़ामी के मखज़ने असरार के समान मरकज़े अदवार की और लैला मजनू के समान नल दमन (राजा नल तथा दमयन्ती की प्रेमकथा) की रचना समाप्त कर ली। नलदमन को उसने स्वयं उसी वर्ष अकबर को समर्पित किया। सिकंदरनामा के समान, अकबरनामा की रचना की योजना बनाई किंतु केवल गुजरात विजय पर कुछ शेर लिख सका। खुसरो और शीरीं के समान सुलेमान और विल्क़ीस तथा हफ्त पैकर के समान हफ्त किश्वर की रचना की भी उसने योजना बनाई थी किंतु उन्हें पूरा न कर सका। १००२ हि. (१५९३ ई.) में उसने कुरान की अरबी में एक टीका लिखी जिसमें केवल ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जिनके अक्षरों पर बिंदु नहीं है। फैजी की गज़लों का संग्रह (दीवान) भी बड़ा महत्वपूर्ण है। उसके शेरों का लोहा ईरानवाले भी मानते हैं। उत्साह एवं स्वतंत्र दार्शनिक विचार, उसके शेरों की मुख्य विशेषता हैं। उसे धार्मिक संकीर्णता से बहुत घृणा थी और वह दरवेशों, फक़ीरों तथा संतों से आदरपूर्वक व्यवहार करता था। उसका पुस्तकालय बड़ा विशाल था। १० सफ़र, १००४ हि. (१५ अक्तूबर, १५९५ ई.) को उसकी मृत्यु हो गई।
सं.ग्रं. - (फ़ारसी) अबुल फ़जल : अकबरनामा; अब्दुल क़ादिर बदायूनी : मुंतखबुत्तवारीख; फ़रीद भक्खरी : ज़खीरतुल खवानीन; शाहनवाज़ खां : मआसिरुल उमरा, (उर्दू) शिब्ली, शेरुल अजम। (सैयद अतहर अब्बास रिज़वी)