फुँकनी धातु की नली होती है, जिसके द्वारा दहन की गति तीव्र करने के लिए कभी कभी वाय की धारा अग्नि या लैंप की ज्वाला में केंद्रित करना आवश्यक होता है। घरों में कोयले या लकड़ी की आग को तीव्र करने के लिए बाँस की खोखली नली, या पाइप के टुकड़े का प्रयोग करते हैं। धातुओं की जुड़ाई या टँकाई में या कांच की वस्तु बनाने में फुँकनी का प्रयोग बहुत पुराने समय से होता चला आया है। रासायनिक विश्लेषण में फुँकनी का प्रयोग क्रॉन्स्टेट (Cronstedt) तथा ऐंग्स्ट्रॉम (Angstrom) ने प्रारंभ किया और वेर्गमैन (Bergman), बर्ज़ीलियस (Berzelius) तथा बुंसेन (Bunsen) आदि ने फुँकनी में अनेक सुधार किए।
सबसे प्राचीन तथा साधारण फुँकनी शंक्वाकार पीतल की, लगभग ७ इंच लंबी तथा छोर की ओर समकोण में मुड़ी होकर, एक छोटे गोल रध्रं में समाप्त होती हुई नली के रूप में होती थी, जिसका रध्रंवाला सिरा ज्वाला में तथा लंबा सिरा मुख में लगाते थे। इससे फूँकने के लिए विशेष अभ्यास की आवश्यकता होती है।
फुँकनी की ज्वाला में पदार्थ को रखने के लिए कोयले का टुकड़ा, पेरिस प्लास्टर, काच में लगा प्लैटिनम का तार तथा पॉर्सिलेन काम में लाए जाते हैं। अगलनीय तथा ताप का कुचालक होने के कारण कोयला विशेष रूप से प्रयुक्त किया जाता है। इसके लिए कोयले के संपीड़ित चारकोल गुटके (compressed charcoal blocks) मिलते हैं, जिनमें पदार्थ रखकर फुँकनी का प्रयोग बहुत अच्छी तरह किया जा सकता है।
मुँह से फूँकनेवाली फुँकनी देर तक प्रयोग करने के लिए तथा तीव्र ज्वाला के लिए उपयुक्त नहीं होती है। इसके लिए वायु की धारा हाथ तथा पैर से चलानेवाली धौकनियों से, या विद्युत् मोटर की सहायता से, प्राप्त करते हैं।
रासायनिक विश्लेषण में शुष्क परीक्षण तथा पदार्थों को गरम करके गलाने में फुँकनी का विशेष महत्व है। (रामदास तिवारी)