फीरोजशाह मेहता का जन्म सन् १८४६ में हुआ था। फीरोजशाह मेरवानजी मेहता अपने समय के उन प्रमुख देशभक्तों में थे जिन्होंने अपनी शिक्षा की समाप्ति इंग्लैंड में की। जब आप वकालत के लिए पढ़ रहे थे, आप दादाभाई नौरोजी के संपर्क में आए। ईस्ट इंडिया ऐसोसिएशन और लंदन इंडियन सोसाइटी की सभाओं में प्राप्त राजनीतिक जीवन के प्रशिक्षण के अवसरों को आपने अपने लिए उपयोगी बनाया।

फीरोजशाह के जीवन के अच्छे वर्ष बंबई शहर की म्युनिसपल सरकार की सेवा में व्यतीत हुए। कौंसिल में जो उनका प्रभाव था और अपने सहयोगियों तथा जनता से जो श्रद्धा और आदर उन्हें मिला वह 'बंबई का मुकुटहीन राजा' संबोधन में प्रतिबिंबित होता है। यह कहने में कोई अतिरंजना नहीं कि बंबई की म्युनिसपल कारपोरेशन का जो वर्तमान संविधान है और उसकी जो कीर्ति तथा मर्यादा स्थापित है वह आपके प्रयत्नों का ही परिणाम है। बंबई विश्वविद्यालय सीनेट के निर्वाचित सदस्यों की प्रतिष्ठा के लिए आपका जो संघर्ष था वह विश्वविद्यालय के साथ आपके घनिष्ठ संबंध को सदा याद दिलाता रहेगा।

१८८५ में इंडियन नेशनल कांग्रेस में प्रवेश करने के बाद फीरोजशाह ने भारत में वही काम किया जो दादाभाई ने इंग्लैंड में किया था। बाल्यकाल में आपको कांग्रेस का 'शिशु हरक्यूलिस' कहा जाता था। १९०४ की कांग्रेस की स्वागत कमेटी के चेयरमैन के नाते आपने दृढ़तापूर्वक ब्रिटिश न्याय के प्रति अपना विश्वास घोषित करते हुए कहा कि - 'मैं चिरस्थायी ढंग का आशावादी हूँ। मैं ब्रिटिश शासन को स्वीकार करता हूँ जैसा कि रानाडे ने किया था। आश्चर्यजनक है कि एक छोटा द्वीप संसार के कोने में बसकर अपनी प्रभुता दूर के महाद्वीपों में स्थापित किए है। इसे भगवदिच्छा की व्यवस्था मानकर स्वीकार न करना मूर्खता होगी।'

स्पष्टवादी, स्वतंत्र और वाक्पटु फीरोज़शाह १८८६ में बंबई के लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए मनोनीत किए गए जहाँ आपने सबका ध्यान आकृष्ट किया। उन दिनों कौंसिल के सदस्यों द्वारा अपने विरोध को प्रकट करने के लिए सभा का बहिष्कार बहुत कम सुनाई पड़ता था। जब बंबई का भूमि रेवन्यू बिल कौंसिल में पेश किया गया, यह देखते हुए कि अनियंत्रित शासकों के असहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण के प्रति आपका विरोध कोई विशेष फलदायी नहीं, आपने सभा का बहिष्कार करके महान् संवेदना उत्पन्न कर दी।

इंपीरियल कौंसिल में भी फीरोजशाह वाइसराय की कार्यकारिणी समिति के ब्रिटिश सदस्यों से टक्कर लेते थे। इनका विरोध आप दृढ़तापूर्वक अपने बुद्धिबल से, निंदापूर्ण कटुवचनों और जीतनेवाली हँसी दिल्लगी से करते थे। परंतु अल्पमत में होने के कारण आप उन्हें पराजित न कर सके।

फीरोजशाह और बंबई के राज्यपाल सर जार्ज क्लार्क के बीच सदैव मुठभेड़ चला करती थी। बाद में जब लार्ड विलिंगटन बंबई के राज्यपाल बने, ऐसा संघर्ष न रहा। कहाँ तक फीरोजशाह के मैत्री संबंध और वार्ता ने विलिंगटन को प्रभावित किया और उन्होंने किस हद तक आपके बहुत दिनों से रुके हुए राजनीतिक सुधारों की प्रशंसा की, यह नहीं कहा जा सकता। पर अगस्त, १९१७ की महत्वपूर्ण घोषणा के पश्चात् वह सभी कुछ जो कि जनता के लिए और जनता के माध्यम से माँगा गया था, व्यावहारिक रूप में स्वीकृत किया गया। लाउर् विलिंगटन ने फीरोजशाह के सुधार की माँगों का समर्थन जिस प्रकार पर्दे की ओट से किया, उस विषय में वे बड़े ही प्रसन्न थे। बंबई विश्वविद्यालय के चांसलर के नाते विलिंगटन ने आपको वाइसचांसलर पद के लिए आमंत्रित किया। दुर्भाग्यवश विश्वविद्यालय के प्रति अपकी स्मरणीय सेवाओं को कद्र बहुत विलंब से हुई क्योंकि अस्वस्थता के कारण आप वाइसचांसलर के पद पर कार्य करने में असमर्थ रहे। आप उस विशेष समावर्तन समारोह में भी भाग ले न सके जो आपको 'डॉक्टर ऑव ला' की उपाधि से विभूषित करने के लिए आयोजित किया गया था। १९१५ की कांग्रेस की रिसेप्शन कमेटी के सभासद के पद से आप अपने मित्र श्री एस.पी. सिन्हा को कांग्रेस प्रेसिडेंट के रूप में स्वागत करने की प्रतीक्षा में थे, पर उस वर्ष की राष्ट्रीय कांग्रेस के सत्रारंभ की निश्चित तिथि के एक सप्ताह पूर्व ही आपका देहांत हो गया। ((स्व.) सर रुस्तम पेस्तन जी मसानी)