फीताकृमि या पट्टकृमि (Tapeworm, टेपवर्म) प्लैटीहेल्मिंथीज़ संघ के सेस्टोडा (Cestoda) वर्ग के अंतर्गत आते हैं। इनकी आकृति चिपटी पट्टिका की भाँति होती है। इसलिए इनको पट्टकृमि कहते हैं। सेस्टोडा वर्ग में कई पट्टकृमि सम्मिलित हैं। ये फीते के समान पतले होते हैं। इनकी लंबाई भी भिन्न भिन्न होती है। इनका शरीर कई खंडों से मिलकर बनता है। प्रत्येक खंड एक स्वतंत्र इकाई होता है, जिसमें नर एवं मादा दोनों के पूर्ण जनन अंग होते हैं। इनके नाम विभिन्न डिंभक परपोषी (larval host) के नामानुसार दिए गए हैं। इनका वर्गीकरण मुख्य: दो भागों में कर सकते हैं (१) प्रौढ़ तथा कृमि, जो मनुष्यों की आँतों में रहता है तथा (२) वे कृमि, जिनके डिंभक मनुष्य के शरीर के विभिन्न भागों में रहते हैं। प्रथम भाग में निम्नलिखित कृमि आते हैं: डाइफिलोबॉ्थ्रायम लेटम (Diphyllobothrium latum), टीनिया सोलियम (Taenia solium), टीनिया सैजिनाटा (Taenia saginata), टीनिया नाना (Taenia nana) तथा टीनिया डिमिन्यूटा (Taenia diminuta)। पट्टकृमि, जिनके डिंभक मनुष्य के शरीर के विभिन्न भागों में रहते हैं, निम्नलिखित हैं: टीनिया इकाइनोकॉकस (Taenia echinococcus), टीनिया सोलियम (Taenia solium) तथा टीनिया नाना (Taenia nana)।
ये कृमि मनुष्य के क्षुद्र आंत्र (small intestine) में अपने चूषक (sucker) तथा तुंडक (rostellum) की सहायता से अटके रहते हैं। ये अपने पूर्ण शरीर की सहायता से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। इनके शरीर की रचना में निम्नलिखित तीन भाग होते हैं: १. शीर्ष, २. गर्दन तथा ३. शरीर की विभिन्न इकाइयाँ (खंड)।
१.����� शीर्ष (Scolex) - यह शरीर का अग्रिम भाग होता है, जो आँत्रों में अपने विभिन्न भागों की सहायता से चिपका रहता है। विभिन्न भाग निम्नलिखित हैं:
(क) चूषक - शीर्ष के ऊपर ये आकार में गहरे कटोरे की आकृति के होते हैं (देखें चित्र)।
(ख) तुंडक - यह शीर्ष के अग्र भाग में चोंच की तरह होता है।
(ग) अंकुशिका (hooklets) - ये एक या दो कतार में तुंडक के ऊपर होते हैं।
२.����� गर्दन - यह एक छोटा सा संकीर्णन (contriction) हैं, जो शीर्ष के पीछे होता है।
३.����� देहखंड (proglottid) - ये बहुत से होते हैं। प्रत्येक कृमि में इनकी संख्या भिन्न भिन्न होती है।
अंडा - इसके दो आवरण होते हैं: एक भ्रूण (ovum) और दूसरा अंडकवच, जिसे भ्रूणमर (Embryophore) कहते हैं।
डिंभक निम्नलिखित दो प्रकर के होते हैं:
१.����� पित्ताशय डिंभक - यह थैली (bladder) की तरह होता है और द्रव से भरा रहता है, इसकी भित्ति से शीर्ष आदि बनता है। किसी किसी डिंभक में संततिविताशय (daughter cyst) होता है।
२.����� ठोस डिंभक (Solid larva) - यह ठोस होता है और किसी द्रव से भरा नहीं होता। प्रतयेक कृमि में कुछ असमानता रहती है। इसका विशेष उल्लेख निम्नलिखित सारणी में दिया जा रहा है :
सेस्टोडा वर्ग के विभिन्न कृमियों का अंतर
पट्टकृमि |
टी. सेजिनाटा |
टी. नाना |
टी. सोलियम |
टी. इकोनोकॉकस |
डाइफिलोब्रॉथियम लेटम |
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भौगोलिक स्थान |
गोमांसाहारी देश |
भारत, अफ्रीका मिस्त्र एवं यूरोप |
शूकर मांसाहारी देश |
सभी देशों में भारत में भी यदाकदा |
यूरोप, अमरीका एवं जापान |
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शरीर के अंदर कृमि का स्थान |
छोटी आंत्र |
छोटी आंत्र |
छोटी आंत्र |
छोटी आंत्र |
छोटी आंत्र |
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शरीर के अंदर डिंभक का स्थान |
चवण पेशियाँ |
आँतों का रोमांकुर (विलाई, villi) |
जिह्वा, पेशियाँ यदाकदा मस्तिष्क एवं चक्षु |
जिगर, यदाकदा शरीर के अंदर |
साइक्लॉप्स (देहगुहा) मत्स्य (Fish) में पेशियाँ एवं आंत्रयुज |
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पोषक |
आवश्यक |
मनुष्य |
मनुष्य |
मनुष्य |
कुत्ता एवं उसकी जाति के जानवर |
मनुष्य एवं बिल्ली |
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अंत:स्थ |
गाय एवं बैल |
मनुष्य, यदाकदा मूषक |
शूकर, यदाकदा मनुष्य |
मनुष्य, गाय एवं शूकर |
पहला अंत:स्थ पोषक साइक्लोप्स, द्वितीय अंत:स्थ पोषक मत्स्य |
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कृमि की लंबाई (सेंटीमीटर में) |
३६० से १,२०० |
२ से ४ |
१५० से ६०० |
४ से ५ मिलीमीटर |
३,००० से ४०० |
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कृमि के खंडों की संख्या |
१,२०० से २,००० |
१७५ से २२५ |
८०० से ९०० |
३ से ५ |
३,००० से ४,००० |
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शीर्ष के विशेष भाग |
चूषक |
४ |
४ |
४ |
४ |
इसके सिर पर दो अनुदैर्ध्य चूषण खाँचे होते हैं |
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अंकुशिका |
नहीं होती |
२० से ३०, सब एक कतार में |
२६ से २८, दो कतारों में। |
३० से ४०, दो कतारों में। |
(two longitudinal suctorial grooves) |
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जीवन चक्र - इस वर्ग के कृमियों का जीवनचक्र विभिन्न परपोषियों में पूर्ण होता है। डाइफिलाब्रॉथियम लेटम कृमि में तीन, टीनिया नाना में एक एवं अन्य सभी में दो परपोषियों की आवश्यकता होती है। प्रौढ़ कृमि कशेरुकी की छोटी आँतों में रहता है एवं मध्यस्थ परपोषी (intermediate host) के शरीर में परजीवी अपनी डिंभक अवस्था में रहता है।
कशेरुकी की छोटी आंत्र से कृमि के अंडे एवं शरीर के खंड विष्ठा के साथ बाहर आ जाते हैं। इस विष्ठा को जब मध्यस्थ परपोषी खाता है, तब वह कृमि के अंडे एवं शरीर के खंड उसके साथ निगल जाता है। पेट में पाचनक्रिया द्वारा अंडों के आवरण गल जाते हैं और भ्रूण स्वतंत्र हो जाता है। पेट से ये भ्रूण आंत्रों मे आ जाते हैं।
चित्र. फीता कृमि
१ क. कृमि के सिर में चूषक, २ ख. सिर का हुक, ३ पूर्ण कृमि, ४ कुत्ते में पाया जानेवाला फीता कृमि, ५ वामन फीता कृमि तथा ६ डा. लेटम नामक कृमि का सिर।
ये बहुत ही सक्रिय होते हैं। भ्रूण अपनी अंकुशिकाओं की सहायता से आंत्रों में घुस जाता है और वहाँ से रुधिर की नलिकाओं द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पहुँच जाता है। भ्रूण निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचकर डिंभक अवस्था में बढ़ता है। इसकी अंकुशिकाएँ समाप्त हो जाती हैं और यह अपने को चारों ओर से एक आवरण द्वारा ढक लेता है। इस अवस्था को पुटीभूत (encysted) कहते हैं। इस आवरण में एक द्रव भरा रहता है, इसलिए इसका रूप ब्लैडर कृमि (bladder worm) की तरह का हो जाता है। इसका शीर्ष एवं अन्य भाग कोष्ठ भी भित्ति से बनते हैं। अब यह पुटीपुच्छक (cysticercus) कहलाता है। इसके पूर्ण डिंभक की अवस्था तक बढ़ने में २ से ६ माह तक लगते हैं।
जब मनुष्य पुटी-पुच्छक से संक्रमित (infected) कच्चा एवं अधपका मांस खाता है, तब मांस के साथ पुटीपुच्छक भी पेट में चले जाते हैं। पेट में पुच्छक की भित्ति गल जाती है और शीर्घ बाहर आ जाता है। शीर्ष बहिर्वलन (evagination) की विधि से आँतों की श्लेष्मकता (mucous membrane) में अपनी अंकुशिका और चूषक की सहायता से चिपक जाता है। अब ब्लैडर गल जाता है, तत्पश्चात् शीर्ष से शरीर के विभिन्न खंडों की उत्पत्ति होती है और शनै: शनै: कृमि प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त करता है। कृमि का जीवन कुछ दिवसों से लेकर एक वर्ष तक का होता है।
लक्षण - बहुत से कृमि तो बिना किसी विकार के उत्पन्न किए हुए मनुष्य की आँतों में रहते हैं। कभी कभी परपोषी उदर एवं आँतों के विकार संबंधी लक्षण बतलाता है, जैसे क्षुधा का कम लगना तथा पेट में दर्द होना। यह दर्द यदाकदा शूल की भाँति तीव्र होता है। अन्यथा धीमा, मीठा मीठा सा दर्द होता है। कभी कभी दस्त भी होने लगता है। बच्चों में सर दर्द एवं ऐंठन (convulsion) की शिकायत भी हो जाती है। पुरुषों में मन:श्रांति (neurasthenia) के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। डाइफिलोब्रॉथियम कृमि से रक्तक्षीणता हो जाती है। जब डिंभक मनुष्य के विभिन्न भागों में रहता है, तो उसके लक्षण उसी अंग के विकार से उत्पन्न होते हैं, जैसे जिगर का बढ़ जाना एवं फुफ्फुस और दिमाग में विकार पैदा कर देना।
निदान - ऊपर लिखे हुए लक्षणों के रहने पर आँतों में कृमि की उपस्थिति जानने के लिए निम्न परीक्षाएँ की जाती हैं :
१.����� विष्ठा में कृमि के अंडों एवं शरीर के विभिन्न खंडों की जाँच,
२.����� एक्सरे द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में डिंभक की उपस्थिति की जाँच,
३.����� रुधिर में इयोसिनोफिल (eosinophils) की वृद्धि की जाँच,
४.����� प्रतिरक्षात्मक अभिक्रिया (immunologic reaction) का प्रदर्शित होना।
उपचार - इसके उपचार में कई औषधियों को प्रयोग में ला सकते हैं, परंतु मुख्यत: उपयोगी औषधियाँ निम्नलिखित हैं :
१.����� फिलिसिस मैस (Filicis mas) - इसके सेवन के दो दिन पूर्व, व्रत रखकर बहुत हल्का भोजन करते हैं और सेवन के दिन ३०-३० मिनिम (minim) की चार मात्रा २० मिनिट के अंतर पर देते हैं। इसके पश्चात् जुलाब दिया जाता है और तत्पश्चात् विष्ठा की जाँच, विष्ठा को चलनी में छानकर कृमि के अंडे एवं शरीर के खंड के लिए की जाती है।
२.����� ऐटेब्रिन (Atebrin) - इसकी एक ग्राम मात्रा एक बार में ही दी जाती है।
३.����� जब रक्तक्षीणता होती है तब यकृतनिष्कर्ष (liver extract) देते हैं।
४.����� अगर टी. इकाइनोकॉकस का डिंभक मनुष्य के शरीर में होता है, तो उस व्याधि को उदकोष्ठि या हाइडैटिड सिस्ट (hydatid cyst) कहते हैं और इसका उपचार शल्य चिकित्सा द्वारा होता है।
रोगनिरोधन (Prophylaxis) - फीता कृमि के विकार से बचने का उपाय है, कच्चे एवं अधपके मांस का उपयोग न करना। पालतू कुत्ता एवं उसकी जाति के अन्य जानवरों से दूर ही रहा जाए तो अच्छा है। (हरिबाबू माहेवरी)