फ़ॉसिल या जीवाश्म विज्ञान भौमिकी की वह शाखा है जिसका संबंध भौमिकीय युगों के उन प्राणियों और पादपों के अवशेषों से है जो अब भूपर्पटी के शैलों में ही पाए जाते हैं। विज्ञान की इस शाखा के विकास के बहुत पहले से आदिमानव की जानकारी में यह था कि कुछ प्रकार के शैलों में एक विचित्र प्रकार के अवशेष पाए जाते हैं जो समुद्री जीवों के अनुरूप होते हैं। ज्ञान के अभाव में उसने पहले पहल इन अवशेषों को जैविक उत्पत्ति का न समझकर, प्रकृति के विनोद की सामग्री समझ रखा था, जो पृथ्वी के अंदर किसी शक्ति के कारण बन गए। परंतु शनै: शनै: ज्ञान की वृद्धि के साथ साथ मनुष्य को इस दिशा में भी अपने विचारों को बदलना पड़ा और उसने यह पता लगा लिया कि शैलों में पाए जानेवाले अवशेषों के प्राणी किसी न किसी समय में जीवत जीव थे और वह स्थान जहाँ पर हम आज इन जीवाश्मों को पाते हैं भौमिकीय युगों में समुद्र के गर्भ में था।
फ़ॉसिल विज्ञान की शाखाएँ और उनका क्षेत्र - फ़ॉसिल विज्ञान कई शाखाओं में विभक्त किया गया है। सुविधा की दृष्टि से अब यह निय सा बन गया है कि जब हम फ़ॉसिल विज्ञान शब्द का उपयोग करते हैं तब हमारा अभिप्राय केवल अकशेरुकी जीवों के फ़ॉसिलों के अध्ययन से होता है; फ़ॉसिल विज्ञान की जिस शाखा के अंतर्गत कशेरुक फ़ॉसिलों का अध्ययन किया जाता है उसे कशेरुकी जीवाश्म विज्ञान कहते हैं; पादप फ़ॉसिलों का अध्ययन एक भिन्न शाखा के अंतर्गत किया जाता है जिसे पादपाश्म विज्ञान (Palaeobotany) कहते हैं। आधुनिक समय में फ़ॉसिल विज्ञान की कुछ अन्य प्रमुख शाखाओं का भी विकास हुआ है, जिनके अध्ययन का क्षेत्र क्रमश: अति लघु जीव और फ़ॉसिल मानव हैं।
फ़ॉसिल विज्ञान का क्षेत्र बड़ा व्यापक है और उसकी सीमा निश्चित रूप से निर्धारित नहीं की जा सकती। यदि सैद्धांतिक दृष्टि से देखा जाए, तो फ़ॉसिल विज्ञान का अभ्युदय पृथ्वी पर जीव के प्रादुर्भाव के साथ साथ प्रारंभ हो जाता है, परंतु भौमिकीय आधार पर केवल इतना ही कहा सकता है कि पृथ्वी पर संपूर्ण जीव के इतिहास के आधे, या उससे भी कम के, जीवों के अभिलेख हमें मिलते हैं। फ़ॉसिल वैज्ञानिक अन्वेषणों का प्रारंभकाल ऐसे प्राचीनतम प्राप्य फ़ॉसिलों से किया जा सकता है जिनके जैविक गुण जैविकीय आधार पर बतलाए जा सकते हैं।
फ़ॉसिल विज्ञान की दूसरी सीमा और भी अनिश्चित है, क्योंकि यह निश्चित करना कि किस स्थान पर फ़ॉसिल विज्ञान जैविकी से पृथक् किया जा सकता है, प्राय: असंभव सा है, परंतु मोटे तौर से फ़ॉसिल का अंत और जैविकी का प्रारंभ अत्यंत-नूतन युग (pleistocene) और आधुनिक युग के संधिस्थान से ले सकते हैं। इस प्रकार से अनिश्चित और संदिग्ध कैंब्रियन-पूर्व महाकल्प प्राणी एवं पादपजात तथा वर्तमान काल के निश्चित तथा अनेक प्रकार के जीवों और पादपों के बीच में अनेक तथा विभिन्न प्रकार के जीव अवशेष मिलते हैं, जो जीव पर प्रकाश डालते हैं। भूपर्पटी के अवसादी शैलों में मिलनेवाले ये फ़ॉसिल ही, फ़ॉसिल विज्ञान के अध्ययन के आधार हैं।
फ़ॉसिल विज्ञान और भौमिकी - फ़ॉसिल विज्ञान का भौमिकी, विशेषकर स्तरित-शैल-भौमिकी, से अति घनिष्ठ संबंध है। अतीत काल के जीवों के अवशेष स्तरित शैलों में पाए जाते हैं। इन शैलों के निर्माण के विषय में और उनका अनुक्रम स्थापित करने में उनमें पाए जानेवाले फ़ॉसिल बहुत सहायक सिद्ध हुए हैं। वास्तव में बिना फ़ॉसिलों के स्तरित-शैल-भौमिकी, एक प्रकार से, व्यावहारिक फ़ॉसिल विज्ञान है।
फ़ॉसिल विज्ञान और जैविकी - फ़ॉसिल विज्ञान का जैविकी के साथ घनिष्ठ संबंध है। जैविकी के अंतर्गत वर्तमान जीवित प्राणियों और पादपों का अध्ययन किया जाता है, जब कि फ़ॉसिल विज्ञान में भौमिकीय युगों के उन जीवों और पादपों का अध्ययन किया जाता है जो कभी जीवित थे और अब फ़ॉसिल के रूप में ही प्राप्य हैं। लेकिन फ़ॉसिल विज्ञान को जैविकी की एक शाखा नहीं माना जा सकता है, क्योंकि फ़ॉसिल विज्ञान के अध्ययन की सामग्री और उसके संग्रह का ढंग जैविकी के अध्ययन की सामग्री और उसके संग्रह के ढंग से सर्वथा भिन्न हैं।
फ़ॉसिल विज्ञान और जातिवृत्त (Phylogeny) - जीवविज्ञानी फ़ॉसिल विज्ञान में इसलिए अत्यधिक अभिरुचि रखते हैं कि इसका जीवविकास जैसे विषय से निकट संबंध है। प्राणियों और पादपों की जातियों का इतिहास अथवा जातिवृत्त, स्तरित शैलों के अनुक्रमित स्तरों से प्राप्त किए फ़ॉसिलों के अध्ययन के आधार पर अधिक विश्वासपूर्वक अनुरेखित किया जा सकता है। परंतु जीवों के अपूर्ण अभिलेख के कारण उनके जातिवृत्त के अनुरेखन में अत्यधिक बाधा पड़ती है, क्योंकि भौमिकीय युगों में पाए जानेवाले प्राणियों और पादपों में से कुछ ही, और उनमें से अधिकांश अपूर्ण दशा में, इन शैलों में परिलक्षित पाए जाते हैं। अभिलेख की इस अपूर्णता के बावजूद अनेक जीववर्ग में, जब उनका अनुरेखन शैलों के एक स्तर से दूसरे स्तर में किया जाता है तब, शनै: शनै: परिवर्तन होने लगते हैं। जब फ़ॉसिलों के प्रतिरूप विभिन्न अनुक्रमित स्तरों से एकत्रित किए जाते हैं, तब प्रत्यक्ष रूप से दो भिन्न दिखाई पड़नेवाली जातियाँ बीच के फ़ॉसिलों द्वारा संबंधित दिखाई पड़ती हैं और निम्नतम स्तर में पाई जानेवाली जाति से लेकर उच्चतम स्तर में मिलनेवाली जाति तक के बीचवाले स्तरों के फ़ॉसिलों के जीवों में हुए परिवर्तनों को देखा जा सकता है।
फ़ॉसिलों से जातिवृत्त का पता लगाने के लिए, स्तरीय रीति के अतिरिक्त शारीर तथा व्यतिवृत्त (ontogeny) की तुलनात्मक रीतियों का भी प्रयोग किया जा सकता है। अत: फ़ॉसिल विज्ञान इस धारणा की पुष्टि करता है कि जीवविकास शनै: शनै: तथा क्रमश: होनेवाले परिवर्तनों के परिणामस्वरूप हुआ। इस बात के बताने का भी प्रमाण है कि जीव विकास नियतविकासीय (orthogenetic) था। कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ जीवों के वर्ग में जीवविकासीय परिवर्तन युग युगांतर तक किसी निश्चित दिशा में हुए और इसके अतिरिक्त ऐसे संबद्ध वर्ग जो एक ही पैतृक उत्पत्ति के हैं, एक दूसरे से तथा बाह्य दशाओं से बिना प्रभावित हुए, अपने विकास में समान अवस्थाओं अथवा उससे मिलती जुलती अवस्थाओं में से गुजरे, जिससे यह प्रकट हो जाता है कि जीवों के विभिन्न वर्गों में विकास की दिशा, सर्वसाधारण पूर्वज से पैतृक गुणों द्वारा निश्चित हो जाती है।
फ़ॉसिल विज्ञान और भ्रौणिकी (Embryology) - जीवित पादपों और प्राणियों का एककोशिका अंडे से ले करके अंतिम दशा तक विकास की संपूर्ण अवस्थाओं का अनुरेखन करना, भ्रौमिकी और जीववृत्ति के अंतर्गत आता है। किसी वर्ग के पादपों और प्राणियों की जातियों का विकास, कम से कम अपनी प्रारंभिक अवस्थाओं में लगभग समान होता है और एक वर्ग के अंतर्गत आनेवाले संपूर्ण भ्रूणों में, किसी एक अवस्था तक एक दूसरे में इतनी सदृश्यता होती है वे पृथक् नहीं किए जा सकते। इस तथ्य ने उन आकारों में अत्यधिक बंधुत्व प्रगट किया है, जो प्रौढ़ावस्था में एक दूसरे से अत्यधिक भिन्न होते हैं। इस बात की वास्तविकता कशेरुकियों में देखने को मिलती है, जिनके भ्रूण प्रारंभिक अवस्थाओं में अति कठिनाई के साथ एक दूसरे से अलग किए जा सकते हैं और जो बहुत धीरे धीरे अपने वर्ग अथवा गण की लाक्षणिक आकृतियों को धारण कर लेते हैं।
इन भ्रूणीय अन्वेषणों के परिणामों का फ़ॉसिल विज्ञान के साथ विशेष संबंध है। ऐसे अनेक फ़ॉसिल जानकारी में हैं जो अपने में अपने से संबंधित आधुनिक जीवों की तुलना में भ्रूणीय, अथवा कम से कम डिंभीय, अथवा किशोरावसा के लक्षण दिखाते हैं। इसप्रकार के आदिम आवा भ्रूणीय प्रकारों के उदाहरण कशेरुकों में विशेष करके देखने को मिलते हैं, क्योंकि इनमें कंकाल जीवन के अति प्रारंभिक काल ही में अश्मीभूत हो जाते हैं। अत: आधुनिक जीवों की अप्रौढ़ अवस्थाओं की तुलना सीधे प्रौढ़ फ़ॉसिल से की जा सकती है।
फ़ॉसिल या जीवाश्म - जीवाश्म को अंग्रेजी में फ़ॉसिल कहते हैं। इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द 'फ़ॉसिलस' से है, जिसका अर्थ 'खोदकर प्राप्त की गई वस्तु' होता है। सामान्य: जीवाश्म शब्द से अतीत काल के भौमिकीय युगों के उन जैव अवशेषों से तात्पर्य है जो भूपर्पटी के अवसादी शैलों में पाए जाते हैं। ये जीवाश्म यह बतलाते हैं कि वे जैव उद्गम के हैं तथा अपने में जैविक प्रमाण रखते हैं।
प्राणियों और पादपों के जीवाश्म बनने के लिए दो बातों की आवश्यकता होती है। पहली आवश्यक बात यह है कि उनमें कंकाल, अथवा किसी प्रकार के कठोर अंग, का होना अति आवश्यक है, जो जीवाश्म के रूप में शैलों में परिरक्षित रह सकें। जीवों के कोमलांग अति शीघ्र विघटित हो जाने के कारण जीवाश्म दशा में परिरक्षित नहीं रह सकते। भौमिकीय युगों में पृथ्वी पर ऐसे अनेक जीवों के समुदाय रहते थे जिनके शरीर में कोई कठोर अंग अथवा कंकाल नहीं था अत: फ़ॉसिल विज्ञानी ऐसे जीवों के समूहों के अध्ययन से वंचित रह जाते हैं, क्योंकि उनका कोई अंग जीवाश्म स्वरूप परिरक्षित नहीं पाया जाता, जिसका अध्ययन किया जा सके। अत: जीवाश्म विज्ञान क्षेत्र उन्हीं प्राणियों तथा पादपों के वर्गों तक सीमित है जो फ़ॉसिल बनने के योग्य थे। दूसरी आवश्यक बात यह है कि कंकालों अथवा कठोर अंगों को क्षय और विघटन से बचने के लिए अवसादों से तुंरत ढक जाना चाहिए। थलवासी जीवों के स्थायी समाधिस्थ होने की संभावना अति विरल होती है,
चित्र १.
चित्र में क्रमश: पृथ्वी का अपक्षरण तथा
सागरतल पर मिट्टी के स्तरों का निक्षेप बनाना
दाब के कारण, ये निक्षेप शिला में परिवर्तित
हो जाते हैं और इन शिलाओं में स्तरों के
बनने के समय वर्तमान, प्रारंभिक जीवों के
कंकाल, कवच आदि सुरक्षित रीति से बंद रह
जाते हैं।
क्योंकि स्थल पर ऐसे बहुत कम स्थान होते हैं जहाँ पर अवसाद सतत बहुत बड़ी मात्रा में संचित होते रहते हों। बहुत ही कम परिस्थितियों में थलवासी जीवों के कठोर भाग बालूगिरि के बालू में दबने से अथवा भूस्खलन में दबने के कारण परिरक्षित पाए गए हों। जलवासी जीवों के फ़ॉसिल होने की संभावना अत्यधिक अनूकूल इसलिए होती है कि अवसादन स्थल की अपेक्षा जल में ही बहुत अधिक होता है। इन जलीय अवसादों में भी, ऐसे जलीय अवसादों में जिनका निर्माण समुद्र के गर्भ में होता है, बहुत बड़ी संख्या में जीव अवशेष पाए जाते हैं, क्योंकि समुद्र ही ऐसा स्थल है जहाँ पर अवसादन सबसे अधिक मात्रा में सतत होता रहता है।
विभिन्न वर्गों के जीवों और पादपों के कठोर भागों के आकार और रचना में बहुत भेद होता है। कीटों तथा हाइड्रा (hydra) वर्गों में कठोर भाग ऐसे पदार्थ के होते हैं जिसे काइटिन कहते हैं, अनेक स्पंज और डायटम (diatom) बालू के बने होते हैं, कशेरुकी की अस्थियों में मुख्यत: कैल्सियम कार्बोनेट और फ़ॉस्फेट होते हैं, प्रवालों (coral), एकाइनोडर्माटा (Echinodermata), मोलस्का (mollusca) और अनेक अन्य प्राणियों में तथा कुछ पादपों में कैल्सियम कार्बोनेट होता है और अन्य पादपों में अधिकांशत: काष्ठ ऊतक होते हैं। इन सब पदार्थों में से काइटिन बड़ी कठिनाई से घुलाया जा सकता है। बालू, जब उसे प्राणी उत्सर्जिंत करते हैं, तब बड़ा शीघ्र घुल जाता है। यही कारण है कि बालू के बने कंकाल बड़े शीघ्र घुल जाते हैं। कैल्सियमी कंकालों में चूने का कार्बोनेट ऐसे जल में, जिसमें कार्बोनिक अम्ल होता है, अति शीघ्र घुल जाता है, परंतु विलेयता की मात्रा चूने के कार्बोनेट की मात्रा के अनुसार भिन्न भिन्न होती है। चूर्णीय कंकाल कैल्साइट (calcite) अथवा ऐरेगोनाइट (aragonite) के बने होते हैं। इनमें से कैल्साइट के कवच ऐरेगोनाइट के कवचों की अपेक्षा अधिक दृढ़ और टिकाऊ होते हैं। अधिकांश प्राणियों के कवच कैल्साइट अथवा ऐरेगोनाइट के बने होते हैं।
अवसादी शैलों में परिरक्षित जीवाश्म निम्न प्रकार के होते हैं :
(1) संपूर्ण परिरक्षित प्राणी - ऐसा बहुत विरल होता है कि बिना किसी प्रकार के विघटन के किसी प्राणी का जीवाश्म प्राप्त हो, किंतु ऐसे परिरक्षित जीवाश्म के उदाहरण मैमथ और राइनोसिरस के जीवाश्म हैं, जो टुंड्रा के हिम में जमे हुए पाए गए हैं।
(2) प्राय: अपरिवर्तित दशा में परिरक्षित पाए जानेवाले कंकाल - कभी कभी जब शैलों में केवल कंकाल ही परिरक्षित पाया जाता है तब यह देखा गया है कि वह अपनी पहले जैसी, तब की अवस्था में है जब वह समाधिस्थ हुआ था। परिवर्तन केवल इतना होता है कि फ़ॉसिल दशा में कंकाल से कार्बनिक द्रव्यों का लोप हो जाता है।
(3) कार्बनीकरण - कुछ पादपों और कुछ प्राणियों में, जैसे ग्रैप्टोलाइट (graptolite), जिनमें कंकाल काइटिन का बना होता है, मूल द्रव्य कार्बनीकृत हो जाता है। जीव में अघटन होता है, जिसके फलस्वरूप ऑक्सीजन और नाइट्रोजन का लोप हो जाता है और कार्बन रह जाता है।
(4) कंकालों का साँचा - कभी कभी कंकाल या कवच विलीन हो जाते हैं और उनके स्थान पर उनका केवल साँचा रह जाता है। यह इस प्रकार होता है कि कवच के अवसाद से ढक जाने के उपरांत, कवच का आंतरिक भाग भी अवसादवाले द्रव्य से भर जाता है। इसके उपरांत कार्बोनिक अम्ल मिश्रित जल, शैल में रिसता हुआ उस स्थान तक पहुँच जाता है जहाँ पर कवच गड़ा हुआ रहता है और उसे कैल्सियम के बाइकाबोनेट के रूप में पूर्णत: विलीन कर देता है। इसके परिणामस्वरूप कवच के स्थान पर कवच के आंतरिक और बाह्य आकार का केवल एक साँचा देखने को मिलता है। इन दोनों के बीच के स्थान में मूलत: कवच था और यदि यह स्थान मोम से भर दिया जाए तो कवच का यथार्थ साँचा मिल जाता है।
(5) अश्मीभवन (Petrification) - कभी कभी फॉसिलों में उन जीवों के, जिनके ये फॉसिल हो गए हैं, सूक्ष्म आकार तक देखने को मिलते हैं। अंतर केवल इतना होता है कि कंकालों का मूल द्रव्य किसी खनिज द्वारा प्रतिस्थापित हो जाता है। इस क्रिया को अश्मीभवन कहते हैं। अश्मीभवन का अति उत्तम उदाहरण अश्मीभूत काष्ठ हैं जो देखने में बिल्कुल वैसे ही दिखलाई पड़ते हैं जैसा जीवित पादपों का काष्ठ होता है (देखें फलक)। यह परिवर्तन इस प्रकार होता है कि जब आदिकाष्ठ का एक कण हटता है तब उसके स्थान पर तुरंत बालू अथवा अन्य किसी खनिज का एक कण आ जाता है, जिससे काष्ठ का आदि आकार ज्यों का त्यों बना रहता है।
इस विधि से मूल द्रव्य को हटानेवाले मुख्य खनिज ये हैं : (१) कैल्सियम का कार्बोनेट, (२) बालू, (३) लोहमाक्षिक, (४) लोह ऑक्साइड और (५) कभी कभी कैल्सियम का सल्फेट आदि।
(6) चिह्न - कभी कभी जीव जंतुओं के पादचिह्न बिल, छिद्र आदि शैलों में पाए जाते हैं। यद्यपि ये जीवजंतुओं के कठोर अंगों के कोई भाग नहीं हैं और इसलिए इनको फॉसिल नहीं कहा जा सकता, फिर भी ये उतने ही महत्व के समझे जाते हैं जितने फॉसिल।
जीवाश्मों के उपयोग निम्नलिखित हैं :
(१) शैलों के सहसंबंध (correlation) में जीवाश्मों का उपयोग - वे जीव जो आज हमें जीवाश्म के रूप में मिलते हैं, किसी भौमकीय युग के किसी निश्चित काल में अवश्य ही रहे होंगे। अत: वे हमारे लए बड़े महत्व के हैं। विलियम स्मिथ और क्यूव्ये महोदय के, जो स्तरित भौमिकी के जन्मदाता हैं, समय से ही यह बात भली भाँति विदित है कि अवसादी शैलों में पाए जानेवाले जीवाश्मों और उनके भौमिकीय स्तंभ (column) के स्थान में एक निश्चित संबंध है। यह भली भाँति पता लग चुका है कि शैलें जितनी अल्पायु होंगी उतना ही उनमें प्राप्त प्राणी विभिन्न प्रकार के और पादपसमुदाय जटिल होगा, और वे जितनी दीर्घायु होंगी उतना ही सरल और साधारण उनका जीवाश्मसमुदाय होगा। अत: शैलों का स्तरीय स्थान निश्चय करने में जीवाश्मों का प्रमुख स्थान है और वे बड़े महत्व के सिद्ध हुए हैं।
कैंब्रियनपूर्व के प्राचीन शैलों में जीवाश्म नहीं पाए जाते। अत: जीवाश्मों के अभाव में जीवाश्मों की सहायता से इन शैलों का सहसंबंध नहीं स्थापित किया जाता है। कैंब्रियन से लेकर आज तक के भौमिकीय स्तंभ के समस्त भागों के प्राणी और पादपों का पता लगा लिया गया है। अत: पृथ्वी के किसी भी भाग में इन भागों के सम भागों का पता लगाना अब अपेक्षया सरल है।
(२) जीवाश्म प्राचीन काल के भूगोल के सूचक - पुराभूगोल के अंतर्गत, प्राचीन काल के स्थल और समुद्र का विस्तरण, उस काल की सरिताएँ, झील, मैदान, पर्वत आदि आते हैं। किसी विशेष वातावरण के अनुसार ही जीव अपने को स्थित के अनुकूल कर लेते हैं, यह बात जितनी सच्ची आधनिक समय में है उतनी ही सच्ची अतीत के भौमिकीय युगों में भी थी। अत: जीवाश्मों की सहायता से हम यह पता लगा सकते हैं कि किस स्थान पर डेल्टा, पर्वत, नदी, समुद्रतट, छिछले अथवा गहरे समुद्र थे, क्योंकि स्थल में रहनेवाले जीव, जलवाले जीवों से और जल में रहनेवाले जीवों में अलवण जलवासी जीव लवण जलवासी जीवों से सर्वथा भिन्न होते हैं।
(३) जीवाश्म पुराजलवायु के सूचक - जीवाश्मों की सहायता से भौमिकीय युगों की जलवायु के विषय में भी किसी सीमा तक अनुमान लगाया जा सकता है। इस दिशा में स्थल पादपों द्वारा प्रदान किए गए प्रमाण विशेष महत्व के होते हैं, क्योंकि उनका विस्तरण समुद्री जीवों की अपेक्षा अधिकांशत: ताप के अनुसार होता है और वे सरलतापूर्वक जलवायुश् के अनुसार भिन्न भिन्न भागों में पृथक् किए जा सकते हैं। समुद्री जीवों में कुछ का विस्तरण जलवायु की दशाओं के अनुसार होता है, जैसे प्रवाल, जो गरम जलवायु में रहते हैं।
(४) जीवाश्म जीवविकास के सूचक - जीवाश्मों ने जीवविकास के सिद्धांत पर बहुत प्रकाश डाला है और बिना जीवाश्मों की सहायता के जीवविकास का अनुरेखण करना असंभव सा है।
जीवाश्म संग्रह का उद्देश्य - जीवाश्मों का संग्रह जीवाश्मीय तथा स्तरित शैल विज्ञान दोनों की दृष्टि से किया जाता है। जीवाश्मों के संग्रह के समय निम्नलिखित बातों का सदैव ध्यान रखना चाहिए :
(१) यदि भौमिकीय रचना का अल्पजीवाश्मीय हो तो सब जीवाश्मों का संग्रह करना चाहिए, चाहे वे पूर्ण हों अथवा खंडमय। (२) यदि जीवाश्मों का निकालना असंभव न हो तो कभी भी पूर्ण जीवाश्मों को छोड़ न देना चाहिए। उन्हें सुगमता से निकाल लेना चाहिए। (३) ऐसा खंडमय जीवाश्म, जिसमें सविस्तार आकारकीय लक्षण मिलते हों उन अनेक पूर्ण जीवाश्मों से कहीं अधिक महत्व का है, जिनमें आकारकीय लक्षणों का अभाव हो। (४) कभी भी क्षेत्र में जीवाश्मों को पहचानने का प्रयत्न न करना चाहिए। (५) यदि जीवाश्मों का संग्रह स्तरित-शैल-विज्ञान की दृष्टि से किया गया हो तो अलग अलग प्रत्येक रचना से जीवाश्मों का संग्रह आवश्यक है।
जीवाश्म के स्तरित शैलविज्ञानीय स्थान का महत्व - यह निश्चय करना बड़ा महत्वपूर्ण है कि जीवाश्म किस स्तर से संग्रहीत किए गए हैं, क्योंकि बिना यह मालूम किए जीवाश्मों का संग्रह प्राय: अर्थहीन सा हो जाता है। इसका निश्चय सुगमता के साथ जीवाश्मसंग्रह के समय किया जा सकता है। जीवाश्मों के संग्रह के साथ साथ शैलीय रचनाओं के मुख्य मुख्य और विशिष्ट लक्षणों को भी लिख लेना चाहिए।
जीवाश्मसंग्रह के विषय में कुछ प्रमुख बातें - जीवाश्मसंग्रह में जीवाश्म विज्ञानी के लिए एक हल्का हथौड़ा, छेनी, छोटी-छोटी थैलियाँ और रद्दी कागज बड़े उपयोगी होते हैं।
यदि बड़े बड़े जीवाश्मों की खोज हो, तो सबसे पहले ऋतुक्षरित स्तरों की ओर ध्यान देना चाहिए। यदि जीवाश्म यहाँ नहीं दिखाई पड़ते, तो हाल ही में भंग हुए आधार में पाए जाने की संभावना रहती है। यदि कोई जीवाश्म कठोर शैल में लगा हुआ दिखाई पड़े, तो एकाएक निकालने का प्रयास न करना चाहिए बल्कि उसके आसपास के स्थान में दरारों का पता लगा लेना चाहिए। इन दरारों से शैल के वह भाग आसानी से तोड़े जा सकते हैं जिनमें जीवाश्म लगे हुए हैं। इस प्रकार से जीवाश्मों के निकालते समय इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहए कि शैल पर हथौड़ा, जीवाश्म से जितनी दूर संभव हो, चलाना चाहिए। ऐसा करने से जीवाश्म के टूटने की संभावना कम हो जाती है और शैल सहित जीवाश्म अलग हो जाता है।
यदि फोरैमिनीफेरा (Foraminifera) जैसे छोटे जीवाश्मों का संग्रह करना है, तो इनका एक एक करके संग्रह करना स्पष्टत: असंभव सा है। ऐसी दशा में आबद्ध शैलों, अथवा शैल नमूनों का ही संग्रह करना उचित होगा। इस प्रकार से लाई गई सामग्री बाद में प्रयोगशाला में संकलन की जाती है और उसको एक हस्त लेंस से देखने पर उसमें अनेक लघु जीवाश्म दिखाई पड़ते हैं, जिनको चलनियों की सहायता से आधार से अलग कर सकते हैं।
क्षेत्र में जीवाश्मों के संग्रह के उपरांत प्रत्येक जीवाश्म के साथ एक लेब (label) लगा देना चाहिए, जिसमें दो बातों का उल्लेख बड़ा आवश्यक होता है : (१) वह यथार्थ स्तर, जिससे जीवाश्म लिया गया है और (२) स्थान का नाम, जहाँ से जीवाश्म का संग्रह किया गया है। ऐसा करने के उपरांत जीवाश्म को रद्दी कागज में लपेटकर और डोरे से बाँधकर प्रयोगशाला में लाना चाहिए।
शैल आधार से जीवाश्म के पृथक्करण की विधि - शैल आधार से जीवाश्म निकालने की विधि एक प्रकार की कला है। इस वषय में कोई पक्के नियम नहीं बतलाए जा सकते, क्योंकि भिन्न भिन्न प्रकार की समस्याएँ सामने आती हैं। किस विधि से और कैसे जीवाश्म को प्रस्तर से अलग किया जा सकता है, इसको एक अनुभवी जीवाश्म विज्ञानी जीवाश्म को देखकर समझ लेता है। जिन शैल आधारों में जीवाश्म खचित रहते हैं वे मृदु मृदा से लेकर सघन शैल तक होते हैं, जिनकी कठोरता इस्पात के बराबर हो सकती है। जीवाश्म की कठोरता की सीमा में इतना अधिक अंतर नहीं होता। जीवाश्म निकालते समय जीवाश्म विज्ञानी का यह ध्येय होता है कि जीवाश्म को बिना किसी प्रकार क्षति पहुँचाए शैल से पृथक् कर दे।
यदि आधार जीवाश्म की अपेक्षा मृदु प्रकृति का है, तो उसे सुगमतापूर्वक एक ब्रुश की सहायता से हटा सकते हैं। यदि जीवाश्म अबद्ध चूनापत्थर में खचित पाए जाते हैं, तो उसे भी हम दाँत साफ करनेवाले ब्रुश की सहायता से अलग कर सकते हैं। यदि शैल आधार चाक प्रकृति का है तो दंत उपकरण में भ्रमित ब्रुश की सहायता से उसे अलग कर सकते हैं।
अन्य अवसरों पर जब जीवाश्म भंगुर हो और बड़ी दृढ़ता के साथ शैल के आधार में जुड़े हों तब हथौड़े मार मारकर जीवाश्मों का अलग करना कठिन होता है। ऐसी दशा में प्रस्तर को कई बार गरम करके तुंरत पानी में डाल देने से, जीवाश्मों का प्रस्तर से अलगाव सरलता से हो जाता है। बालू और अन्य चूनेदार शैलों स फोरैमिनीफेरा जैसे जीवाश्मों के निकालने में, शैल को पहले तोड़ लेते हैं और फिर उसको कई प्रकार की चलनियों में छान लेते हैं। इसमें जीवाश्म शैल भाग से अलग हो जाते हैं। जब शैल कठोर होते हैं तब दूसरा ढंग उपयोग में लाया जाता है। शैल को छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़ लेते हैं और फिर उनको इतना गर्म करते हैं कि वे पूर्णत: सूख जाएँ और फिर उनको इसी गर्म अवस्था में ही ठंडे पानी में डाल देते हैं। इस प्रकार से कठोर मृदा कीच में अपविघटित हो जाती है और फिर अंत में जीवाश्मों को प्रस्तर भाग से धो करके अलग कर लेते हैं।
जब यांत्रिक रीतियों से जीवाश्मों का पृथक्करण संभव नहीं होता तब रासायनिक विधियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं। इनमें सबसे सरलतम ऋतुक्षरण की विधि है, जो बहुत सी दशाओं में बिना जीवाश्मों को किसी प्रकार हानि पहुँचाए हुए शैल आधार को अपघटत कर देता है। बहुत ही तनु अम्ल के उपयोग में लाने से यह क्रिया शीघ हो जाती है। यहाँ यह बतला देना ठीक होगा कि अम्ल का प्रयोग बड़ी सावधानी के साथ करना चाहिए, क्योंकि अधिकांश जीवाश्मों के पंजर चूनेदार होते हैं और उनपर अम्ल का प्रभाव तुरंत होता है।
साधारणत: कॉस्टिक पोटाश ठीक प्रकार का अभिकारक है, जिसका बिना किसी भय के उपयोग कर सकते हैं। इसके छोटे छोटे कणों को सूखी अवस्था में उस सारे शैल आधार पर डाल देते हैं जिसे हटाना होता है। चूँक कॉस्टिक पोटाश प्रस्वेद्य (deliquescent) प्रकृति का होता है। अत: यह आधार के अंदर प्रविष्ट कर जाता है और उसको अपघटित कर देता है। यह एकिनोडर्मा (Echinoderma), अथवा मोलस्क, को कोई क्षति नहीं पहुँचाता। ब्रैकियोपोडा (Brachiopoda) में इसका उपयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह इनके परतदार पंजरों में सुगमतापूर्वक प्रविष्ट कर जाता है, जिसके कारण इनकी परतें अलग हो जाती हैं। अंत में जीवाश्मों को अच्छी प्रकार जल से धो डालना चाहिए।
शेल (shale) जैस शैलों में परिरक्षित ग्रैप्टोलाइट (graptolite) और पादप जीवाश्म का पृथक्करण 'स्थानांतरण विधि' से किया जाता है। इस पृथक्करण की मुख्य मुख्य बातें निम्नलिखित हैं :
(१) नमूने क वह तल, जिसमें जीवाश्म है, नीचे करके कैनाडा बालसम की सहायता से काच की स्लाइड में चिपका देते हैं।
(२) शेल का जितना भाग सुगमता से काटा या घिसा जा सकता हो उसे काट अथवा घिस लेते हैं।
(३) शेल तल को भिगो लेते हैं और फिर उसको पिघले हुए मोम में डुबा देते हैं। मोम आर्द्र तल से सुगमता से पृथक् हो जाता है और काच पर कोई रासायनिक क्रिया नहीं होने देता।
(४) शेल युक्त संपूर्ण जीवाश्म को हाइड्रोफ्लोरिक अम्ल के अम्लतापक (acid bath) में रख देते हैं। यह जीवाश्म को तनिक भी क्षति पहुँचाए बिना शेल भाग को गला देता है।
(५) धोने के उपरांत पादप अथवा ग्रैप्टोलाइट जीवाश्म को कवर ग्लास से ढँक देना चाहिए।
इस प्रकार से निकाले गए ग्रैप्टोलाइट और कुछ पादप जैसे कोमल जीवाश्मों के आधुनिक जीवों की भाँति सूक्ष्मदर्शी की सहायता से परिच्छेद बनाए जा सकते हैं। कठोर जीवाश्मों के भी परिच्छेद घिस करके बनाए जा सकते हैं। इसमें घिसते समय नियमित अवधियों पर फोटों लेना पड़ता है। इस विधि में सबसे बड़ा दोष यह है कि जिस जीवाश्म का परीक्षण इस विधि से किया जाता है वह नष्ट हो जाता है।
जीवाश्मों के पृथक्करण की उपर्युक्त विधियों के अतिरिक्त ब्रैकियोपोडा के बाहुकुंतलों (brachial spiral) के अनुरेखन के लिए कुछ विशेष विधियाँ होती हैं। इन विधियों से ट्राइलोबाइटीज़ (Trilobites), ऐमोनाइटीज़ (Ammonites) और एकाइनोडरमीज़ में सीवनरेखा का अनुरेखन भी अति महत्व का कार्य है। यह किसी प्रकार के अभिरजंन की सहयता से विशिष्ट बनाया जा सकता है। भारतीय मसि इस कार्य के लिए उत्तम है।
नामपद्धति और वर्गीकरण - जीवाश्मों को निश्चित नाम देना जीवाश्म विज्ञानी के लिए इसलिए महत्व का है कि जीवाश्मों में वह अधिक यथार्थ विभेद कर सके। जीवाश्मों का नामकरण सामान्यत: उन्हीं सिद्धांतों पर आधारित है जिनपर प्राणियों का। प्राणिजगत् अनेक संघों में विभक्त है और प्रत्येक संघ अनेक वर्गों, गणों, कुलों, वंशों और जातियों में विभक्त है (देखें प्राणिविज्ञान)।
जीवाश्मों के कई प्रकार के प्ररूप होते हैं। यदि अन्वेषक किसी जाति के जीवाश्म के एक प्रतिरूप के आधार पर उस संपूर्ण जाति का वर्णन करता है, तो वह जीवाश्म प्रतिरूप उस जाति का नाम प्ररूप (Holotype) कहलाता है।
यदि किसी एक के नामप्ररूप का निश्चय करने में अन्वेषक अन्य जीवाश्म नमूनों की सहायता लेता है, तो इन अतिरिक्त नमूनों को पैराटाइप (Paratype) कहते हैं।
यदि अन्वेषक बिना नामप्ररूप का निश्चय किए ही कई अन्य जीवाश्म नमूनों की सहायता लेता है, तो इन जीवाश्म नमूनों को सहप्ररूप (Cotype) कहते हैं।
यदि किसी जाति के जीवाश्म का सहप्ररूप उस जाति के प्रारंभिक वर्णन के पश्चात् की उस जाति का प्रारूप चुन जाता है, तो वह जीवाश्म प्ररूप लेक्टोटाइप (Lectotype) कहलाता है।
जिस प्रकार एक जाति के वर्णन के लिए जीवाश्म नमूने होते हैं उसी प्रकार एक वंश के वर्णन के लिए प्ररूप जाति अथवा समजीनी (genotype) जीवाश्म होते हैं।
यदि कोई अन्वेषक किसी एक नए वंश का वर्णन किसी एक विशेष जाति के आधार पर करता है, तो वह जाति उस वंश के लिए जेनोहोलोटाइप (genoholotype) हो जाती है।
यदि अन्वेषक नए वंश के वर्णन में ऐसी जातियों की सूची दे देता है जिनको वह यह समझता है कि वे नए वंश के अंतर्गत आते हैं, तो इन सब जातियों को जेनोसिनटाइप कहते हैं।
बहुत से जेनोसिनटाइपों में से बाद में आदि अन्वेषक द्वारा अथवा बाद में किसी अन्य अन्वेषक द्वारा एक जेनोलेक्टोटाइप (genolectotype) छाँटा जा सकता है।
भौमिकीय काल पाँच बृहत् भागों में बँटा हुआ है। ये क्रमश: आर्कियोजोइक महाकल्प (Archeozoic Era), प्राग्जीव महाकल्प-(Proterozoic Era), पुराजीवी महाकल्प (Paleozoic Era), मध्यजीवी महाकल्प (Mesozoic Era) और नूतनजीव महाकल्प (Cenozoic Era) हैं, जिनमें आर्कियोज़ोइक महाकल्प सबसे प्राचीन है। भौमिकीय काल के इन पाँच महाकल्पों में विभाजन मुख्यत: इन महाकल्पों में मिलनेवाले प्राणियों और पादपों के जीवाश्मों पर ही आधारित है। इनमें से आर्कियोज़ोइक महाकल्प जीवशून्य था। इस महाकल्प में न किसी प्रकार के जीवजंतु और न पौधे ही थे। अत: इस काल के शैलों में हमको किसी भी प्रकार के जीवाश्म नहीं मिलते हैं। प्राग्जीव महाकल्प में प्रोटोज़ोआ जैसे अति साधारण प्रकार के जीवजंतु अस्तित्व में आए। परंतु इन साधारण जीवों में किसी भी प्रकार के कड़े भाग के अभाव के कारण वे शैलों में परिरक्षित न हो सके। अत: प्राग्जीव महाकल्प के शैलों में भी जीवाश्म नहीं मिलते। अन्य तीनों महाकल्प, अर्थात् पुराजीवी महाकल्प (Palaeozoic) मध्यजीवी महाकल्प (Mesozoic) और नूतनजीवी महाकल्प (Cenozoic) जीवाश्ममय हैं। इन महाकल्पों के अंतर्गत आनेवाले जितने भी छोटे से लेकर बड़े तक विभाजन हैं वे सब पूर्णत: उस काल में पाए जानेवाले जीवों के जीवाश्म पर ही आधारित हैं। अत: हम देखते हैं कि स्तरित शैलविज्ञानी का काम बिना जीवाश्म विज्ञान की सहायता के नहीं चल सकता। यही कारण है कि जीवाश्म विज्ञान स्तरित शैलविज्ञान का मेरुदंड कहलाता है।
मोटे तौर पर जीवाश्म विज्ञान के अधार पर निम्नलिखि चार मुख्य प्राणी तथा पादप जातीय महाकल्प स्थापित किए जा सकते हैं :
(१) पूर्व पुराजीवी महाकल्प - इसके अंतर्गत कैंब्रियन (cambrian), ऑर्डोविशन (ordovician) और सिल्यूरियन (silurian) कल्प आते हैं।
(२) उत्तर पुराजीवी महाकल्प - इसके अंतर्गत डियोनी (devonian), कार्बनी (carboniferous) और परमियन कल्प आतें हैं।
(३) मध्यजीवी महाकल्प
(४) नूतनजीव महाकल्प - अभिनव काल भी इसके अंतर्गत है।
१. पूर्व पुराजीवी महाकल्प के प्राणी - प्राय: सब प्रमुख अकशेरुकी प्राणियों के प्रतिनिधि जीवाश्म कैंब्रिन स्तरों में पाए जाते हैं और उनमें से ट्राइलोबाइट जैसे कुछ प्राणी आदिक्रैंब्रियन काल में ही अपेक्षया अधिक विकसित हो चुके थे। अत: यह धारण कि कैंब्रियन स्तरों में पाए जानेवाले सब वर्गों के पूर्वज कैंब्रियन पूर्व काल में पाए जाते थे, बिलकुल उचित है, यद्यपि उनके अवशेष कैंब्रियन पूर्व शैलों में नहीं मिलते। यह कल्पना की जा सकती है कि कैंब्रियनपूर्व समुद्रों में सब प्रकार के प्राणी रहते थे, परंतु वे सब कोमलांगी पूर्वज थे, जिन्होंने अपने अस्तित्व के विषय में किसी भी प्रकार के च्ह्रि नहीं छोडें हैं। चूँकि सब प्रकार के प्राणी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पौधों पर निर्भर रहते हैं और पौधों में ही केवल अकार्बनिक खाद्य पदार्थ के परिपाचन की शक्ति होती है, अत: यह भी धारणा उचित प्रतीत होती है कि कैंब्रियन पूर्व काल में पौधे अस्तित्व में थे। परंतु यह आश्चर्य की बात है कि पौधों के अवशेष पुराजीवी महाकल्प के स्तरों में नहीं पाए गए हैं।
पूर्वपुराजीवी महाकल्प के प्राणीजगत् के मुख्य लक्षणों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :
(क) पौधों का अभाव था।
(ख) कशेरुकियों का भी अधिकांश रूप में अभाव रहा। यह अकशेरुकियों का युग था।
(ग) आर्थोपोडा - इसमें टाइलोबाइट की अति प्रचुरता थी। अधिकांशत: ये उथले जलवासी थे और उनका उपयोग क्षेत्रीय जीवाश्म के रूप में किया जाता है। इनमें से कुछ गहरे जल के वासी थे, जो या तो बड़ी बड़ी आँखोंवाले थे, अथवा नेत्रहीन थे। क्रस्टेशिया (crustacia) विरल थे, किंतु यूरिप्टेरिडा (eurypterida) का सिल्यूरियन कल्प में बाहुल्य हो गया था।
(घ) मोलस्का (Mollusca) - इसमें गैस्ट्रोपोडा का बाहुल्य था, किंतु लैम्लीब्रैंकिया प्रारंभिक प्ररूप में थे। सेफेलोपोडा का नॉटिलाइट के रूप में बाहुल्य था।
(च) ब्रैकियोपोडा (Brachiopoda) - इनका कैंब्रियन एवं सिल्यूरियन कल्प में बाहुल्य था। फॉस्फेटी कवचवाले प्राणी कैल्सियमी कवचवाले प्राणियों की अपेक्षा अधिक थे।
(छ) एकाइनोडर्माटा (Echinodermata) - आदि सिस्टिड और क्राइनॉइड्स (crinoids) महत्व के थे।
(ज) सीलेनूटरेटा (Coelenterata) - ग्रैपटोलाइटीज़ (Graptolites) अति महत्व के थे। वे अधिकांशत: गहरे और शांत जल के वासी थे।
(झ) पाँरिफेरा (Porifera) - स्पंज महत्व के नहीं थे।
(ट) प्रोटोज़ोआ (Protozoa) - यद्यपि रेडियोलेरिया और फोरैमिनीफेरा अति सरल आकार के थे, तथाप वे पूर्व पुराजीव महाकल्प में महत्व के नहीं थे।
२. उत्तर पुराजीवी महाकल्प के प्राणी - यह मत्स्य और पर्णांग समान स्थल पादपों का, जिन्हें टेरिडोस्पर्म्स कहते हैं, युग था। इनके साथ गोनियोटाइट्स, स्पीरीफेरिड बाहुपाद और र्यूगोस प्रवाल पाए जाते थे।
(क) पादप - बीजपादप परंतु पर्णांग समान टेरिडोस्पर्म्स, इस युग के मध्य कल्प में महत्व के हो गए थे।
(ख) कशेरुकी - उपर्युक्त महांकल्प डेवोनी कल्प मत्स्यों का कल्प था। अन्य पाए जानेवाले कशेरुकियों में कुछ उभयचर और सरीसृप (Reptile) हैं, जो उच्चतर स्तरों में मिलते हैं।
(ग) संधिपाद प्राणी (Arthropoda) - उपर्युक्त महाकल्प में ट्राइलोबाइंट्स का पतन प्रारंभ हुआ और कल्प के अंत तक वे तथा यूरेप्टेरिडिस मृत हो गए, परंतु कीटों की वृद्धि हुई।
(घ) मोलस्का - उत्तर पुराजीवीमहाकल्प गोनिएटाइंटीज़ (goniatites) का कल्प था। ये इस काल में अति प्रचुर थे। इनके अतिरक्त अन्य सीधे अथवा कुंडलाकार ऐमोनाइटीज़ (Ammonites) भी बहुतायत में थे, जिनकी सीवनरेखा साधारण प्रकार की थी। नाटिलाइटीज़ का धीरे धीरे ्ह्रास प्रारंभ हो गया था।
(च) ब्रैकियोपोडा - उपर्युक्त महाकल्प में प्रोडक्टिड्स और स्पीरीफिरिड्स कहलानेवाले ब्रैकियोपोडा अत्यधिक फूले फले।
(छ) एकाइनोडर्माटा - उत्तरपुराजीव महाकल्प ब्लास्टॉइड्स (Blastoids) का महाकल्प था, जिनके साथ आदिम एकाइनॉइड्स (Echinoids) पाए जाते हैं।
(ज) सीलेंटरेटा - उपर्युक्त महाकल्प में ग्रैप्टोलाइट्स। मृत हो गए। प्रवालों में र्यूगोस प्रवाल अति महत्व के थे।
(झ) प्रोटोजोआ - रेडियोलेरिया और फोरैमिनीफेरा, दोनों पूर्व पुराजीव महाकल्प की अपेक्षा इस कल्प में अधिक महत्व के हो गए थे।
३. मध्यजीवी महाकल्प के प्राणी - मध्यजीवी महाकल्प सरीसृपों और ऐमोनाइटीज़ का कल्प कहलाता है। इनके साथ बेलेम्नॉइटीज़ (Belemnites) ब्रैकियोपोडा में रिनकोनीलिड्स और प्रवालों की भी प्रधानता थी।
(क) पादप - उपर्युक्त महाकल्प साइकैड्स (cycads) और एकबीजपत्री पादपों का कल्प था। शंकुवृक्ष (conifer) और फर्न (fern) भी मिलते हैं।
(ख) कशेरुकी - उपर्युक्त महाकल्प में सरीसृपों का अति बाहुल्य था। इस कल्प को सरीसृपों का कल्प कहा जाता है। सरीसृप वायु, जल और स्थलवासी थे। स्तनियों और पक्षियों का प्रादुर्भाव हो गया था, परंतु सरीसृपों की तुलना में वे नगण्य तथा अति छोटे आकार के थे और संख्या में भी बहुत कम थे।
चित्र २. आद्य विहंग (Archeornis) का जीवाश्म
सरीसृप तथा पक्षियों के बीच की कड़ी। इस प्राणी के कंकाल के अवशेष
सन् १८७७ में पत्थरों के भीतर प्राप्त हुए थे। (ब्रिटिश म्यूज़ियम से)
(ग) ऑथ्रार्पेोडा - ये महत्व के नही थे।
(घ) मोलस्का - लैम्लीब्रैंकिया और गैस्ट्रोपोडा (Gastropoda) का अत्यधिक विकास हुआ। ऐमोनाइटीज़ और बेलेम्नॉइट्जी का मध्यजीवीमहाकल्प के प्राणी जगत् में सबसे अधिक प्रधानता और बाहुल्य रहा। इनमें एमोनाइटीज़ अत्यधिक महत्व के थे। इनका उपयोग क्षेत्रीय जीवाश्म के रूप में होता है। वास्तव में यह कल्प इन्हीं जीवों का कल्प कहलाता है।
(च) ब्रैकियोपोड - मध्यजीवी महाकल्प में जिन ब्रैंकियोपोडा की प्रधानता थी वे टेरीब्रैटुलिट्स और रिनकोनीलिड्स के अंतर्गत आते हैं।
(छ) एकाइनोडर्माटा - मध्यजीवी महाकल्प में सिस्टिड्स और ब्लैस्टाइड्स मृत हो गए।
(ज) सीलेंटरेटा (अंतरगुहिका) - इनमें प्रवाल महत्व के थे।
(झ) पॉरिफेरा (porifera) - इनमें स्पंज कभी कभी शैलनिर्माताओं के रूप में प्रसिद्ध थे।
(ट) प्रोटोजोआ - इनमें फोरैमिनीफेरा महत्व के थे।
नूतनजीव महाकल्प के प्राणी - यह कल्प स्तनियों, पक्षियों, फोरैमिनीफेरों और आवृतबीजी (angiosperms) पादपों का काल था। प्राणी और पादपों के आधार पर हम नूतनजीव महाकल्प को आधुनिक समय से पृथक् नहीं रख सकते।
(क) पादप - नूतनजीवमहाकल्प में वर्तमान समय में पाए जानेवाले द्विबीजपत्री तथा एकबीजपत्री पादप, जिनमें ताड़ (palm) और उसी के समान अन्य पादप सम्मिलित हैं, पाए जाते हैं।
(ख) कशेरुकी - मध्यजीवीमहाकल्प के विशाल और विख्यात सरीसृपों का अत्यधिक ्ह्रास और पतन हुआ और इनके बहुत से वर्ग और गण लुप्त हो गए। इनका सान स्तनियों ने ले लिया, जो इस नूतनजीव महाकल्प में अपने विकास की चरम सीमा तक पहुँचे और जिनकी इस कल्प में प्रधानता थी।
(ग) ऑथोपोडानूतनजीवमहावकल्प - में वही ऑथ्रार्पेोडा मिलते हैं जो आजकल पाए जाते हैं।
(घ) ्व्रौकियोपोडा - ये नूतनजीवमहाकल्प में विरल थे।
(च) मोलस्का - दोनों गैम्स्ट्रोपोडा और लैंम्लीब्रैंकिया नूतनजीवमहाकल्प में पाए जाते हैं।
(छ) एकाइनोडर्माटा - ये नूतनजीवमहाकल्प में विरल थे।
(ज) सीलेंटरेटा - नूतनजीवमहाकल्प में शैलमाला बनानेवाले मेडरीपोरेरिया प्रवाल आजकल के समान उष्ण जल में अत्यधिक फूले फले।
(झ) पॉरिफेरा - ये महत्व के नहीं थे।
(ट) प्रोटोजोआ - नूतनजीवमहाकल्प में फोरैमिनीफेरा अत्यधिक महत्व के हैं, जिनमें न्यूम्यूलाइटीज़ की इस कल्प के आदि में और ग्लोबिजेराइना की वर्तमान समय में प्रधानता है।
जीवविकासीय प्रमाण - संपूर्ण शैलों के अनुक्रम का क्रम भली भाँति निश्चय हो जाने और उनमें पाए जानेवाले जीवाश्मों की पहचान हो जाने के उपरांत यह पता चला कि जीवों के विकास में शनै: शनै: प्रगति हुई। अति साधारण प्रकार के जीव सबसे पहले प्रकट हुए, जो सबसे प्राचीन अवसादी शैलों में पाए जाते हैं और इनके उपरांत जटिलतर जीव क्रमश: तरुणतर शैलों में आते गए। इस प्रकार संपूर्ण अकशेरुकी संघों के प्रतिनिधि, जो जीवाश्म रूप में परिरक्षण योग्य हैं, कैंब्रियन शैलों में मिलते हैं, परंतु प्रत्येक संघ के अंतर्गत पाए जानेवाले जीव अपनी रचना में प्राय: समान थे और बहुत कम परिवर्तन दिखाते थे। आकारीय आधार पर हम उन्हें अल्पविकसित वंश कह सकते हैं, परंतु बाद के युगों में पाए
क. प्लाओसीन युग का मनुष्य, जिसकी ख. खोपड़ी
तथा ग. टाँग की हड्डी जावा द्वीप में पाई गई और
इनसे उसके आकार का अनुमान लगाया गया।
जानेवाले संघों मे से प्रत्येक संघ में मिलनेवाले जीवों की रचना अधिक भिन्न थी और इस तथ्य की पुष्टि किसी सीमा तक वंशों की संख्या में वृद्धि से हो जाती है। कशेरुकियों में रचना के आधार पर आदिम वर्ग समझा जानेवाला साइक्लोसोटोमाटा वर्ग है, जिसका सबसे पहले प्रादुर्भाव हुआ और जिसके उपरांत क्रमश: मत्स्य, उभयचर, सरीसृप, पक्षी और स्तनी आए और ये वर्ग उसी क्रम से प्रकट होते गए जैसा उनकी रचना से आशा की जाती थी। अत: इस प्रकार से भौमिकीय युगों में जीवों की प्राप्ति का क्रम जीवविकास के सिद्धांत की सच्चाई प्रतिपादित करता है, क्योंकि जितने प्राचीनतर शैल होते हैं उतने ही सरल उनके ही सरल उनके जीव अवशेष होते हैं और जैसे जैसे भौमिकीय कालसारणी के अनुसार निकटतम शैलों का अध्ययन किया जाता है वैसे वैसे जटिल जीव अवशेष पाए जाते हैं।
जीवविकासीय सिद्धांत का प्रतिपादन करने के लिए घोड़े (अश्व) के विकास का अध्ययन अच्छा उदाहरण है। वह संपूर्ण सामग्री जिस पर घोड़े के विकास का इतिहास आधारित है, उत्तरी अमरीका के तृतीयक शैलों से प्राप्त की गई है। इसके विकास की मुख्य दिशाएँ ये हैं :
(१) आकार में वृद्धि, (२) गति में वृद्धि, (३) सिर और ग्रीवा में वृद्धि।
घोड़े का सबसे प्राचीनतम जीवाश्म ईओहिपस (Eohippus) है, जो निम्न ईओसीन शैलों में पाया गया है और जो आकर में बिल्ली से लेकर लोमड़ी के बराबर था। मध्य ईओसीन का घोड़ा ओरोहिपस (Orohippus) के नाम से जाना जाता है, जो आकार में ईओहिपस से कुछ ही बड़ा था। उत्तर ईओसीन का घोड़ा एपिहिपस (Epihippus) कहलाता है, जिसके विषय में पूरी जानकारी नहीं है। मेसोहिपस (Mesohippus) के नाम से प्रचलित घोड़ा, निम्नतर और मध्य ओलिगोसीन शैलों में मिलता है। यह आकार में भेड़ के बराबर, या उससे कुछ छोटा, था। मायोहिपस (Miohippus), जो उत्तर ओलिगोसीन और निम्नतर मायोसीन युग में पाया जाता था, भेड़ से कुछ ही बड़े आकार का था। पैराहिपस (Parahippus) निम्न मायोसीन युग में अति प्रचुर था। मध्य मायोसीन का घोड़ा, मेरिकिप्स (Merychippus) कहलाता था। जो पैराहिपस ही के समान था। प्लायोसीन युग का घोड़ा, प्लायोहिपस (Phiohippus) आकार में गधे के बराबर था, पर तृतीयक युग में मिलनेवाला घाड़ा वर्तमान काल में पाए जानेवाले घोड़े के बराबर था। इस प्रकार हम देखते हैं कि घोड़े के आकर में धीरे धीरे वृद्धि हुई।
इसी प्रकार घोड़े की बाहु और पादों की आंतरिक रचना में परिवर्तन से उसकी गति में वृद्धि हुई। इस परिवर्तन का मुख्य लक्षण पार्श्व भागों का ्ह्रास और मध्य अथवा अक्षीय भाग का विस्तार और वर्धन था, जिससे वह दौड़ते समय दृढ़ता के साथ बोझा संभाल सके। इसी प्रकार कलाई के बीच की हड्डी को छोड़कर अन्य सबका ्ह्रास हो गया, जिससे कलाई दृढ़ हो गई। इसी प्रकार तीसरे अंगुल की वृद्धि हुई, आस पास के अन्य अंगुल लुप्त हो गए और अंत में केवल वही रह गया।
इसी प्रकार सिर और ग्रीवा में धीरे धीरे वृद्धि हुई, जिससे घोड़ा सुगमता से चर सके। (राजेंद्र नागर)